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अगनि संगति घृत जेम गलंति ॥ (६५ वां छंद)'
नायक-नायिका की दृष्टियां प्रथम बार एकमेक हो जाने की स्थिति दूध में घुलती हुई शक्कर से उल्लिखित कर वाचक कनकसोम ने उसे बडी सूक्ष्म अभिव्यक्ति की है। संयोग श्रृंगार के 'मान' और स्थूल रति-चित्र जैन प्रेमाख्यानक काव्यों में वर्ण्य नहीं हो सके । प्रवासजनित मानसिकता कोश्या' के विरह वर्णन में जैन कवियों द्वारा अभिव्यक्त की गई। 'कथानक के स्वरूप के अनुसार आषाढभूति चरित्र अथवा अन्य कई प्रेमाख्यानक काव्य में यह स्थान नहीं पा सकी।'
अपने लघु कथा-विस्तार के कारण ‘आषाढभूति रास' में भाव-वर्णन भले ही थोडा हुआ, किन्तु जो भी हुआ वह स्वाभाविक और पुनरावृत्ति रहित । 'दैन्य' और 'वितृष्णा' के भाव नटुवा-सुताओं और आषाढभूति के निम्न कथनों में व्यक्त हुए है। अपराध बोध से ग्रसित नटुवा कुमारियों का अश्रुप्रवाह ऐसा तीव्र हो उठा है, जैसे अधिक वर्षा से नदी उफन पडी हो -
'बहति नदी असराल पावस जो उल्हरे री। छंद ४६ ॥
नटुवा कन्याओं के अति नीच कर्मो से उत्पन्न आषाढभूति की घृणा कैसे शमित हो जाय? आषाढभूति का उनसे कथन है -
अंबर छोरि गमारि, जाने दे मौन करउ री। देख्यो तुम्ह आचार, हम चित्त थी उतरी री॥
कामासक्त आषाढभूति मुनि गुरु धर्मरुचि पर भी एक क्षण क्रोध कर बैठता है। मुनिधर्म के उपकरणों के त्याग के साथ उसके 'अमर्ष' भाव की प्रभावकता इन शब्दों में अभिव्यंजित हुई है - _ 'ल्यों पात्र आपणा उपगरण । भोग बिना हम जाइन रहणा ॥३४॥'
परिवर्तित रूप धारण करना, मोदकों की संख्या में वृद्धि करते जाना लब्धिधारी आषाढभूति की चेष्टाएं नटुवा और उसकी पुत्रियों के विस्मय भाव की बोधक रही है। ग्रन्थान्त के छंदों में कथित तन की अशुचिता के कथन 'जुगुप्सा' भाव के संचरण में सहायक बने है।
भाव प्रवणता के साथ-साथ 'आषाढ़भूति रास' में कला पक्ष भी प्रौढ रहा। राजस्थानी की प्रमुखता रखते हुए भी वाचक कनकसोम ने गुजराती
और ब्रजभाषा के लोक प्रचलित शब्दों का किंचित प्रयोग कर अपनी भ्रमणशीलता का बोध भी करवाया। काव्यभाषा में अप्रयत्नज अलंकार-प्रयोग
वाचक कनकसोम कृत आसाढभूति रास * 559