Book Title: Jain Ramayana Purvarddha
Author(s): Shuklchand Maharaj
Publisher: Bhimsen Shah

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Page 11
________________ পপও प्राकथन :-- : (१) इस अनादि संसार मे सर्वज्ञ देव ने काल के दो विभाग किये है | एक का नाम अपसर्पति काल और दूसरे का नाम उत्सर्परिण काल | अपसर्परिण काल के छः विभाग किये है। जिनको छः आरे भी कहते है । प्रथम आरा चार क्रोडाक्रोड सागरोपम का होता है । इस मे जो मनुष्य होते है वे अकर्म भूमिज युगलिये कहलाते है । दश प्रकार के कल्प वृक्षा से ही जिन्हो की इच्छाये पूर्ण होती है । धर्म नीति राजनीति व्यवहारिक कार्य कुछ नहीं होते । भद्र शान्त परम सुख भोगने वाले होते हैं, इस लिये इसका नाम सुखमा सुखमा क 1 २ दसरा सुखमा यह तीन क्रोडाक्रोड सागर का होता है । इसमे भी उपरोक्त सब बाते होती है । इतना विशेष है कि अनन्ते वरुण गंधरस स्पर्श को न्यूनता के कारण सुखमा कहलाता है। ३ तीसरा आरा सुषमा दुखमा कहलाता है, यह दो क्रोडाक्रोड सागरोपम का होता है । इसके पहिले दा भागो मे प्रायः दूसरे आरे के समान स्थिति रहती है । और तीसरे मे जब चौरासी लाख पूर्व से अधिक समय शेष रह जाता है उस समय पढ़ार्थों की कमी होने के कारण मनुष्यो मे झगड़ा पैदा हो जाता है । झगड़ा मिटाने के लिये उन में से पांच मनुष्य नियत होते है और 'है' ऐसा दण्ड स्थापन करते है । कुछ समय बीत जाने के बाद और पांच मनुष्य नियत होते है और 'मा' ऐसा दंड स्थापन करते है | कुछ समय बाद पांच मनुष्य और नियत होते है

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