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गहगण ए माहि जिम भाणु, पव्वयमाहि जिम मेरुगिरि ए । त्रिहु भुयणे ए तेम पहाणु, तित्थमाहि रेवंतगिरि । चविहुए संघु करे, जो आवइ उज्जितगिरि दिविसवहु ए रागुकरे, सो मुचइ चउगइगमणि । आवइ ए जे न उज्जिंत, धरधरइ धंधोलियाए आविही ए हियइ न संति निष्फलु जीविउ तासु तिणउ । रंगहि ए रमइ जो रासु, सिरिविजयसेणिसूरि निम्मविउए मिजिणु ए तूस तासु, अंबिक पूरइ मणि रली ए ॥
भाषा शैली व छंद की दृष्टि से रेवंतगिरिरासु का वैशिष्ट्य है। प्राप्त कृतियों में रेवंतगिरिरासु में प्रथम बार कडवक शब्द का प्रयोग ठवणि या भास के स्थान पर मिलता है । इससे पूर्व अपभ्रंश काव्य (स्वयंभू आदि के ) संधिकाव्य कहलाते थे और वे संधि अनेक कडवकोमें विभक्त थे । " मध्यकाल के साहित्यस्वरूप- अ - आख्यान (प्रेमानंद, १७वीं सदी मध्यभाग, भालण प्रयुक्त) में कडवे का प्रयोग हुआ है ।
कडवकमें कडी की संख्या कम-ज्यादा रहती है । गेय रचना होने से यता साधक प्रयोगवैविध्य यह रास देता है । दोहरा, रोला सोरठा आदि मात्रामेल छंदो के बंध यहाँ प्रयुक्त है । रेवंतगिरिरासु के चार कडवक में पहला २० दोहरा का, जो निश्चित रूप से गाया जाता होगा। दूसरे में कोई विशेष 'ढाल' छंद वदलने पर पलटता है । सभी कडी एकसमान नहीं है । तीसरा कडवक २२ अर्धरोळाका, चतुर्थ में हर एक अर्ध के प्रथम शब्द के बाद व प्रथम अर्ध के अंतमें गेयतापूरक ए कार से युक्त सोरठा मिलता है । इस चतुर्थ कडवकमें गेयतापूरक ए जोडा गया है, अतः स्पष्ट है कि यह रास गेय था । जैसे
गिरिगुरुयासिहरि चडे वि अंबजंबालि बंबालिउ ए । संमिणी ए अंबिकदेविदेउलु दीठु रमाउलं ए ॥ (४-१)
मध्यकालीन रास गेय थे और खेले भी जाते थे, यह सर्वप्रथम रेवंतगिरि रास दिखाता है - रंगिहि ए रमइ जो रासु, सिरि विजयसेणसूरि निम्मविउ ए ।
जैसा कि श्री के. का. शास्त्रीने कहा है "यह रास स्पष्ट रूप से ताल या हिंचके रूपमें गा सकते है । यह तालबद्ध है । विशिष्ट लय के 516 * नैन रास विभर्श