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नाभि मंडल सागर संगइ, जाणकि तीरथ लाहा रे ॥२॥ कुच उच संपुट घट दूने, विचि विचि कमल अनुकारा रे । केहरि कटि लंकहि जिसी, कटि मेखल झणकारा रे ।
समकालीन रीतिकालीन हिन्दी कवियों के अनुकरण का विरोध करते हुए राजस्थानी व गुजराती के श्वेताम्बर जैन कवि अधिक कल्पनाशीलता, प्रतिभादर्शन अथवा चमत्कारिक अभिव्यक्ति के लोभ से बचे ।
उन्होंने नायिका के सौन्दर्य की यथार्थता को अधिक अनुभूतिमय बनाने की चेष्टा की। नई उद्भावनाऐं भी की तो, सुंदर कवि जैसी ऊहात्मक नहीं, अपितु सौन्दर्यानुभूति को अधिक व्यंजित करने की -
'लट छूटी शिर थी, जेह कूचं लपटाई जाणों पूजन शंकर एह नागिनी आई रे।'
- सिर से छूटी हुई नायिका की लटें कुचों से लिपटी हुई ऐसे लगती है, मानों शिवलिंग प्रतिमा का पूजन करने नागिने आ गई हों।
(उत्तम विजयकृत नेमीचंद स्नेह वेलि छंद ३/८)
वाचक कनकसोम भी सौन्दर्याभूति को अनुभूतिमय बनाने हेतु नई और श्रेष्ठ उद्भवनाओं में पीछे नहीं रह पाते। 'नायिका के कानों में लटकते हुए कुण्डल ऐसे प्रतीत होते हैं, मानों उसके मुख की छवि को देखने के लिए चन्द्र और सूरज दोनों आसमान से उतर आये हो ।'
'ऊंचे उठे दोनों कुच दो घटों में रखे हुए कमल पुष्पों के समान शोभा दे रहे है और कुचों के उपर का श्याम भाग कमल पुष्पों के रूप में प्राण गंवा देने वाले श्याम भ्रमरों का प्रतिरूप है।'
(आषाढभूति रास, छंद, २० व २२) हिन्दी के रीतिकालीन काव्य में पूर्वानुराग की अभिव्यक्ति के लिए उसकी आंगिक चेष्टाएं स्थूलरूप में प्रदर्शित हुई। जैन परम्परा के श्रृंगारनिरूपक रचनाकारों ने सूक्ष्म मानसिक अभिव्यक्तियों को परखा/ उनकी काव्योक्तियाँ भाव को पाठक के मन में अधिक समय तक जमाने में अधिक सफल रही। विजयदेव सूरि की बहुचर्चित रचना 'शील रासा' (१६वीं शताब्दी का अन्तिम पाद) में रहनेमि का मन राजुल को यकायक देखकर इतना विचलित हो गया जितना आग को देखकर घृत का पिघल जाना - ___ 'रूप देखि रिसि चित्त चलंति ।
558 * छैन. यस. विमर्श