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और राजुल के जीवन को अनूठा मोड देनेवाला प्रसंग है - भगवान का आधे रास्ते से वापस जाना । इस प्रसंग में कारणरूप बने मूक पशु जिनकी करुण पुकार ने प्रभु को दीक्षा के मार्ग की ओर मोड दिया। मांसाहार भारतीय संस्कृति के लिए बहुत बडा लांछन है। भगवान ने इसके त्याग के लिए सब को आह्वान दिया। सचराचर प्राणीसृष्टि के प्रति बहती करुणा की धारा..... ‘भवे खेद प्राणीदया ।' (श्रीमद्जी) इस विषय में प्रज्ञाचक्षु पंडित सुखलालजी ने 'जैन संस्कृति का हृदय' नामक लेख में लिखा है - “एक समय था जब केवल क्षत्रियों में ही नहीं, सभी वर्गों में मांस खाने की प्रथा थी। नित्य के भोजन, सामाजिक उत्सव आदि प्रसंगों पर पशु-पक्षियों का वध ऐसा ही प्रचलित और प्रतिष्ठित था जैसा आज नारियल और फल चढाना । उस युग में यदुनंदन नेमकुमार ने एक अनूठा कदम उठाया। निर्दोष पशुपक्षियों की आर्त-मूक पुकार सुनकर उनका हृदय द्रवित हो उठा और उन्होंने निश्चय किया कि वे ऐसा विवाह नहीं करेंगे जिस प्रसंग पर अनावश्यक रूप से निर्दोष पशु-पक्षियों का वध होता हो । उनके इस प्रकार त्याग-तपस्या के मार्ग का अपनाने का कार्य के फलस्वरूप गुजरात एवं गुजरात के प्रभाववाले दूसरे प्रांतो में भी वह प्रथा नामशेष हो गई और स्थान-स्थान पर चलनेवाली पांजरापोल की प्रथा का उद्भव हुआ।' ___ अन्य सभी तीर्थंकरों से भगवान नेमनाथ के जीवन के दो अनुपम पहलू ये है कि वे बाल ब्रह्मचारी थे तथा दिव्य प्रेम के प्रणेता थे। आठ-आठ पूर्व भवों से स्नेह के बंधन में बद्ध राजुल को मोह-माया के बंधनों से मुक्त करा कर जीवन के अंतिम ध्येय-मुक्ति की प्राप्ति के लिए राजुल के हृदय पर जो वज्रप्रहार उन्होंने किया उसके पीछे करुणानिधान प्रभु का कितना भव्य-उदात्त आशय था ...। कुछ समय की वेदना... व्यथा... आंसु... परंतु अंत ? शाश्वत सुख की प्राप्ति ...| इस दिव्य प्रेम का और कोई उदाहरण हमें मिलता है ? ____पं. श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री भी - ‘जैन जगत के ज्योर्तिधर आचार्य' नामक ग्रंथ में लिखते है - "भगवान नेमनाथ और भगवान पार्श्वनाथ को आधुनिक विद्वान ऐतिहासिक महापुरुष मानते है। मांसाहार विरोध के में उन्हों ने जो अभियान आरंभ किया वह इतिहास के पृष्ठ पर आज भी चमक रहा है।''
572 * छैन यस विमर्श