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कर्मभूमि की व्यवस्था आरंभ होने पर जब प्रजा में बड़ा संकट खड़ा हो गया तो आदिनाथ ने ही प्रजा का समुचित मार्गदर्शन कर उसे सुखी किया तथा सभी को असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प, विद्या की शिक्षा देकर षट्कर्म की स्थापना की । कर्म के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र वर्ग की रचना की । इससे प्रसन्न होकर प्रजा ने उनकी प्रजापति, शंकर आदि नामों से उनकी पूजा की
'जे जे काम करे जैसु, ते ते नाम हुआ सार ।
सोनुं घडे सोनी हुवा, कास घडी ते कंसार ॥
षट कर्म थाप्या व्यवहार तणा ए, षट कर्म धरम वीचारतों ।
अशुभ कर्म शुभ करम जीव ए, बांधे छौडे अवार तो ॥ धरमा धरमे प्रकासीयाए, स्वामीय आदि जिणंद तो । आदि ब्रह्मातमा चामीयाए, स्वामीय परमाणंद तो ॥ प्रजालोक प्रति पालियाए, सुख दियो महंत तो । प्रजा पति तेह भणी हुवाए, संकर नाम जयवंत तो ॥"
एक दिन आदिनाथ की सभा में नीलंजना ( अप्सरा ) नृत्य कर रही थी कि उसकी आयु पूर्ण हो गई, उससे आदिनाथ को वैराग्य हो गया और उन्होंने अपने बडे पुत्र भरत को अयोध्या का राज्य सौंप कर निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनि दीक्षा धारण कर ली -
'ॐ नमः सिद्धेभ्यः' कह्यौ गुणधार, हृदय कमलि गुण धारिया सार । 'जया जात रूप' धरियो चंग, समता भाव लीयो उत्तंग ॥ 'दिगंबर' हुवा प्रथम जिनदेव, त्रिभुवन भवीयण करे जिन सेव । अनुपम रूप दीसे जयवंत, जय जयकार स्तवन करे संत ॥
निरंतर छ: माह तक आदिनाथ कायोत्सर्ग मुद्रा में ध्यानस्थ रहे । उनके पास जन्मजात शत्रु अपना वैरभाव छोडकर प्रेम से रहने लगे और वनस्पतियाँ भी स्वतः ही पुष्पित - पल्लवित हो गईं ।
तीहां वनफलियो, बहु फलें, वैरीय तणा मद गले ।
वैर छांडी सवे एक हुवए, सही ए ॥
हरण सींघ वाघ गाय ए, मौर भुजंग मौह पाए । आवइ ए प्रीति करि तिहाँ ए, अतिघणी ए सही ए ।
ब्रह्मजिनदास कृत 'आदिनाथ रास' * 525