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उभयपक्षीय पूर्वानुराग की स्थिति को कवि ने बड़े सुन्दर ढंग से व्यक्त किया है। नट कन्याओं और मुनि की दृष्टि ऐसे मिली - जैसे दूध में शक्कर घुल जाती है।
'मुनिवर निजर निजर सूं मेली। दूध मांहि जानूं साकर मेली।।'
युवतियों पर आकृष्ट आषाढ़भूति गुरु धर्मरुचि के पास लौटे और उनसे गृहस्थ बन जाने की अनुमति चाही। शिष्य की संयमहीन स्थिति देखकर गुरु धर्मरुचि विह्वल हो उठे - 'संयम लेई किम छंडीजै। सील रयण कहि किम षंडीजै ।' गुरुने दु:खी हृदय से मांस-मदिरा का त्याग अवश्य रखें, ईतनी प्रतिज्ञा दे कर शिष्य को गृहवास में जाने की अनुमति दी ।।
संयम-साधना से मुक्त आषाढ़भूति की दिनचर्या नटुवा-पुत्रियों के साथ हास-विनोद और संगीत आदि में व्यतीत होने लगी।
एक दिन राजा के यहां से 'भगत' (नाट्यमहोत्सव) आयोजन का आदेश आया। तब अपने जातिगत स्वभाव के कारण जयसुन्दरी और भुवनसुन्दरी ने अधिक मदपान कर लिया । मदहोश युवतियों की कायिक और मानसिक स्थिति देखकर आषाढ़भूति को ओछी प्रीति का ज्ञान हो गया ।
'नारी आला झंखेवि मंदिर मांहि परीरी। विरुचि रह्यो मुनिराय, ओछी प्रीति लसी री' ॥४४॥
मदोन्मत्त युवतियों ने जब थोडा होश संभाला तो आषाढभूति से अपने कृत्य पर क्षमा भी चाहीं।
कीडी ऊपरि रोस, कता काहे करो री। मुग्धां नै कुण दोस, मदिरा बात मरोरी ॥४८||
मुनि आषाढ़भूति ने उन्हें धीरज तो बंधाया, किन्तु स्वयं संयमित स्थिति में ही रहे।
राजा के पास ‘भगत' के लिए जाने पर आषाढ़भूति ने राजा से ऋषभपुत्र 'भरत' का संगीतपूर्ण अभिनय दिखलाने की रुचि प्रदर्शित की तथा उससे तदनुकुल व्यवस्था करवानी चाही। राजा भरत के समान पहले तो मुनि ने आभूषण धारण किए किन्तु बाद में कथाक्रम के अनुसार आभूषण वस्त्र आदि उतारे भी; और द्वादश भावनाओं का क्रमश: स्मरण किया। 'अशुचि' और 'अनित्य' भावनाओं को विचारते हुए मुनि आषाढ़भूति भरत के वास्तविक
वाचक कनकसोम कृत आसाढभूति रास * 553