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गिरनार पर्वत पर चढ गये। यथा -
स्वामी जीव पसू सहु दीना जो छोडि चाल्यौ जी फेरि-तप नै रथ मोडि । कांधै जी सुराह लीघी पालिकी, अहो जै जै कार-भयो असमान । सुरपति विनौ जी बोले घणौ, स्वामि जाइ चढ्यौ गिरनारि गढ थानि ॥३०
कहा भी जाता है कि जहाँ जीव दया नहीं है वहाँ जप, तप, पूजा, पाठ और संयमादि सब व्यर्थ हैं। यथा -
जप तप संजम पाठ सहु, पूजा विधि ब्यौहार | जीव दया विण सहु अफल, ज्यौ दुरजन उपगार ॥३१
लेकिन जिस समय राजुल ने कुमार द्वारा वैराग्य धारण करने की वार्ता सुनी तो वह मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ी।
अहो गइ जी वचन सुणता मुरछाई, काटि जी बेलि जैसो कुमलाई । नाटिका थानक छाडिया, अहो मात पिता जब लाघी जी सार । रुदन करौ अति सिर धुणे, अहो कीना जी सीतल उपचार ॥३२
यह सब देखकर जब राजुल के माता-पिता ने उसका विवाह दूसरे कुमार के साथ करने की बात कही तो राजुल ने उसे भारतीय संस्कृति के विरुद्ध बताकर नेमिकुमार के अतिरिक्त सभी को अपने पिता और भाई के समान बताकर अपना निश्चय प्रकट किया । तथा अपनी एक सखि को साथ लेकर गिरनार पर्वत पर गयी जहाँ भगवान् नेमिनाथ मुनि दीक्षा धारण कर अपनी आत्मा में लीन हो गए थे। राजुल ने नेमिनाथ से वापिस घर चलने के लिए यथासम्भव प्रयत्न किया, अपने रूप-लावण्य की प्रशंसा की। वर्ष के बारह महीनों में होने वाले प्राकृतिक उपद्रवों की भयंकरता का प्रतिपादन किया एवं अन्य भी विभिन्न प्रकार से अनुनय-विनय की। यथा -
अहो जैसा जी बारह मास कुमार, रिति रित भोग कीजै अतिसार । आवता जन्म की को गिणे, अहो घर में जी नाज खाबाजै जी होई। पापि लांघण करि मरौ स्वामी मुवा थे लाकडी देई न कोई ॥३३
नेमिनाथ ने राजुल की व्यथा को बड़े ही ध्यानपूर्वक सुना लेकिन वे रंचमात्र भी प्रभावित नहीं हुए। उन्होंने मनुष्य जीवन के महत्त्व, संसार की असारता तथा जगत् के परिवारिक सम्बन्धों के बारे में गूढ एवं विस्तृत प्रकाश डाला तथा अपने वैराग्य लेने के दृढ निश्चय को पुन: बताया।
यह सब बातें सुनकर राजुल प्रभावित तो हुई लेकिन एक बार पुन:
548 * छैन. स. विमर्श