________________
अपने स्त्रीगत भावों का प्रदर्शन किया। लेकिन फिर भी वह नेमिनाथ को अपने निश्चय से विचलित न कर सकी। नेमिनाथ की माता भी वहाँ आ गयी उन्होंने भी घर चलने तथा राज्य सम्पदा का भोग करने के लिए अनुनय किया। यथा -
अहो माता सिवदेवि जो नेमि नै दे उपदेसि पुत्र सुकुमाल तुं हुं बालक
वेस।
दिन दस घर में जी थिति करौ, अहो सुखस्यौ जी भोगवै पिता को राज।
दिष्या हो लेण बेला नहिं स्वामि चौथै हो आश्रमि आतमा काज ॥३४
माता-पिता के अथक प्रयास करने के बाद बलभद्र, श्रीकृष्ण एवं परिवार के गणमान्य नेमिनाथ को समझाने आए लेकिन सभी का प्रयत्न विफल गया।
और अन्त में सावन शुक्ला ६ को वैराग्य धारण कर लिया। तत्काल स्वर्ग से इन्द्रों ने आकर भगवान् के चरणों की अर्चना की। राजुल ने भी वैराग्य लेने का निश्चय कर आर्यिका दीक्षा ले ली। तथा विविध व्रतों एवं तप में लीन रहती हुई अन्त में मरकर १६ वें स्वर्ग में इन्द्र हो गयी। नेमिनाथ ने कैवल्य प्राप्त किया और देश में अनेक वर्षों तक विहार करते हुए अहिंसा, अनेकान्त एवं अन्य सिद्धान्तों का उपदेश देकर देश में अहिंसा धर्म का प्रचार किया और अन्त में गिरनार पर्वत से ही मुक्त हुए। जैन काव्यों का मुख्य उद्देश्य होता है पाठकों को वैराग्य की ओर अग्रसर करना । प्रस्तुत नेमिश्वरदास में भी यही सफल प्रयास किया गया है।
__ सहायकाचार्य (जैनदर्शनविभाग) श्री लालबहादुरशास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ
नई दिल्ली - १६ दूरभाष - ९५६०२५०११७
पादटीप: १. हिन्दी साहित्य का आदिकाव्य पृ. ११, प्रथम संस्करण २. वामन शिवराम आप्टे, संस्कृत हिन्दी कोश, पृ. ८५६ ३. नेमीश्वररास २३
नेमीश्वररास १४
नेमीश्वररास ६० ६. नेमीश्वररास १२२
ब्रह्मरायमलकृत नेमीश्वर रास का समीक्षात्मक अध्ययन * 549