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सयल सजन आनंदीया, नीपनो जय-जयकार | जनम हुवो जिनवर तणो, प्रथम तीर्थंकर सार | दश दिशा हुई निरमली, सुगंध पवन झलकंत । अंवर दीसे निरमलो, जसो मुनिवर चिंत ॥ कुसुम वृष्टि हुई निरमली, गंधोदक वलि सार । दुंदभि बाजे सुरतणी, धवल मंगल सविचार ।। तिन्नि ज्ञान करि लंकऱ्या, कंचन वरण सरीर ।
रूपे मनमथ जीकीयो, प्रथम तीर्थंकर धरि ॥१२ (ख) वैराग्य-वर्णन -
'नीलांजसा तेणो खूटो आय, मरण पामी ते सुंदरीए । क्षीण मांहि जीव गयो बीजी ठामि, काले गई जम मंदिरीए । तब उपनो स्वामी वैराग्य, संसार सरीर भोग परिहरइए | जो जो एह तणो रूप सौभाग्य, सरीर सहित मटी गयो ए॥'
धिग धिग ए संसार असार, थिर न दीसे दुख मस्योए । चिह गति मांहि सुख नवि ठोर, सयल दीसे क्षण भंगुरए । सरीर चपल जीम मेघ पटल, जल बुदुडा जीम जाणीयुए।
धन यौवन उतावलो जाणि, नदी पुर जीम वानियए ॥१३ चरित्र चित्रण -
‘आदिनाथ रास' में कथा नायक आदिनाथ एवं उनके माता-पिता मरुदेवी-नाभिराय, उनके पुत्र भरत-बाहुबली इन पांच पात्रों का विशेष रूप से चरित्र-चित्रण प्रभावशाली रूप से अंकित हुआ है। यद्यपि ब्राह्मी-सुन्दरी आदि अन्य पात्रों का भी यथोचित चरित्र-चित्रण मिलता ही है। चरित्र-चित्रण के माध्यम से ही कवि ने अपने कथानक के उद्देश्य को सशक्त रूप से अभिव्यक्त करने में सफलता प्राप्त की है। चरित्र-चित्रण की कुशलता के कारण ‘आदिनाथ रास' एक चरित्र-प्रधान काव्य ही बन गया है। आदिनाथ की उभयलोक निपुणता पाठकों को अन्दर तक से प्रभावित कर देती है। कवि ने आदिनाथ के शारीरिक सौन्दर्य का भी अद्भुत वर्णन किया है। सौधर्म इन्द्र भी उनके शारीरिक सौन्दर्य को देखने के लिए सहस्र नेत्र धारण
528 * छैन. रास. विमर्श