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रूप में ही बह गए । अभिनय काल्पनिक ही नहीं रह गया; जीवन की सच्चाई
बन गया ।
‘यतिय काया अपवित्र विचारी । भवना भरथह संभारी ।' आषाढभूति ने चारों धातियाँ कर्मो का नाश किया और चौदहवे गुण - स्थानों की ओर बढे । भरत के साथी ५०० राजकुमार बने पात्र भी मुनि बन गए और आषाढभूति मुनि द्वारा प्रतिबोधित हुए। मुनि आषाढभूति ने 'ऋषभपुत्र भरत की अनुकृति करते-करते स्वयं भी उसका साक्षात् चरित्र ही आत्मसात् कर लिया । कर्ममल के शोधन के लिए अन्यों को प्रेरित किया और मुनिधर्म पालते हुए स्वयं मुक्ति भी पाई
'उपदेश आवै लोक साथै कर्ममल जिन साधना ।
अनुक्रम कराय बिहार चारित्र, पालि मुनि मुगतै गया ।"
समस्त भारतीय परम्परा में 'गुरु' को सर्वोत्कृष्ट स्थान दिया गया । श्रमण परम्परा में गुरु के आदेश एवं अनुशासन के निर्वाह की सर्वाधिक प्राथमिकता है । नटुवा-पुत्रियों पर आसक्त मुनि आषाढभूति भी गुरु की अवज्ञा नहीं कर देते । कहते है
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‘नटणी सूं हम प्रीति वणाई । द्यो आदेश हम कछु न सुहाई । कर्म-विपाकात् पथभ्रष्ट मुनि आषाढभूति की निष्कपटता तो प्रशंसनीय
है ही; किन्तु विरक्त गुरु की भावुकता शिष्य के सर्वाधिक हित के लिए ही सर्वथा समर्पित रहने के स्वभाव की परिचायिका है।
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'गुरु सिरि धूणी कहै वछ मेरो । हा हा वचन भला नहु तेरा ।। ३५ । शिष्य - गुरु के स्वभावों का ऐसा स्तुत्य सम्बंध विद्या ज्ञान और अध्यात्म के क्षेत्र का अनूठा आदर्श है - एक ओर शिष्य की निष्कपटता, अनुशासन और दूसरी ओर शिष्यहित के लिए गुरु की आतुरता ।
जैन काव्य-परम्परा में कल्पनातीत, स्वाभाविक जीवन से अधिक ऊँचे चरित्रों की सृजना नहीं की गई। उनके पात्रों की जीवनचर्या वह वस्त्र या पट है जिसके बुनाव में यदि अधिक श्वेत धागे हैं तो कुछ श्याम धागे भी है । क्योंकि किसी भी व्यक्ति का लम्बा जीवन सदा दोषहीन या पूर्ण आदर्शमय हो ही नहीं सकता। जैन चिंतकों की दृष्टि में रात्रि का भटका हुआ यदि सुबह घर आ जाय तो भूला नहीं माना जाता । आषाढभूति मुनि कुछ काल
554 * नैन रास विभर्श