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'सुन के कुंवर के वचन, अजासुत, देखि क्रोध मन में आया। पूंछ उठा के धरि कान पै, लहू जो नैनों में छाया ।।
अंग समेट उठाकर पंजा, कूदि कुंवर सन्मुख धाया। आसपास के भागे सगरे, कुछ ऐसा धडका (धरंका) खाया ॥ लगा तमाचा गिरा सिंहासन, कुंवर प्राण का परिहारी। स्वामी ब्रह्मगुलाल मुनि की सुनो कथा अजरजकारी ।।१६
फिर प्रसाद, माधुर्य दोनों काव्य-गुण दिखते है - वनवासी बैरागी मुनि बने ब्रह्मगुलाल और उन्हें मनाती हुई वंशावली काशी माता के संवाद में -
मुनिराज की माता - 'नहीं जानती थी इस दिन को है यह भरी जवानी । क्यों दीपक गुल किये जात हो, छोडी नहीं निशानी ।'
श्री मुनिराज का उत्तर - 'नहीं जवानी और बुढापे की कुछ जुदी है कहानी। एक दिन जिस को समझो अपनी, होगी वही बिगानी (विरानी) ॥१७
अब छंद और रागों की कुछ झाँकी करें -
प्रमुख सारे छंद (कोशमालिनी, कुंकुम, जोगी-रासा - नरेन्द्र, लावनी, दोहा इत्यादि) यहाँ प्रारंभ में उनकी विविध प्रभाव-क्षमता सह उल्लिखित हो चुके है, जो दृष्टव्य है। वास्तव में प्राय: ये बहुत से छंद अन्यत्र अल्प उपयोग में आते है।
अलंकार भी उपमा, उत्प्रेक्षा आदि यथास्थान प्रयुक्त हुए हैं।
परंतु इस कथा-रास की महत्ता है उसके विविध रस, रस-निष्पत्ति और कथा-रस-दृढीकरण की शक्ति में। और इस विषय में कथा के लिए उचित एवं सार्थक ऐसे वीररस, शांत तत्त्व-रस और वैराग्य रास आदि को जमाने में कथाकार अत्यंत सफल हुआ है।
विभिन्न पात्रों मुनि, राजकुमार, मंत्री, राजा, माता, पत्नी, मित्र मथुरामल्ल सभी के भिन्न भिन्न मनोभावों का संवादात्मक चित्रण बखूबी हुआ है। उद्देश्य-संदेश बोधक भावपक्ष
अंत में उद्देश्य और संदेश-बोध भी जिनदर्शन-जिनसिद्धांत जिनवाणी की
584 * छैन. यस. विमर्श