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परंतु कृतनिश्चयी प्रभु नेमनाथ को उनके निश्चय से डिगाने को कौन समर्थ था ? रथ को मोड कर वापस आये कुमार नेमनाथ को श्रीकृष्ण समझाने का प्रयत्न करते हैं कि संसार की असारता मुझे भी ज्ञात है, परंतु लोकनीति और शास्त्र कहते है कि माता-पिता का पालन करना ही सबसे बडा कर्तव्य
'जे संसार असारता देखाडी जगतात ! हुं पण जाणुं ते सवे, पण विलवे मात तात। शास्त्रमाहे परसिद्ध छे, लोकनीति पण एह छे, माय तात ने पालिये, केम रहेशे प्रभु तेह ....?'
और कुमार के मन को बदलने हेतु वासुदेव की सभी रानियाँ भी आ जाती है।
'रमणी श्री वासुदेव नी आवी बहोंतेर हजार विनति करे, पाये पडे, रुवे सयल परिवार ।'
परंतु केवल मुक्ति ही जिनका लक्ष्य है वे मेरु पर्वत सम अडोल-अकंप प्रभु नेमनाथ किसकी सुननेवाले थे ? माता-पिता को समझाते हुए कहने लगे -
'रहनेमि, सत्यनेमि वली, दृढनेमि त्रण भ्रात छे, सहोदर माहरा तेह छे, विनयवंत विख्यात वृद्धभाव ए पालशे...'
और कृष्ण, आगे भविष्य की बात करते हैं। आयु क्षीण होने पर उसे जोडनेवाला, बढानेवाला कोई है ? और दीक्षा लेने के पश्चात् यदि मैं भवजलनिधि पार करुंगा तो शिवसुख के कारणरूप धर्म का दातार बनूंगा -
'दीक्षा लेइ सुणी नरपति, करशुं तुम उपगार शिवसुख कारण धर्मना था| अमे दातार.... कोण कोनां मायतात, वस्तु मते नहीं कोय एक आव्यो एकलो जशे, सांभलजो सहु कोय...." इन शब्दों को सुनकर कृष्ण को भी उनकी दृढ़ता की प्रतीति हो गई। 'कृष्ण विचारे चित्त-मां महावैरागी नेम सुर पण नव वाळी शके, वाळी शकुं हुं केम ?'
564 * छैन यसविमर्श