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मेरे मन पर इस रचना के अध्ययन से जो प्रभाव पडा है उसको संक्षेप में प्रस्तुत करती हूं।
'नेमीश्वर रास' के दो प्रधान पात्र है - तीर्थंकर भगवंत प्रभु नेमनाथ तथा राजीमति राजुल । उनके इस अंतिम भव की कथा ही जगत के जीवों के लिए प्रेरणा-दायक, हमारे अंधकारपूर्ण जीवनपथ को प्रकाशित करनेवाले सूर्य के समान है। भगवान के इस जीवन को कवि और भी अधिक प्रभावोत्पादक एवं काव्यमय स्वरूप में आलेखित कर सकते थे ऐसी मेरी नम्र समझ है। भगवान के आठ पूर्वभवों को प्रथम खंड में आलेखित किया है। द्वितीय और तृतीय खंडो में कृष्ण-वासुदेव, बलदेव, जरासंध, कंस आदि के जीवन के विविध प्रसंग, उनके पूर्वभव आदि का विस्तृत वर्णन है। भगवान नेमनाथ तथा राजीमति के साधनामय आदर्श जीवन का और भगवान के संसार की असारता विषयक एवं अहिंसा से संबद्ध विचार रचनाकार प्रस्तुत करते तो, यह रचना आज के हिंसा की आग में जल रहे जगत को अनुकरणीय राह दिखा सकती थी। फिर भी रचनाकार के द्वारा सभी पात्रों के मनोभावों को और विशेष करके राजीमति के भगवान नेमनाथ के प्रति अनुराग का और उस अनुराग के कारण ही उनके द्वारा निर्दिष्ट मार्ग का तत्क्षण स्वीकार, ये सब थोडा अधिक विस्तृत रूप से आलेखित किया जा सकता था। क्योंकि ऐसे चरित्रों के गुणानुवाद करने से ही समाज और राष्ट्र का उत्थान हो सकता है । सती राजीमति केवल भगवान के प्रति अनुरक्त नारी ही नहीं, एक वीरांगना है। जिनके प्रति हृदय में अनन्य अनुराग है वे ही इस प्रकार से त्याग कर दें कि मिलन की कोई आशा ही न रहे तो जो दु:ख होता है वह मृत्यु से भी भयंकर दु:ख होता होगा। इसकी कल्पना तो वही कर सकता है जिसने उसका अनुभव किया हो । क्षण भर के लिए यह अस्वीकृता नारी का हृदय आहत हो उठता है। व्यथित हृदय कल्पांत कर उठता है। परंतु कुछ ही क्षणों में अपने हृदय पर नियंत्रण पा लेती है। और स्वयं भी अपने प्राणनाथ के मार्ग की अनुसारिणी बन कर उनके पीछे पीछे जायेगी यह निश्चय कर लेती है। मानो वह हमसे कहती है, जिससे प्रेम करो, उससे अनन्य प्रेम करो और उसके लिए सब कुछ त्याग दो।' राजमहल में पली एक राजकन्या के लिए प्रियतम के घोर कष्टों से भरे मार्ग का अनुसरण इतना कठिन है कि उसके लिए कोई उपमान भी ढूंढना कठिन है - असंभव है। लेकिन
568 * छैन रास.विमर्श