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वाचक कनकसोम कृत आसाढभूति रास: साहित्यिक और सांस्कृतिक मूल्यांकन
डॉ. गंगाराम गर्ग, पूर्व प्राचार्य, भरतपुर रासो काव्यों की सुदीर्घ परम्परा और राजस्थानी एवं गुजराती के साहित्य भंडार को अधिक सम्पन्न करने में श्वेताम्बर जैन कवियों का विशिष्ट योगदान है। इन कवियों में सत्रहवीं शताब्दी के संत कनकसोम का साहित्य उल्लेखनीय है। जीवन वृत्तः
कनकसोम खरतरगच्छीय अमरमाणिक्य जी के शिष्य थे। इनकी एक रचना 'जइतपद वेलि' में संत साधुकीर्ति की शास्त्रार्थ-विजय के आधार पर इनको अधिक श्रद्धा संत साधुकीर्ति के प्रति भी दृष्टिगत होती है, जो इनसे बडे थे। बादशाह अकबर के निमंत्रण पर संवत् १६४८ वि. में जब आचार्य जिनचंद सूरि उनसे मिलने गए; तब लाहौर के वाचक, कनकसोम जी उनके साथ गए थे । इस भेंट में अन्य साधु ‘जयसोम' महोपाध्याय, ‘वाचक रत्नविधान' पं. गुणविजय भी उपस्थित रहे थे। रचनाएं :
संत कनकसोम का रचनाकाल सं. १६२५-१६५५ के मध्य निर्धारित किया गया है। इनकी प्रथम रचना 'जइतपद वेलि' संवत् १६२५ वि. में रची गई। इस ऐतिहासिक रचना में खरतरगच्छीय संत साधुकीर्ति द्वारा तपागच्छीय साधु बुद्धिविजय के शास्त्रार्थ का विवेचन है। 'आषाढभूतिरास' की रचना संवत् १६३८ वि. को खम्भात नगर में हुई। ‘मंगल कलश' नामक दूसरी महत्त्वपूर्ण रचना संवत् १६४९ वि. में मुलतान में लिखी गई। ‘आर्द्रकुमार चुपई' कवि द्वारा मारवाड के अमरसर में सृजित हुई। उक्त चार बहु चर्चित रचनाओं के अतिरिक्त शोध विद्वानों श्री अगरचंद नाहटा एवं डॉ. हरीश द्वारा वाचक कनकसोम की कई रचनाओं ‘हरिकेश संधि* (सं. १६४० वि.)
कनकसोमजी की एक रचना 'गुणस्थानक चोपाई' है, जो गुणस्थानक : एक अध्ययन ले. केतकी शाह में प्रकाशित है ।
वाचक कनकसोम कृत आसाढभूति रास * 551