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विषयक ज्ञान बढ़ेगा और हम जान सकेंगे कि वेदोंके बनानेवाले कौन थे। वेद अपौरुषेय नहीं हैं-ईश्वरप्रणीत नहीं हैं। वे प्राचीन कालके ऋषियोंके बनाये हुए मंत्रों छन्दों या भजनोंके संग्रह हैं। कौन मंत्र किस ऋषिका बनाया हुआ है, यह उसी मंत्रसे मालूम हो जाता है। इस पुस्तकमें ऋग्वेदके जितने भागका भाष्य स्वामी दयानन्दजीका किया हुआ है, उतने भागके ऋषियोंके नाम और उनके मंत्र बतलाये गये हैं। इसकी भूमिका यदि कुछ विस्तृत होती और इसमें वेदको अपौरुषेय क्यों मानते हैं, इसके लिए क्या हेतु दिये जाते हैं, इन हेतुओंमें क्या क्या दोष आते हैं, वर्तमान समयके विद्वानोंकी वेदोंके विषयमें क्या राय है, जुदा जुदा भाष्यकार क्या कहते हैं, मंत्रोंमें जो प्रार्थनायें की गई हैं, उनसे पौरुषेयत्व सिद्ध होता है या नहीं; आदि बातोंका स्पष्टीकरण कर दिया जाता, तो पुस्तक और भी उपयोगी हो जाती। ११२ पेजकी पुस्तकमें १४ पेजका शुद्धिपत्र बहुत बुरा मालूम होता है। संशोधनमें इतना प्रमाद न होना चाहिए था।
२६ शाणी-सुलसा-लेखक, मुनिराज, श्रीविद्याविजयजी । प्रकाशक, शाह हर्षचन्द्र भूराभाई, जैनशासन आफिस भावनगर । महावीर भगवानके समयमें श्रेणिकराजाका 'नाग' नामक धर्मात्मा सारथी था। इसकी सुलसा नामकी पतिव्रता और प्रगाढश्रद्धावाली पत्नी थी। सुलसाके कोई पुत्र न था। एक बार उसकी धर्मश्रद्धाकी स्वर्गलोकमें प्रशंसा हुई। उसे सुनकर एक देव उसके दर्शनके लिए मर्त्यलोकमें आया। उसने सुलसासे वर माँगनेको कहा । सुलसाने पुत्रप्राप्तिकी इच्छा प्रकट की । देव ३२ गोलियाँ देकर चला गया
और कह गया कि एक एक गोलीके खानेसे एक एक प्रताप'शाली पुत्र होगा। सुलसा एक ही धीर वीर गुणी पुत्र चाहती थी,
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