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(४) ऋजुसूत्राभास -- जैसे ताथागत दर्शन जो द्रव्यकी सत्ताका सर्वथा निषेध करता है ।
(५) शब्दाभास - यह उस समय होता है, जब हम कालके भूत, वर्तमान और भविष्यभेदों को मानते हैं, परन्तु तीनों कालोंमें किसी शब्दका एक ही अर्थ करते चले जाते हैं । जैसे यदि हम अब शब्द 'ऋतु' ( यज्ञ ) का प्रयोग शक्तिके अर्थमें जो एक सहस्र वर्ष पहले किया जाता था, करें ।
(६) समभिरूढ़ाभास -- यह तब होता है जब हम पर्यायवाचक शब्द जैसे इन्द्र, शक्र, पुरेन्द्र इत्यादिका अर्थ एक दूसरे से सर्वथा भिन्न करें ।
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(७) एवंभूताभास -- उस समय होता है जब हम किसी वस्तुको केवल इस लिए अस्वीकार करते हैं कि उसमें तत्क्षण वे गुण नहीं पाये जाते जो उसके नाम में विद्यमान हैं। जैसे राम मनुष्य ( मनन करने वाला) नहीं है । क्योंकि इस समय मनन नहीं कर रहा I
है 1 १०१. आत्मा, जो कि कर्ता और भोगता है और चेतनस्वरूप है, अपने शरीर के आकारका होता है । प्रत्येक व्यक्तिमें एक पृथक् आत्मा होता है जो कर्मके बंधन से छुटकारा पानेसे मुक्त हो जाता
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१०२. अंतिम परिच्छेद में वाद ( शास्त्रार्थ ) की रीतिका वर्णन है । किसी प्रतिज्ञाको सिद्ध करने के लिए उस प्रतिज्ञाके विरुद्ध कथनका खंडन करके विधि और निषेध करना वाद है । वादी अर्थात् वह पुरुष जिसका वादमें पूर्व पक्ष होता है या तो विजय पानेका या सत्य की खोजका इच्छुक होता है। सत्यकी खोज या तो अपने लिए होती हैं, जैसे शिष्य खोज करता है, या परके लिए जैसे गुरु खोज
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