Book Title: Jain Ras Vimarsh
Author(s): Abhay Doshi, Diksha Savla, Sima Ramhiya
Publisher: Veer Tatva Prakashak Mandal

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Page 615
________________ समकित मोक्षतरु बीज छे, धर्म आवास नुं द्वार सुभट संग्राममां जेम लहे, हर्ष आनंद अपार... पहले हमने देखा कि प्रभु नेमनाथ रथ को वापस ले जाते है। इस समाचार से आहत राजीमति मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर जाती है। सखियाँ अनेकविध उपचार के द्वारा उन्हें स्वस्थ करने का प्रयास करती है । वे राजीमति से कहती है - 'निःस्नेही निठुर जेह, हरिण परे बिहितो गेह तेहने वरियै कहो केह ? हरिवंशे कुंवर बहुला, कामदेव परे रूपाला तेहने परणो तुमे बाला...।' किन्तु राजीमति भारतीय नारी है। भगवान नेमनाथ के अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष का विचार भी करना उनके लिए असंभव है। और वे नेमकुमार का दोष भी नहीं देखती है। दोष है तो मेरे कर्मों का। 'है है दैव कर्यु कांई, देइ निधान ने हरी जाई मुज हैडुं फाटी जाई...।' अथवा पाप कर्यां मोटा, उदये आवयां ते खोटां किहांथी ए वर मुज भागे में न विचार्यु कंई आगे ...। लेकिन आठ आठ पूर्वभवों का संबंध इस भव में कैसे छूट सकता है? वे सखियों से कहती है - जिस प्रकार सूर्य के बिना कमलिनी विकसित नहीं होती, उस प्रकार मेरा हृदयकमल मेरे स्वामी के बिना विकसित नहीं हो सकता - 'इणे पशु पर किरपा आणी, इणे मारी बात न को जाणी ए विण परणुं नहीं को प्राणी....।' अगर प्रभु ने विवाह कर के मेरे हाथ पर हाथ नहीं रखा तो क्या हुआ ? 'नवि कीधो हाथ उपर हाथे, पण कर मुकाबुं हुं माथे पण जाऊँ प्रभुजीनी साथे।' राजीमति के ये हृदयस्पर्शी भाव और ये शब्द...। कई कवियों ने उन्हें अपनी रचनाओं में आलेखित किया है। एक दो उदाहरण यहाँ प्रस्तुत करने 566 * छैन. यस. विमर्श

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