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कुंद के समान - ‘कुंदधवल पंचमुख भलो' और दूसरी उपमा -
'बहु सीत ज्यूं हंसपंख-' हंस के पंख सम सीत - श्वेत
और रूपक अलंकार का भी एक उदाहरण धन्य धन्य स्वामी तुम वंश 'शिवादेवी उर सर हंस -' शिवादेवी के उर रूपी सरोवर के हंस - 'स्वामी उतरे शिबिकामांथी जाणे केशरी एह गुफाथी' (उत्प्रेक्षा)
जैसे वनराज अपनी गुफा में से निकले उस प्रकार स्वामी - भगवान नेमनाथ शिबिका से उतरे। कितना सजीव चित्र आंखो के समक्ष खड़ा होता है। भगवान कैसे दिखते होंगे ?
पंडित प्रवरश्री की भाषा अत्यंत सरल फिर भी अर्थगंभीर है। सरल भाषा में कविवर ने हिरण और हिरनी के मनोभावों का जो वर्णन किया है वह हृदय को छू जाता है - हिरनी हिरन को प्रभु समक्ष मूक प्राणियों का जीवन बचाने के लिए विनंती करने को कहती है -
सहु जीवोनी रक्षा तणी रे विनती कीजे जिन भणीरे निझरणां जल पीवीये रे अटवी तरणे जीवीये रे नित्य वनमां वसीये रे निरपराधी राखो तुमे रे ।
भगवान नेमनाथ तथा उनके लघुबंधु के स्वभाव की तुलना करते हुए राजुल के विचार भी कितने सरल शब्दों में कविवर ने शब्दस्थ किये है ....
मन चिंते जुओ अंतरो जी, दोय सहोदर भाय मोक्ष भणी एक उद्यमी जी, एक नरक भणी थाय ।
कलापक्ष की दृष्टि से कविवर ने रासा की रचना के अन्य सभी तत्त्वों का अनुसरण किया है । 'मध्यकालीन गुजराती साहित्य की जैन परंपरा' नामक अपने लेख संकलन में सुश्री कीर्तिदा शाह ने लिखा है - रास का आरंभ तीर्थंकर वंदना से होता था, साथ में सरस्वती स्तुति, कृति के अंत में कवि का अपना नाम, गुरु का नाम, रचनासमय, फलश्रुति इत्यादि अवश्य आते थे। ये सारे तत्त्व इस रचना में उपस्थित है।'
भगवान नेमनाथ तथा महासती राजुल की इस अनुपम कथा में महत्त्वपूर्ण
श्री नेमीश्वर रास * 571