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(ख) वात्सल्य रस -
चन्द्र कला जिवमाधीपुए, खेलइ सरस अपार । मही मण्डल परि रीषताए, जैसो मेदनि हार ॥ हलु-हलु चाले सुंदरोए, पग मूके जीम फूल । काला वयण सुहावणा, सुललित बोलइ चंग॥
(ग) रौद्र रस
तव कोप्यो बाहुबलि राज, दूत जाउ तम्हे निज राजि।
बल जोउं तम्हे स्वामि तणो, बलि वलि वखाणो तम्हो घणो ॥ (घ) वीर रस
वीर रस का स्थायी भाव ‘उत्साह' है । जो कभी युद्ध के लिए, कभी दान के लिए, कभी दया के लिए और कभी धर्म के लिए प्रकट हुआ है। 'आदिनाथ रास' के नायक में चारों प्रकार के वीर (युद्धवीर, दानवीर, दया वीर, धर्म वीर) के गुण मिल जाते हैं। अपने गृहस्थ जीवन में राजकुमार भरत बाहुबली के युद्धों में वीर रस का निरूपण मिलता है। संयम मार्ग पर अग्रसर होना और आने वाले उपसर्ग एवं परिग्रहों को बहादुरी से सहन करना भी वीरता है। प्राणिमात्र के प्रति दया-भाव है यह दयावीरता है।
राजा श्रेयांस आदिनाथ को इक्षुरस का आहारदान देते है तब वे 'दानवीर' बन जाते है । वस्तु-वर्णन -
__ वस्तु-वर्णन की दृष्टि से भी ‘आदिनाथ-रास' एक बेजोड कृति सिद्ध होती है। जन्म-वर्णन, नगर-वर्णन, सभा-वर्णन, वैराग्य-वर्णन, मोक्ष-वर्णन आदि के अनेक मनोरम दृश्य इस कृतिमें यत्र-तत्र उपलब्ध होते है। यथा - (क) जन्म-वर्णन :
मास नव हुवा गुणवंत, सात दिवस अधिका जयवंत । चैत्र मास अधारा पाख, नवमी दिन कहीए गुणमास ।। उत्तराषाढ नक्षत्र सविचार, ब्रह्म जोग कहीए गुणधार ॥ सुखे जन्म हुवो आनन्द, वाधो हरष तणा तीहां कंद ।
ब्रह्म जिनदास कृत 'आदिनाथ रास' * 527