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के प्रमुख उल्लेखनीय कवि हैं । उस समय में इन कवियों ने हिन्दी भाषामें भक्तिरस की रचनाएँ निबद्ध कर सम्पूर्ण देश को भावात्मक एकता में पिरोने का सराहनीय एवं अभूतपूर्व कार्य करने का अथक प्रयास किया ।
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इसी समय में अनेक जैन कवि भी हुए। जो इस भक्ति रस की धारा से अछूते नहीं रह सके। उनकी रचनाएँ भी भक्तिरस से सराबोर होकर सामने आयी । उनमें से कुछ प्रमुख कवि हैं - भट्टारक शुभचन्द्र, पाण्डे राजमल्ल, भट्टारक वीरचन्द्र, सुमतिकीर्ति, ब्रह्मविद्याभूषण, उपाध्याय साधुकीर्ति, भीखमकवि, कनकसोम, वाचकमालदेव, नवरंग, कुशललाभ, हरिभूषण और सकलभूषण आदि ।
हिन्दी साहित्य के साहित्यकारों ने इस समय को हिन्दी का स्वर्णयुग भी कहा है | महाकवि ब्रह्मरायमल्ल हिन्दी के इसी स्वर्णयुग के प्रतिनिधि कवि थे| तत्कालीन समाज की भावनाओं का समादर करते हुए कवि ने प्रचलित शैली में अपने काव्य की रचना कर जन-जन तक पहुँचाने का अथक प्रयास किया ।
ब्रह्मरायमल्ल की अधिकांश कृतियाँ राससंज्ञक हैं, जिनमे अधिकतर
कथापरक हैं । यथा १. नेमीश्वररा
३. ज्येष्ठिजिनवरकथा ५. सुदर्शनरास
७. भविष्यदत्त चौपाई
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९. जम्बूस्वामी चौपाई ११. चिन्तमणि जयमाल
१३. जिनलाडू गीत
१५. परमहंस चौपाई
२. हनुमन्तकथा
४. प्रद्युम्नरास
६. श्रीपाल स
८. परमहंस चौपाई
१०. निर्दोष सप्तमी कथा
१२. पंचगुरु की जयमाल १४. नेमिनिर्वाण
उक्त सभी रचनाएँ हिन्दी की अनमोल एवं अति प्रशंसनीय कृतियाँ हैं तथा भाषा, शैली और विषय प्रतिपादन की दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण हैं तथा समाज को एक नई दिशा प्रदान करती हैं ।
उक्त सभी रचनाएँ कवि की वर्तमान में उपलब्ध कृतियाँ हैं इनके अतिरिक्त भी कवि की और कृतियाँ होने की सम्भावना की जा सकती हैं।
538 * हैन रास विभर्श