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अविवेवच्य हो जाएगा और जायसी का पद्मावत भी साहित्य-सीमा के भीतर नहीं घुस सकेगा ।"
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प्रस्तुत शोधालेख का मुख्य प्रतिपाद्य है 'नेमीश्वररास', अतः हम यहाँ पर सर्वप्रथम 'रास' को समझने का प्रयत्न करेंगे कि यह रास है क्या ? संस्कृत भाषा के अनुसार 'रास' शब्द मूलतः 'रास : ' पुल्लिङ्ग शब्द है जो रास् + घञ् प्रत्यय से निष्पन्न हुआ है, जिसके अर्थ है - होहल्ला, कोलाहल, शोरगुल, शब्द और ध्वनि इत्यादि । २
हिन्दी शब्दकोश के अनुसार रास शब्द रस के बहुवचन, ब्रह्म महारास में गोपिकाओं के बीच एक कृष्ण के अनेक रूप, स्त्रियों और पुरुषों के परस्पर हाथ बाँधकर मण्डलाकार नृत्य, कृष्ण गोपियों के हस्तबद्ध वृत्ताकार नृत्य, प्राचीन पशुपालक नृत्य में संगीत के योग से विकसित नाट्य रूप, रासलीला में परिवेष्टित चन्द्र की चन्द्रिका पर मुग्ध होकर कृष्ण- गोपिकाओं की क्रीडा, रहस्य लीला और देश भाषा के शब्द 'रास' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ माना गया है । आज रास से लोकनाट्य के एक रूप का बोध होता है, जिसमें राधा कृष्ण गोपियों की मण्डलाकार रूप में गीति और नृत्य के साथ शृंगारिक क्रीडाएँ दिखाई देती है तथा यह रासलीला के लिए भी रुढ है ।
नाट्य रूप की दृष्टि से यह रास संस्कृत के नाट्यरासक, गोष्ठी काव्य, श्रीगदित और हल्लीश उपरूपकों के अधिक निकट प्रतीत होता है, विशेषतया नाट्यरासक की और रासकी प्रकृति में बहुत साम्य है । इस दृष्टिकोण से रास का संकेत 'भास' के 'बालचरित' नाटक, 'बाण' के हर्षचरित, भट्टनारायण के 'वेणीसंहार' तथा 'भागवत' के दशम स्कन्ध - ( १९ से २३ अध्याय) के रास में मिलता है। बारहवीं शती के मन्दिरों में भी इसके स्वरूप का पता लगता है।
काव्य के रूप में भी रास, रासक और रासो प्रचलन में रहा है। जैनाचार्य जिनवल्लभ सूरि के निर्देशों, कवकसूरिकृत 'उपदेश- गच्छ पदावली' (हस्तलिखित) तथा 'खरतरगच्छपट्टावली' से ज्ञात होता है कि बारहवीं शती में रास या रासक का प्रचार था और रासक ग्रन्थों का निर्माण भी प्रारम्भ हो गया था, जो कि सैकड़ों की संख्या में उपलब्ध होते है । ये रासक - काव्यग्रन्थ अपभ्रंश और गुर्जर मिश्रित राजस्थानी भाषा में लिखे गए है । इनका
536 * मैन रास विभर्श