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है। एक रात्रि में महारानी मरुदेवी सोलह शुभ स्वप्न देखती है और प्रात: नाभिराय से उनका फल पूछती है। इस पर नाभिराय प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ के जन्म लेने की सुखद बात कहते है -
नामि राजा तब वोलियाए, मधुरिम सुललित वाणि तो। फल सुणो राणी निरमलाए, सपन तणा सुजाणि तो। स्वपन फलि अति रुवडो, पुत्र होसे तुम्ह चंग। तीर्थंकर रिलीयावणो, त्रिभुवन मांहि उत्तंग॥ प्रथम जिणेसर निरमलो आदिनाथ गुणवंत । सुरनर खेचर लगे, स्वामिप अति जयवंत ॥
'आदिनाथ रास' का यह स्थल अत्यंत मर्मस्पर्शी है। इसमें नाभिराय प्रत्ये स्वप्न का पृथक-पृथक फल सुनाकर मरुदेवी के साथ हर्ष-विभोर हो उठते हैं। उसके बाद इन्द्र की आज्ञा से देवियों तीर्थंकर माता की सेवा करती है, कुबेर रत्नवृष्टि करता है, सर्वत्र आनंद छा जाता है। चैत्र कृष्णा नवमी के दिन शुभ मूहुर्त में आदिनाथ का जन्म होता है। देवता आकर बड़े ही उत्साह से जन्म कल्याणक मनाते हैं। बालक का नाम 'आदि जिनेश्वर' रखा जाता है।
आदि जिणेसर नाम दियोए, देव सजन मिली जाणि । आदि जुगादि स्वामि अवताए, तेह भणि सार्थक नाम ।। दश अतिशय स्वामि रुवडाए, जिणवर सहज सभाव। स्वेद मल थका बेगलाए, शोणित खीर समानि । सम चौरस अतिरुवडोए, आदि संस्थान वखाणि । संहनन पहिलो अति बलोए, वज्र वृषभ गुण खाणि ॥
आदिकुमार के युवा होने पर कच्छ महाकध की पुत्री सुनंदा एवं सुमंगला से उनका विवाह हुआ। बाद में भरत, बाहुबली आदि १०१ पुत्रों एवं ब्राह्मी, सुंदरी नामक दो पुत्रियों का जन्म हुआ। आदिजिनेश्वर ने ब्राह्मी को अक्षर लिपि और सुंदरी को अंक लिपि का ज्ञान दिया। भरत आदि पुत्रों को भी विविध कलाओं एवं शास्त्रों का ज्ञान दिया।
___ आदि जिनेश्वर जन्म से ही अद्भुत प्रतिमा के धनी थे। उनके पिता नाभिराय भी उनसे परामर्श करते थे। भोगभूमि की व्यवस्था समाप्त होने एवं
524 * छैन AA विमर्श