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के साथ लोकोक्तियों के समावेश ने भाषा में रोचकता बढाई जैसे - 'रतन भरि बूडत ज्यों नावा, तजि चिंतामणि सार कांच माणिक गहयो री' आदि ।
'आषाढ़भूति रास' में छंदों के साथ आसावरी, गौडी आदि रागों का उल्लेख इस तथ्य का संकेतक है कि 'रासा' काव्य की गेयता में राग-रागनियों को भी प्रमुखता मिली है। राजस्थानी काव्य ‘वेलि, रास, चुपई, ढाल, स्तवन' आदि कई काव्य रूपों से बडा समृद्ध रहा। कनकसोम ने भी 'वेलि, रास, चुपई' में रचनाएं लिखकर अपनी काव्यप्रतिभा का निदर्शन किया है।
सत्रहवीं शताब्दी का महान् संत वाचक कनकसोम विभिन्न काव्यरूपों में सामयिक संस्कृति को रूपायित करने वाला अप्रतिम साहित्यकार है। उसका 'आषाढभूति रास' राजस्थानी और गुजराती के अक्षय ‘रासा रत्नकोष' का एक तेजोमय हीरा है।
560 * छैन रास. विमर्श