Book Title: Jain Ras Vimarsh
Author(s): Abhay Doshi, Diksha Savla, Sima Ramhiya
Publisher: Veer Tatva Prakashak Mandal

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Page 612
________________ और यह ज्ञात होने पर कि विवाहभोज के लिए इन पशुओं की बलि दी जायेगी, तत्क्षण विवाहमंडप की दिशा से विपरीत, दीक्षा के मार्ग पर अपने जीवनरथ को मोड दिया। वहाँ राजा उग्रसेन के राजभवन में सखियों के साथ हँसी-मजाक कर रही राजुल को कुछ अमंगल की अंत:प्रेरणा होती है और एक नि:श्वास निकल जाता है। आनंद मंगल मना रही सखियाँ पूछती है - ‘राजिमती इस अवसरे मूके दीर्घ निसास...' और सखी के द्वारा कारण पूछे जाने पर कहती है .... 'दाहिण फरके लोयणं, अपमंगल अविवाद...' और तभी समाचार आते है कि भगवान तो विवाहमंडप से वापस लौट गये है। इस समाचार से अनेक आशाओं को हृदय में धारण करती, भाविजीवन में एक महान पुरुष के साथ जीवनभर का संबंध बांध कर उनकी अर्धागिनी बनने की कल्पनाओं में खोई राजुल की स्थिति क्या हुई होगी ? पशुओं से भी अधिक करुण चित्कार उसके हृदय से नहीं निकला होगा ? कवि स्वयं यही कहते है - 'राजीमति इण अवसरे, वात सुणी निरधार रथ फेरी पाछा वळया, जिनवर नेमकुमार... वज्राहत धरणी ढळी, मूर्छा पामी तेह। धावमात सखियाँ वळी धावे झलझल देह.... ... तेम विलपे राजीमती कविथी पण न कहाय ।' सत्य है, नारी की व्यथा एक पुरुष कवि क्या समझ सकेंगे .....? और होश आने पर विलाप कर रही राजुल प्रभु नेमनाथ से कहना चाहती है - 'सामलिया लाल, तोरण थी रथ फेर्यो रे कारण कोने गुणगिरुआ लाल मुजने मूकी चाल्या रे दरिसण दोने ।' एक नारी सुलभ व्यथा के भावों को कवि ने यहाँ सुंदर रूप से शब्दस्थ किया है। प्रभु ! मेरा एसा कौन सा दोष है जिसका मुझे आप इतना कठोर दंड दे रहे हैं ? 'कोई अपराध कर्यो तुमचो, तो स्वामी समीपे अमचो । पण महोटा थई केम विरचो...?' श्री नेमीश्वर रास * 563

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