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मुख मंडण सांचो वयण, विण तंबोल हरंग ॥
जिहां धर्म तिहां जय, जिहां पाप तिहा विणास तो ।
इम जाणी तम्हे धर्म करो, कहे ब्रह्मचारी जिगदास तो ॥ १२३
(च) अलंकार - ‘आदिनाथ रास' में बलात् तो अलंकारों का प्रयोग नहीं है लेकिन सहजतापूर्वक अनेक अलंकार प्रयुक्त हो गये है । पुनरुक्ति - हलु हलु चाले सुंदरोए, सु पग मूके जिम फूल । उत्प्रेक्षा रूप जोवन अति रूवडोए, जाणइ बीजो इन्द्र |
एक जिह्वा किम बोलीयाए, उपमा रहीत जिणंद ॥२५
उदाहरण पुत्र करी अति सोहीया, आदि जिणंद गुणवंत तो । जीम चन्द्र नक्षत्र करि, पूनम तणो जयवंत तो ॥ विरोधाभास - जिम जिम दान घटे रुवडो, तिम तिम परमानंद । श्रेयांस मनि बीजि, वाघे धरमह कंध ॥
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उपसंहार
इस प्रकार हम देखते है कि ब्रह्म जिनदास द्वारा रचित 'आदिनाथ रास' भाव एवं कला दोनों ही दृष्टियों से एक उत्कृष्ट साहित्यिक कृति सिद्ध होती है । जिसे हिन्दी - साहित्य के इतिहास ग्रन्थों में समुचित स्थान उपलब्ध होना चाहिए, ताकि उसका अध्ययन-अध्यापन गतिमान हो सके ।
कृतज्ञता
प्रस्तुत निबन्ध को तैयार करने में मुझे डॉ. प्रेमचन्द रावका के ग्रन्थ 'महाकवि ब्रह्म जिनदास व्यक्तित्व एवं कृतित्व' से बड़ी सहायता प्राप्त हुई है। मैं उनका कृतज्ञ हूं ।
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पादटिप्पणी
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आदिनाथ रास की भाषा में वास्तव में गुजराती के विशेष अंश है। ये रासा की आदिनाथ कथा दिगंबर परंपरा अनुसार है । सं.
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१. आदिनाथ रास, छन्द ३
२. आदिनाथ रास, २६ दूहा, १, २
३. आदिनाथ रास, अम्स माल्हंतडांनी, ५ ४. आदिनाथ रास, दूहा, भम्स रम्सनी
532 * न रास विभर्श