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के लिए संयमहीन तो हुए; किन्तु संभल भी गए। सप्तव्यसनों में चर्चित मदिरापान जैसे दोष ने उनके प्रियजनों के प्रति भी उन्हें विरक्त कर दिया। मदिरोन्मत्त युवतियों ने उन्हें घोर पश्चाताप करने को बाध्य कर दिया -
'हा हा कुण अपराध, इण तूं प्रीति करी री। किम मुझ लोपी कार, इण की जाति बुरी ऐ। छंडी संयम रंग, काहे रमणि वरी री॥४५॥'
समतामूलक स्वर, गुरु-शिष्य सम्बन्ध, चारित्रिक पतन के प्रति घृणा आदि मूल्यों की प्रतिष्ठा के साथ-साथ समकालीन मनोरंजन साधनों को श्वेताम्बर जैनकाव्यों में अधिक महत्त्व मिला है। उनमें से कुछ है - संगीत, नाटक एवं नट विद्या । ये विधायें अपनी कलात्मक दृष्टि से ही आकर्षक नहीं, अपितु एक बड़े समूह को एकजुट और प्रसन्न रखने के लक्ष्य से अपना सामाजिक महत्त्व भी रखती हैं। सार्वजनिक जीवन को सुखमय, रोचक, एक्य बनाने के लक्ष्य के अतिरिक्त इनका आर्थिक महत्त्व ही नहीं भुलाया जा सकता। संस्कृत नाटकों का अस्तित्व स्वीकार करते हुए भी भारत के मध्यकालीन नाटकों में अंग्रेजी साहित्य का प्रभाव मानने की चेष्टा करने वाले विद्वानों को यह स्वीकार करना ही होगा कि अभिनय की प्रकृति तो भारतीय संस्कार में ही है। ‘भगत', 'भंवई' नौटंकी जैसी लोकनाट्य कला ही नहीं; प्रसिद्ध विद्वान् अगरचंद नाहटा द्वारा उल्लिखित श्वेताम्बर जैन कवियों द्वारा लिखित संवादात्मक रचनाएं भी प्राप्त हुई है - समयसुन्दर कृत 'दान, शील, तप, भावना, संवाद' (१६६२ वि.) रंग विजय कृत 'काया-जीव संवाद' अन्य कवियों की कृतियां ‘मृगा सिज्झाय' धन्ना सिज्झाय आदि । दिगम्बर जैन कवि ब्रह्म गुलालकृत 'जोग-भोग संवाद' (१६६५ वि.) अवध क्षेत्र के प्रसिद्ध जैन कवि विनोदी लाल का ‘नेमि-राजुल संवाद काव्य' इस तथ्य के साक्षी है कि गुजरात और राजस्थान में ही नहीं, नाट्य प्रदर्शन तो अवध और ब्रज क्षेत्र में भी बडा व्यापक था । समयसुंदर तो आत्म शिक्षा गीत में साधक की आलोचना करते हुए कहते है कि यह नाटक और कौतुक देखने में रात्रि-भर जागता रहता है -
'नाटक कौतुक पेषताएं, तो जाणे रयण विहाय ।
'पेषणों' नहीं देखने वाले, गीत न सुनने वाले सूम को उसकी कन्जूसी पर ढूढांड क्षेत्र के कवि ठक्कुर सी (सं. १५२०-१५९० वि.) ने प्रतारणा दी है -
वाचक कनकसोम कृत आसाढभूति रास * 555