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इन कष्टों के विषय में तो राजुल ने तनिक भी सोचा नहीं । माता-पिता के वात्सल्य की शीतल छाया, राजप्रासाद का सुखमय जीवन सबकुछ ऐसे त्याग दिया जैसे एक सर्प अपनी केंचुली । और जब वर्षा में भीगे कपडों को सुखाने वे एक गुफा में गई और रथनेमि उन्हें देखकर विचलित हो उठे तब जिस वीरता के साथ उनको उपदेश दे कर साधना के मार्ग पर स्थिर किया वह भी राजीमति की वीरता का ही परिचायक है । इन महत्त्वपूर्ण प्रसंगो को कवि अपनी रचना में अधिक स्थान दे सकते थे ।
भगवान नेमनाथ के जीवन के विषय में जब भी कोई चिंतन करे तो तत्क्षण राजीमति राजुल का नाम मानसपट पर उभर कर आएगा। लेकिन उनके अतिरिक्त भगवान नेमनाथ के माता-पिता का भी चरित्रांकन कवि
कुछ प्रसंगों के द्वारा सुंदर लेकिन संक्षेप में किया है। भगवान को केवल ज्ञान की प्राप्ति होते ही इन्द्र अन्य देवों के साथ आते हैं और प्रभु की प्रदक्षिणा और वंदना करने के बाद क्या कहते हैं ?
धन्य धन्य शिवादेवी, माता तुमची स्वामी । जिणे जग परमेश्वर जनम्या गुणगणधामी । धन्य समुद्रविजय नृप, जस कुल उग्यो भाण
वास्तव में जिन्हों ने महान तीर्थंकर भगवंत को जन्म दिया उन मातापिता का मूल्य क्या कम माना जा सकता है ?
माता-पिता के अतिरिक्त श्रीकृष्ण का उल्लेख कवि ने यहाँ-वहाँ किया है । जब भगवान नेमनाथ दीक्षा ग्रहण करने का निर्णय करते है तब श्रीकृष्ण उन्हें समझाने का प्रयत्न करते है
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जे संसार असारता देखाडी जगतात ।
हुं पण जाणुं ते सर्वे, पण विलवे माततात । शास्त्र मांहे परसिद्ध छे, लोकनीति पण एह छे, माय - तातने पालिये, केम रहेशे प्रभु तेह |
रचना का कलापक्ष
जैसा कि जिनेन्द्रसूरिजी ने प्रस्तावना में उल्लेख किया है कि इस रास का रचनाकाल है विक्रम संवत १८०२ । अतः इसकी भाषा मध्यकालीन गुजराती भाषा है । आज की शुद्ध गुजराती इस भाषा के बहुत निकट है । श्री नेमीश्वर रास * 569