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'पेषणों' कदै देषै नहीं, श्रवण न सुहाइ गीत रस ।'
अकबरकालीन आगरावासी कवि बनारसीदास ब्रजप्रदेश में घर-घर गीत गाए जाने और नाटक खेले जाने का संकेत देते है - _ 'घर घर नाटक होंहि नित, घर घर गीत संगीत'
मुगल बादशाह मुहम्मद शाह रंगीला की धर्मनिरपेक्षता के प्रशंसक दिल्ली बस जाने वाले धानतराम जिन दर्शन की अपेक्षा नाटक देखने वाले साधक पर झुंझला उठे हैं।
'नाट विलोकन में बहु समुझौ, रंच न दरस प्रतीत ।' पद ११०
विविध क्षेत्रों के विविध कालों में आविर्भूत जैन कवियों की उपर्युक्त काव्योक्तियाँ भारतीय समाज में सर्वत्र व्याप्त नाट्यकला के प्रभाव का संकेत देती है। उक्त सभी काव्योक्तियां 'आषाढ़भूति रास' में आषाढभूति के मन पर भरत चरित्र के दृढ प्रभाव की अनुरूपता का पोषण करती है। 'आषाढभूति' जो भारतीय नाट्य प्रदर्शन का श्रेष्ठ निदर्शन प्रस्तुत करता है ।
श्वेताम्बर जैन कवियों का राजस्थानी और गुजराती साहित्य विरक्त और अनासक्त संतों द्वारा ही लिखा गया, किन्तु घर-घर आहार के लिए विहार करते हुए पारिवारिक और सामाजिक जीवन उनसे ओझल नहीं रह सके। इसी कारण ‘चित्रसेन-पदमावती', 'चंदन-मलयागिरि', 'जयसेनलीलावती', 'मानतुंग-मानवती’, ‘माधवानल कामन्दकला' आदि प्रणयी-युगलों का सुभति-हंस (१६९१ वि.) हेमरतनसूरि (१६७३ वि.) लब्धोदय (१६४९१६९३ वि.) भद्रसेन (१६७४-१७६६ वि.) मोहनविजय आदि कवि यथार्थ दाम्पत्य जीवन चित्रित कर सके ।
वाचक कनकसोम कृत 'आषाढभूति रास' भारतीय वैवाहिक पद्धति का अनुसरण करते हुए एक नया और मौलिक तथ्य यह भी प्रस्तुत करता है कि विवाह के लिए दम्पति के मनोभावों में समानता, खानपान और रीतिरिवाज में एकरूपता होना भी आवश्यक है। इसके अभाव में पारिवारिक रिश्तों में ऐसे ही खटाई आ जायेगी जैसे - नटुवा-सुताओं और आषाढभूति के प्रणय सम्बन्धों में शीघ्र ही टूटन आ गई। मानसिक मिलनसारिता की पूर्ण उपेक्षा करते हुए यौवनजन्य प्रमाद में आकण्ठ निमग्न युवा-युवतियों को पारस्पिरक समझदारी विचारपूर्वक बढाने के हेतु एक अमर और अनूठा संदेश 'आषाढभूति रास' का एक लक्ष्य है।
556 * छैन. यस. विमर्श