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ब्रह्मरायमलकृत नेमीश्वर रास का समीक्षात्मक अध्ययन डॉ. कुलदीप कुमार
प्राचीन भारतीय संस्कृति का स्वरूप मुख्य रूप से तीन भाषाओं में उपलब्ध होता है - संस्कृत, पालि और प्राकृत । संस्कृत भाषा में मुख्यतः वैदिक वाङ्मय का साहित्य, पालि में बौद्ध वाङ्मय का साहित्य और प्राकृत में जैन वाङ्मय का साहित्य। उक्त तीनों ही संस्कृतियों का मुख्य लक्ष्य रहा है - मनुष्य जीवन में सद्गुणों की प्राप्ति, मोक्ष, निर्वाण या कैवल्य की प्राप्ति । कालान्तर में जैन वाङ्मय के साहित्य की रचना संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी तथा विभिन्न प्रान्तीय भाषाओं में भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होती है । इन विभिन्न भाषाओं में जैनचार्यों ने दार्शनिक ग्रन्थों के साथ-साथ काव्य- अध्यात्म, नाटक, पुराण, ज्योतिष, आयुर्वेद, व्याकरण, कोश, अलंकार सिद्धान्त, गणित, भूगोल, कथा, नीति, आचार और राजनीति आदि ग्रन्थों की रचना कर भारतीय मेधा को पुष्पित एवं पल्लवित किया है । जैन वाङ्मय में हिन्दी कवियों द्वारा रचित साहित्य अत्यन्त विशाल एवं व्यापक है ।
हिन्दी भाषा में जैन कवियों ने जब लिखना आरम्भ किया तब उसमें लिखना पाण्डित्य से परे समझा जाता था और वे संस्कृत, प्राकृतादि भाषा के पण्डित कहलाते थे । हिन्दी में जैन कवियों ने 'रास' संज्ञक रचनाओं से काव्य निर्माण आरम्भ किया । उस समय देश में अपभ्रंश भाषा का प्रचारप्रसार था तब भी इन कवियों ने अपनी दूरदर्शिता के कारण हिन्दी में अपनी लेखनी चलाकर साहित्य की समस्त विधाओं को सम्पोषित किया तथा तत्कालीन संस्कृति तथा समाज की मनोदशा का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत किया और सैंकड़ो की संख्या में 'रास' ग्रन्थों की रचना की ।
जैन वाङ्मय के साहित्य को देखकर यह स्पष्टतया कहा जा सकता है कि जैनाचार्यों, भट्टारकों एवं जैन कवियों ने जन-जन में बौद्धिक चेतना को विकसित करने का सराहनीय कार्य किया है तथा साहित्य की प्रत्येक विधा पर अपनी लेखनी का जौहर प्रकट किया है। तथा साहित्य के प्रति उनका उत्कट प्रेम दर्पण की तरह स्पष्ट झलकता है । लेकिन यह एक बड़े
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