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विभक्ति के है, यह परिवर्तन ध्यानास्पद है। मध्य - मज्झे-माझि-माहि । सप्तमी विभक्ति सूचक इ, ए, हि, प्रयुक्त है। सट्टाविय, भराविय . संबंधकभूतकृदंत है।
विलेवतणीय - विलेपसंबंधी - तणके पश्चाद् संबंधसूचक ईय जुडा है। __ प्रस्तुत कृतिमें ‘तुं' सर्वनामका तू के अर्थ में प्रयोग हो, जो पूर्वकृतियो में स्पष्ट रूप से प्रयुक्त नहीं है ।२३ इस प्रकार भाषा-प्रयोग, छंदवैविध्य, गेयता, काव्यतत्त्व, धर्मतत्त्व, इतिहास आदि दृष्टिसे रेवंतगिरिरास लोकप्रिय, रसप्रद व मूल्यवान रासकृति बनती है। सन्दर्भ-ग्रन्थ-सूचि।
(१) गुजराती मध्यकालीन साहित्यनो इति खंड-१ - गु.सा.परिषद (२) जैन साहित्यनो संक्षिप्त इति. - मोहनलाल देसाई (३) गुजरातना ऐतिहासिक लेखो - खंड १-२-३ (४) आपणा कविओ - खंड-१ (५) गिरनार तीर्थोद्धार रास - १९२० मुंबई (६) गुजराती साहित्यना स्वरूपो - मं. मजमुदार - १९५४ (७) शिशुपालवध - सं. नीतिन देसाइ (८) मध्यकालीन रास-साहित्य-भारती वैद्य
(९) गुजराती साहित्य (मध्यकालीन) भाग-१ - अनंतराय रावल - मुंबई १९३४
(१०) मध्यकालना साहित्यप्रकारो - डॉ. चंद्रकान्त महेता (११) गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति - बेचरदास - मुंबई - १९४३ (१२) जैन गुर्जर कविओ - भाग-१० - मोहनलाल देसाई- मुंबई
(१३) मध्यकालीन गुजराती जैन साहित्य - संपा. जयंत कोठारी - मुंबई - १९९३
१. गुजराती साहित्यनां स्वरूपो - मं. मजमुदार - पृ. ६८ २. आ. हेमचंद्र के समय में रास या रासक का गद्य स्वरूप में रूप में प्रचलित था ।
स्वयंभू जैसे अपभ्रंश कवियों ने रासक व्याख्याबद्ध किया है। ३. सं. १२८७ के लेख में सूरि की गुर्वावलि मिलती है। (प्रा. जै. लेखसंग्रह -
लेख - ६४) आनंदसूरि व अमरसूरि को सिद्धराज ने व्याघ्रशिशुसुक्त वे
सिंहशिशुक का बिरुद दिया था। (अरि सिंह कृति सुक्त संकीर्तन) 518 * छैन रास विमर्श
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