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जैनहितैषी।
साहित्य, इतिहास, समाज और धर्मसम्बन्धी
लेखोंसे विभूषित
मासिकपत्र। सम्पादक और प्रकाशक-नाथूराम प्रेमी, हिराबाग, बम्बई नं. ४. दशवाँ चैत्र, वैशाख
७ वाँ अंक। भाग। श्रीवीर नि० संवत् २४४०
पृष्ठ
विषयसूची। १ बुढ़ापेकी बातें .... १२ जैनलाजिक ३ आवरण ४ संसार और मोक्ष ५ श्रीकुन्दकुन्दाचार्य ६ ग्रन्थपरीक्षा (जिनसेन त्रिवर्णाचार ) ७ विविध प्रसंग ... ८ पुस्तक-परिचय ९ मीठी मीठी चुटकियाँ १० विविधसमाचार
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Doलन्।
पत्रव्यवहार करनेका पता
श्रीजैनग्रन्थरत्नाकर कार्यालय,
हीराबाग, पो. गिरगांव-बम्बई। ஒப்சோஹன் ஒருவன் இருந்த Printed by G. N. Kulkarni at his Karnatak Press,
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छप गया !
छप गया !!
छप गया !!!
जैनियों की इच्छा पूर्ण ! अपूर्व आविष्कार !! न भूतो न भविष्यति !!!
जैनार्णव
अर्थात्
१) रुपया में १०० जैन पुस्तकें ।
हमारी बहुत दिनोंसे यह इच्छा थी कि एक ऐसा पुस्तकोंका संग्रह छपाया जाय जो कि यात्रा व परदेशमें एक ही पुस्तक पास रखनेसे सब मतलब निकल जाया करे। आज हम अपने भाइयोंको खुशीके साथ सुनाते हैं कि उक्त पुस्तक “जैनार्णव " छपकर तैयार हो गया । हमने सर्व भाइयोंके लाभार्थ इन १०० पुस्तकों को इकट्ठा कर छपाया है । तिसपर भी मूल्य सिर्फ १) रु० रक्खा है ये सब पुस्तकें यदि फुटकर खरीदी जावें तो करीब ३) रु० के होंगी। परदेश में यही एक पुस्तक पास रखना काफी होगा । ये देशी सफेद चिकने पुष्ट कागज पर सुन्दर टाईपमें छपी है। और सबको मिलाकर ऊपरसे मजबूत और सुन्दर टैटिल चढ़ाया है। जल्दी कीजिये क्योंकि हमारे पास अब सिर्फ आधी ही पुस्तकें बाकी रह गई हैं, नहीं, तो बिक जानेपर पछताओगे। कीमत फी पुस्तक १) रुपया । डांक खर्च ) दो आना ।
मंगानेका पताः चन्द्ररुहेन जैन वैद्य-हटाना।
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जैनहितैषी।
नीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् ।
जीयात्सर्वज्ञनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥ १०वाँ भाग] चैत्र-वै०,श्री०वी०नि०सं० २४४०।[६,७ वाँ अं०
विनोद-विवेक-लहरी।
बुढ़ापेकी बातें। सम्पादक महाशय ! भंग नहीं पहुँची, इधर कई दिन बड़े कष्टसे बीते । आजका यह लेख आँखें फाड़ फाड़ कर लिखा है। अपनी बुद्धिसे लिखा है; भंगभवानीकी कृपासे नहीं। आज एक अपने मनक दुःखकी बात लिखता हूँ। _ मैं बुढ़ापेकी बातें लियूँगा । लिवू-लिखू कर रहा हूँ, लेकिन लिख नहीं पाता । हो सकता है कि ये दारुण या करुण बातें मुझे बहुत ही प्यारी लगती हों, क्योंकि अपने सुखदुखकी बातें सबको. अच्छी मालूम पड़ती हैं; किन्तु यदि मैं इन बातोंको लिखूगा तो दूसरा कोई क्यों पढ़ेगा ? जवान लोग ही प्रायः लिखते पढ़ते हैं, बूढे लोग नहीं । जान पड़ता है, मेरी इन बुढ़ापेकी बातोंको पढ़नेवाला एक भी न निकलेगा। ___इसीसे मैं ठीक बुढापेकी बातें नहीं लियूँगा । वैतरणी ( यमलोककी एक भयानक नदी ) के किनारे लगे हुए अन्तिम जीवनसोपान
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पर अभी मैंने पैर नहीं रक्खा । कमसे कम मुझे यह पूर्ण विश्वास है कि वह दिन अभी दूर है । किन्तु जवानी पर भी अब मेरा कुछ दावा नहीं है, मियादी पट्टेकी मियाद पूरी हो गई। यद्यपि मियाद पूरी हो गई है, लेकिन बकाया वसूल करना बाकी है। उसके लिये अभी कुछ झगड़ा बना हुआ है। अभी मैं जवानीसे पूरी तौर पर फारखती नहीं ले सका । इसके सिवा महाजनका भी कुछ बाकी है; अकालके दिनोंमें बहुत कर्जा लेकर खाया है। अब उस ऋणको चुका सकनेकी न आशा है और न शक्ति ही है। उस पर, पार पहुँचानेवालेको उतराई देनेके लिये कुछ जमा करनेकी जरूरत है। मैं अगर अपने इस दुःखचिन्तापूर्ण समयकी दो चार बातें कहूँ, तो क्या तुम जवानीका सुख छोड़कर एक बार सुनोगे ?
पहले असल बातका निर्णय हो जाना चाहिये । अच्छा, क्या मैं बूढा हूँ ? मैंने यह प्रश्न केवल अपने ही लिये नहीं उठाया । मैं, बूढा हूँ या जवान हूँ, दोनोंमेंसे एक बात स्वीकार करनेके लिये तैयार हूँ। किन्तु जिसकी अवस्था ऐसी ही खींचतान की है, जिसकी जवानीका सूर्य ढल चुका है, ऐसे हर एक आदमीसे मैं यही कहता हूँ कि वि
चार कर देखिये, क्या आप बूढ़े हैं ? , आप, या तो, बाल भौंरेके ऐसे काले धुंघराले–दाँत मोतीकी लंडीको भी लजानेवाले, और नींद तिबारा ब्याहकर लाई हुई जोरूके जगाने पर ( भी ) न खुलनेवाली होनेपर भी, बूढ़े हैं। या, बाल गंगाजमुनी, दांतोंकी लड़ी बीच बीचके एक दो दानोंसे शून्य, और नींद आँखोंके लिये बिडम्बना मात्र होने पर भी, जवान हैं । आप कहेंगे, इसके क्या माने ? मैं कहता हूँ, इसके माने यही हैं कि बहुत लोग ऐसे हैं जो ३०-३५ वर्ष की अवस्थामें ही अपनेको बूढ़ा मान लेते
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हैं और बहुत ऐसे हैं जो ४०-४५ वर्षके होने पर भी अपनेको जवान समझते हैं। जो तीस पैंतीस वर्षकी अवस्थामें बूढा बनना चाहता है वह या तो बूढा बनकर अपनी विज्ञता प्रकट करना चाहता है और या चिररोगी अथवा किसी बड़े दुःखसे दबा हुआ है। ऐसे ही जो ४०-४५ वर्षकी अवस्थामें अपनेको जवान बतलाना चाहता है उसको या तो यमराजका भारी भय है और या उसने तिबारा किसी षोडशीसे व्याह किया है। -- किन्तु, जीवनकी इस आधी मंजिलपर पहुँचकर चश्मा हाथमें ले, रूमालसे मत्थेका पसीना पोंछते पोंछते ठीक ठीक बतलाना कठिन है कि "मैं बूढ़ा हुआ या नहीं।" शायद हो गया । अथवा अभी नहीं हुआ। मन कहता है कि आँखोंसे भले ही साफ़ न देख पडता हो, बाल भले ही एक आध पक गये हों, लेकिन अभी बूढ़ा नहीं हुआ । क्यों ? कुछ भी तो पुराना नहीं हुआ । यह पुराना-बहुत पुराना जगत् तो आज भी नवीन ही है ! प्यारी कोयलका कुहूकुहू शब्द पुराना नहीं हुआ, गंगाकी ये सुन्दर चंचल चमकीली लहरें पुरानी नहीं हुई, प्रभात कालकी शीतल मन्द सुगन्ध हवा-बकुल कामिनी चम्पा चमेली जूहीकी सुगंध-वृक्षोंकी श्यामल शोभा-चन्द्रमाकी विमल चाँदनीकुछ भी पुराना नहीं हुआ। सब वैसा ही उज्ज्वल, कोमल, सुन्दर है। केवल मैं ही पुराना होगया ? मैं इस बातको नहीं मानता । पृथ्वी पर तो इस समय भी वैसे ही हँसीका फुहारा छूट रहा है । केवल मेरे ही हँसनेके दिन चले गए ? पृथ्वीपर उत्साह, क्रीडाकेलि, रंगतमाशा आज भी वैसे ही भरा पड़ा है। केवल मेरे ही लिये नहीं है ? जगत् प्रकाशपूर्ण है। केवल मेरे. ही लिये अन्धकारमयी अमाकी निशा आगई ? सालोमन कम्पनीकी दुकानपर वज्रपात हो, मैं यह चश्मा तोड़ डालूंगा । मैं बूढा नहीं हुआ।
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मगर कठिनता तो यह है कि मैं मानूं या न मानूं, लेकिन बुढ़ापा नहीं मानता। वह चला ही आता है। मैं लाख दूर भाD-पर वह पीछानहीं छोड़नेका। धीरे धीरे पल पल आयु क्षीण होती जाती है । जवानीवाला किनारा दूर होता जा रहा है। मैं लाख कहूँ कि बूढ़ा नहीं हुआ, लेकिन 'मैं बूढ़ा हो चला'-इसका अनुभव मुझे हर घड़ी होता जाता है। लोग हँसते हैं, मैं केवल उनका मन रखनेके लिये हँसीकी नकल कर देता हूँ। लोग गाते बजाते हैं, मैं केवल यह दिखानेके लिये कि मैं अभीतक बूढ़ा नहीं हुआ-मुझमें जवानीका उल्लास वैसा ही है, उनकी मण्डलीमें शामिल होता हूँ। लेकिन सच पूछो तो हँसने बोलने या गाने बजानेके लिये हृदय नहीं हुलसता। मेरे लेखे उत्साह है ही नहीं। आशा, मेरी समझमें अपने आत्माको धोखा देना है। कहाँ, मुझमें तो उत्साह या आशा-भरोसा कुछ भी नहीं है। जो है नहीं, उसे खोजनेकी भी कोई ज़रूरत नहीं।
खोजनेसे क्या मिलेगा ? जो फूलोंकी माला इस जीवनवाटिकाको सुगंधित और सुशोभित करती थी, उसके सब फूल एक एक करके झड़ गए। जो सदा प्रफुल्लित मुखकमल मुझे बहुत प्यारे लगते थे, उनमें बहुतसे अदृश्य हो चुके, और बहुतसे अब भी घाममें मुरझाए हुए तीसरे पहरके फूलकी तरह देख पड़ते हैं; उनमें वह रस नहीं है। इस टूटेफूटे भवनमें, इस निरानन्द बंद नाट्यशालामें, इस उजड़ी हुई महफिलमें वह उज्ज्वल दीपमाला कहाँ है ? एक एक करके सब प्रकाश बुझ गए। केवल मुख ही नहीं, वह सरल स्नेहपूर्ण-विश्वासमें दृढ़सौहार्दमें स्थिर-अपराध करनेपर भी प्रसन्न बन्धु-हृदय कहाँ है ? नहीं है। किसके दोषसे नहीं है ? इसमें मेरा दोष नहीं, बन्धुओंका भी दोष नहीं, दोष है अवस्थाका अथवा यमराजका।
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तो इसमें हानि क्या है ? अकेला आया था, अकेला ही जाऊँगा। इसकी चिन्ता क्या है ? इस असंख्यजीवपरिपूर्ण संसारसे मेरी नहीं बनी, अच्छा, बिदा । पृथ्वी, तू अपने नियमित मार्ग (कक्षा ) में धूमती रह, मैं भी अपने मनकी जगह जाता हूँ। तेरा मेरा नाता छूटा, तो इससे तेरी हानि क्या है ? और मेरी ही क्या हानि है ? तू अनन्त काल तक यों ही शून्य-पथमें घूमा करेगी। और मैं, मैं भी कुछ ही दिनोंका मेहमान हूँ-फिर, जिसके पास परम शान्ति मिलती है, सब ज्वालाएँ मिट जाती हैं, उसीके पास, तुझे चक्करमें छोड़ कर चल दूंगा। _अच्छा, तो इससे यह निश्चय हुआ कि एक तरहसे मैं बूढ़ा हो चला। अब मुझे क्या करना चाहिए ? किसी नासमझने लिख दिया है कि पचासके बाद वनमें चले जाना चाहिये-'पञ्चाशोज़ वनं व्रजेत्'। वन और कहाँ है ? मेरे लिये तो बस्ती ही वन है । आप सच मानियेगा- इस अवस्थामें सब भोगविलासकी सामग्रियोंसे परिपूर्ण बड़े बड़े महलोंकी शोभा और आदमियोंकी चहलपहलसे नाजवानोंको खुश करनेवाली नगरी ही- जंगल है । हे नवयुवक पाठकगण, तुम्हारे हृदय
और मेरे हृदयसे बिल्कुल मेल नहीं है। खास कर तुम्हारा ही हृदय मेरे हृदयसे नहीं मिलता । ईश्वर न करे कोई आपत्ति आपड़े तो उस समय शायद तुममें से कोई पूछने भी आवे कि "ए बुड्ढे, तूने बहुत देखा सुना है। बता, इस विपत्तिमें मैं क्या करूँ ?" लेकिन अमन
चैनके समय कोई नहीं कहेगा कि " ए बूढ़े, आज हमारे खुशीका दिन है, आ, तू भी आनन्द मना।" बल्कि ऐसे जल्से तमाशेमें इस बातकी कोशिश की जायगी कि बूढ़े खूसटको खबर न होने पावे । तो बताओ, जंगलमें बाकी क्या है ? । ... हे प्रौढ़ पाठकगण ! जहाँ तुम पहले स्नेहकी प्रत्याशा करते थे वहीं तुम इस समय भय या भक्तिके पात्र हो । जो पुत्र, तुम्हारी जवा
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नीके समय, अपने लड़कपनमें, तुम्हारे पास पलँगपर पड़ा हुआ, सोते सोते छोटे छोटे हाथ फैलाकर तुमको खोजने लग जाता था, वह इस समय तुमसे मिलता भी नहीं, और लोगोंके द्वारा खबर लेता है कि पिताजी कैसे हैं ? जिस पराए लड़केकी सुन्दरतापर मुग्ध होकर तुमने उसको गोदमें लेकर आदर किया था, मुख चूमा था, वही आज जवान है। वह इस समय या तो महापापी है-अपने कुकर्मोंसे पृथ्वीका भार बढ़ा रहा है-पापके सागरमें आकण्ठ निमग्न है, अथवा तुम्हारा ही शत्रु बन बैठा है। तुम क्या करते हो? केवल रोकर कह सकते हो कि इसे मैंने अपनी गोदमें खिलाया है । तुमने जिसे गोदमें बिठाकर 'क-ख' सिखलाया है वही इस समय लब्धप्रतिष्ठ लेखक और पण्डित है,
और तुम्हींको मूर्ख कहकर मन-ही-मन हँसता है। जिसको किसी समय तुम कुछ न समझते थे वही इस समय तुमको कुछ नहीं समझता। तो बताओ, अब जंगलमें बाकी क्या है ? ___ भीतरी बातें छोड़कर बाहर देखिये, वहाँ भी ऐसा ही देख पड़ेगा। जहाँ तुमने अपने हाथसे फूलबाग लगाया था, चुन-चुन कर गुलाब बेला, चमेली, जूही आदिके पेड़ लगाए थे, घड़ा लेकर अपने हाथों पानी सींचा था वहीं देखोगे कि चने मटरकी खेती हो रही है। कल्लू किसान बैलोंको हाँकता हुआ मजेंमे गागाकर हल चला रहा हैउस हलकी नोक मानो तुम्हारे हृदयमें घुसी जाती है। जो मकान तुमने जवानीमें तरह तरह की अभिलाषाएँ करके बड़े यत्नसे बैठकर बनवाया था, जिसमें पलँग बिछा कर, उस पर अपनी धर्मपत्नीके साथ नयनसे नयन और अधरसे अधर मिलाकर, इस जीवनमें कभी न मिटनेवाले प्रेमकी बातें पहलेपहल की थीं, देखोगें, उसी घरकी ईंटें किसी रईसके अस्तबलकी सुर्सी तोड़नेके लिये गधोंपर लदी चली
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जा रही हैं । उस तुम्हारे यौवन - लीला - निकेतन पलंगकी 'पट्टी' और 'पाए' चूल्हे में जलाए जा रहे हैं। तो बताओ, अब जंगलमें क्या बाकी रहा ?
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सबसे बढ़कर जलनकी बात यह है कि तुमने या मैंने उस जवानीके समय जिसे सुन्दर परमसुन्दर देखा था वही अब बुरा ( कुरूप) है। मेरे प्यारे मित्र बाबू आनन्दकन्द बड़े ठाटके साथ जब जवानी में मस्त हो रूपके घमंडमें ऐंठे फिरते थे तब ( उन्हीं के कथनानुसार ) न जाने कितनी रसिक रमणियाँ गंगातट पर उन्हें देखकर शिव पर जल चढ़ाते समय. नमः शिवाय " की जगह आनन्दकन्दाय नमः कह बैठती थीं । इस समय उन्हीं आनन्दकन्दका हाल क्या है ? - जानते हो ? वह रूपका बाजार लुट गया है, वे बड़ी बड़ी आँखें बैठ गई हैं, बाल पंक गए हैं, मुँह में दाँत एक भी नहीं रहा, खाल लटक आई है, लठिया टेककर सिर हिलाते -- मानो अपने किये पिछले कमों पर पछताते चले आते हैं । आनन्दकन्दजी जवानीमें एक बोतल बरांडी और तीन मुर्गियों का 'जलपान' करते थे, लेकिन अब वे ही लंबा तिलक लगाए, रामनामी चादर ओढे, उपदेश देते घूमते हैं । उनके खानेके 1 समय अगर कोई मद्यमांसका नाम भी ले लेता है तो वे परोसी हुई थाली छोड़कर उठ खड़े होते हैं और गालियों की 'फुलझड़ी' बन जाते हैं । तो बताओ, अब जंगलमें क्या बाकी है ?
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बतसियाकी मा हीराको देखो । जब वह मेरे फूलबाग में छिपकर फूल चुराने आती थी तब जान पड़ता था कि मानो नन्दनवन से चलतीफिरती फूलीफली कल्पलता लाकर छोड़ दी गई है। उसकी अलकोंके साथ हवा खेला करती थी, उसके आँचलको पकड़कर गुलाबका पेड़ छेड़छाड़ किया करता था । उसी हीराको आज देखो — बकझक
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करती हुई चावल फटक रही है । कपडे मैले हैं, बीच बीचमें टूटे हुए दाँतोंने चेहरेको विकट बना रक्खा है, शरीर दुबला और काला पड़ गया है, हड्डियाँ निकल आई हैं और झुर्रियाँ पड गई हैं ! यही वह रसरंगतरंगवती युवती हीरा है ! तुम्हीं बताओ, अब जंगलमें क्या बाकी है ? ___ तो यह बात निश्चित है कि मैं वनको न जाऊँगा ! क्योंकि मेरे लिये घर ही वन हो रहा है । अच्छा तो फिर क्या करूँगा ? महाकवि कालिदासने सर्वगुणसम्पन्न रघुवंशियों के लिये बुढापेमें मुनिवृत्तिको व्यवस्था की है । वे लिग्वते हैं
शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयैषिणाम् ।
वार्द्धक्ये मुनिवृत्तीनां योगेनान्ते तनुन्यजाम् ॥ रघुवंशी लोग बचपनमें विद्याभ्यास, जवानीमें विषयभोग, बुढापेमें मुनिवृत्ति और चौथेपनमें योगसाधना द्वारा शरीर त्याग करते थे। मैं निश्चित रूपसे कह सकता हूँ कि कालिदासने ५० वर्षको अवस्था होनेके पहले ही रघुवंश लिखा है । यह प्रमाणित करनेके लिये मैं इन दोनों ग्रन्थोंसे दो श्लोक उद्धृत करूँगा। पहले रघुवंशम अजके बिलापमें आप लिखते हैं
इदमुच्छसितालकं मुखं तव विश्रान्त कथं दुनोति माम्। - निशि सुप्तमिवैकपंकजं विरताभ्यन्तरषट्पदस्वनम् ॥ अर्थात् हे इन्दुमती, यह तुम्हारा मुख, जिमकी अलके हवासे हिल रही हैं-किन्तु जिसमें से कोई बात नहीं निकलती. मुझे बहुत ही व्यथित कर रहा है । यह वैसा ही जान पडता है जैसे एक कमलका फूल रातको मुकुलित होगया हो और उसके भीतर भौंरे गुंजन कर रहे हों। यह जवानीका रोना है।
इसके बाद कुमारसम्भवमें, रतिविलापमें, वे ही कालिदास लिखते हैं:
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३२९ गत एव न ते निवर्तते स सखा दीप इवानिलाहतः।
अहमस्य दशेव पश्य मामविषह्यव्यसनेन धूमिताम् ॥ रति कहती है--वसन्त, देखो तुम्हारा सखा (कामदेव ) हवाके मारे दीपककी तरह चला ही गया, अब नहीं लौटनेका । मैं, दीपककी बुझनेके पीछेकी दशा ऐसी असह्य कष्टरूप धुएँसे मलिन हो रही (या सुलग रही ) हूँ। यह बुढापेका विलाप है।
अस्तु, मेरे कहनेका मतलब यह है कि कालिदास अगर ( रघुवंश लिखते समय ) बुढ़ापेके गौरवपूर्ण कर्तव्यको समझते तो कभी बूढोंके लिये मुनिवृत्तिकी व्यवस्था न करते। बिस्मार्क मोल्ट्के और फ्रेडरिक विलियम बूढ़े थे, अगर वे मुनिवृत्ति ग्रहण कर लेते तो इस जर्मननेशनलिटी (Nationality) की कल्पना कौन करता ? टियर-बूढ़े टियर अगर मुनिवृत्ति ग्रहण कर लेते तो फ्रान्सकी स्वाधीनता और साधारण तन्त्रकी स्थापना कहाँसे होती ? ग्लाडस्टन और डिटेली बूढ़े थे, अगर वे मुनिवृत्ति ग्रहण करते तो पार्लियामेंटका रिफार्म (सुधार) और आयरिश चर्चका डिसेस्टाब्लिशमेंट (disestablishment) कैसे होता ?
मेरी समझमें बुढ़ापा ही वास्तवमें काम करनेका समय है । मैं आँत और दाँतसे ही चौथेपनमें पहुँचे हुए बूढेकी बात नहीं कहता-उसका तो दुबारा लड़कपन आगया समझना चाहिये। जो लोग जवान भी नहीं रहे, मगर बूढ़े भी नहीं हुए, उन्हीं प्रौढ पुरुषोंकी बात कह रहा हूँ। जवानी काम करनेकी अवस्था है सही, किन्तु उस समय पूर्ण और पक्का अनुभव न होनेसे बड़े और महत्त्वके काम अच्छी तरह नहीं किये जासकते । उस समय एक तो बुद्धि कच्ची रहती है, दूसरे राग द्वेष और भोगवासनाकी मात्रा अधिक होती है। एक दो अलौ. किक शक्तिशाली महापुरुषोंको छोड़कर, हर एक आदमी जवानीमें
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विशेष महत्त्वके काम नहीं कर सकता । जवानी ढलते समय मनुष्य अनुभवी, बहुदर्शी, परिपक्कबुद्धि, लब्धप्रतिष्ठ और भोगवासनाहीन हो जाता है, इस कारण वही उसके काम करनेका समय होता है । इसी लिये मेरी सलाह है कि अपनेको बूढा समझ सब कामकाज छोड़ मुनिवृत्ति ग्रहण करना कदापि बुद्धिमानी नहीं ।।
आप लोग शायद कहेंगे कि तुम्हारे कहनेकी कोई जरूरत नहीं, शारीरिक शक्तिके रहते कोई भी कामकाज नहीं छोडनेक! ! माताका. दूध पीनेसे लेकर अन्तिम विल ( वसीयतनामा ) लिखने तक सत्र लोग कामकाजकी चिन्तामें लगे रहते हैं । आपका यह कहना सच है, लेकिन मैं ऐसे कामकाजमें बूढोंको लगाना नहीं चाहता । जवानीमें जो कुछ किया जाता है सो अपने लिये । जवानी ढलने पर जो कुछ करना चाहिये वह पराये लिये । यही मेरी राय है । यह कभी न सोचना कि अभीतक मैं अपना काम ही पूरा नहीं कर सका, पराया काम क्या करूँ ? भाई, अपना काम तो अगर लाख वर्षकी आयु होती, तो भी पूर। न होता । मनुष्यकी स्वार्थपरता असीम है, उसका अन्त नहीं । इसीसे कहता हूँ कि बुढ़ापेमें, अर्थात् प्रौढावस्थामें अपना काम समाप्त समझकर पराये काम(जाति, समाज, देश और धर्मकी भलाई और उन्नति में मन लगाओ। यही यथार्थ मुनिवृत्ति है । इस समय जंगलमें जाकर पंचाग्नि तापने, जाडा गर्मी वर्षाका वेग शरीर पर सहने या निराहार रह कर शरीर नष्ट करनेकी जरूरत नहीं है।
आप अगर कहें कि बुढापेमें भी जो अपने लिये या पराये लिये काम करेंगे तो ईश्वरका भजन कब करेंगे : परकाल कब बनावेंगे ! तो मैं कहता हूँ कि केवल बुढ़ापेमें क्यों; लड़कपनसे ही ईश्वरको हृदयमें स्थापित कर भजो-अपना परलोक बनाओ। इसके लिये
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३३१ किसी खास अवस्थाकी आवश्यकता नहीं है। जो काम सब कामोंके ऊपर है उसे बुढ़ापेके लिये उठा रखनेकी क्या जरूरत है ? लड़कपनमें, असली जवानीमें, भरी जवानीमें, बुढ़ापेमें, सब समय ईश्वरका ध्यान धरो, भक्तिभावके साथ उसका आश्रय ग्रहण करो। इसके लिये और कामोंके रोकनेकी जरूरत नहीं है। परोपकार देश-समाज-जाति और धर्मकी भलाई उसी ईश्वरकी प्रसन्नताके लिये करो। याद रहे, ईश्वरभक्तिके साथ, ईश्वरविश्वासके साथ जिस कामको करोगे वही सुसम्पन्न होगा, मंगलदायक होगा। उससे तुम्हारा यश बढ़ेगा, नाम होगा और पुण्य होगा। __ मुझे जान पड़ता है कि बहुतसे पाठकोंको मेरी ये बातें अच्छी नहीं लगती। वे मन-ही-मन कहते होंगे कि अभी तो हीराकी बातचीत हो रही थी, बीचमें यह ईश्वर और परोपकारका पचड़ा क्यों लगा दिया ? अभी तो बुढ़ापेकी ढेंकीमें मैं 'वंगदर्शन के लिये धान कूट रहा था, बीचमें यह ईश्वरका गीत क्यों गाने लगा ? मैं उन पाठकोंसे इसके लिये क्षमा माँगता हूँ। किन्तु, मेरी समझमें, हरएक काममें कुछ कुछ ईश्वरके गीत गाना अच्छा है। - अच्छा हो या बुरा, बूढेके लिये और कोई उपाय नहीं है। तुम्हारी हीरा चंपा जूही बेलाका झुंड अब मेरी तरफ देखता भी नहीं, मेरी छाँह छूना भी उसे नापसन्द है। तुम्हारे मिल, कोम्ट, स्पेन्सर, फुअर, बर्क मेरा मनोरंजन नहीं कर सकते । तुम्हारे दर्शनशास्त्र-तुम्हारा विज्ञान सब असार है-अंधेका शिकार है। इस वर्षाके दुर्दिनमें, आज कालरात्रिके इस अन्तिम कुलग्नमें, इस नक्षत्रहीन घोरघटामण्डित अमावास्याकी आधी रातमें, उस ईश्वर, उस अगतिके गति, दयासिन्धु, अकारण बन्धु ईश्वरके सिवा और कौन मेरी रक्षा करेगा ? इस संसार
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नदीकी तपी हुई बालूमें, इस वेगसे बहनेवाली वैतरणीके आवर्तभीषण किनारेमें, इस दुस्तर पारावारके प्रथम तरंगाघातमें और कौन मेरी रक्षा कर सकता है ? बड़े वेगसे जीवननदीमें तूफान आ रहा है, चारों ओर घोर निराशाका अंधकार है ! हे नाथ ! हे आर्तत्राणपरायण | चारों ओर घोर अंधकार है ! मेरी यह जीर्ण जर्जर नौका पापके बोझसे दबी जा रही है, भगवन् , तुम्हीं इसे भवसागरके पार लगानेवाले कर्णधार हो ! मुझे आपहीका भरोसा है। आपके सिवा और कोई रक्षा नहीं कर सकता। जगदीश, त्राहि ! त्राहि !
( चौबेके चिरेसे उद्धृत ।)
जैन लाजिक ।
. ( अंक १२, भाग ९ से आगे।) ९२. प्रमाण-नय-तत्त्वालोकालंकारमें निम्नलिखित आठ परिच्छे है:-(१) प्रमाण-स्वरूप-निर्णय; (२) प्रत्यक्ष-स्वरूप-निर्णय; (३ स्मरण-प्रत्यभिज्ञान-तुर्कानुमान-स्वरूपनिर्णय; ( ४ ) आगम-प्रमाण स्वरूप-निर्णय; (५) विषय स्वरूप-निर्णय; (६) फल-प्रमाण-स्वरू पाद्याभास-निर्णय; (७) नयात्म-स्वरूप-निर्णय; (८) वादि-प्रतिवादनिर्णय । यह ग्रंथ माणिक्यनंदिकृत परीक्षामुखसूत्र, अकलंककृत न्यायविनिश्चय, और सिद्धसेनदिवाकरकृत न्यायावतारके ढंग पर लिखा गया है । अतएव मैं समान बातोंको न लिखकर केवल विशेष लक्षणोंका ही वर्णन करूँगा।
९३. इसमें प्रमाणकी परिभाषा यह लिखी है कि प्रमाण वह ज्ञान है जो स्वस्वरूप और अन्य पदार्थोके स्वरूपका • निर्णय करे । इन्द्रिय और इन्द्रियग्राह्य पदार्थोंका पारस्परिक सम्बन्ध प्रमाण नह
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है, क्योंकि यह अन्य पदार्थोंके स्वरूपका निर्णय तो कर सकता है किन्तु स्वस्वरूपका निर्णय नहीं कर सकता । कारण कि इसमें चेतना नहीं है । प्रमाण अवश्यमेव ज्ञान ही होना चाहिए। क्योंकि उसमें इच्छितके ग्रहण और अनिच्छितके त्याग करनेकी शक्ति है । उसका स्वरूप भी निश्चित होना चाहिए। क्योंकि वह समारोपके विरुद्ध होता है । समारोप तीन प्रकारका होता है:-(१) विपर्यय. जैस सीपको चाँदी समझना; (२) संशय, जैसे यह मनुष्य है या स्थाणु; और (३) अनध्यवसाय, जिसमें मनमें केवल इतना ही ज्ञान होता है कि कुछ है ।
९४. प्रमाण दो प्रकारका होता है:-(१) प्रत्यक्ष,(२) परोक्ष । प्रत्यक्ष प्रमाणके दो भेद हैं:-१ सांव्यावहारिक, २ पारमार्थिक । सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष प्रमाणके पुनः भेद किये गये हैं-एक तो इन्द्रियनिबंधन अर्थात् जो इंद्रियों द्वारा प्राप्त होता है और दूसरा अनिन्द्रियनिबंधन अर्थात् जो इन्द्रियोंसे नहीं किंतु मनद्वारा उत्पन्न होता है। इनमेंसे प्रत्येकमें चार श्रेणियाँ होती हैं, अर्थात् ( १ ) अवग्रह जिससे भेदका बोध हो, जैसे घोड़ा अथवा मनुष्य, परंतु इससे लक्षणोंका ज्ञान नहीं होता; ( २) ईहा अर्थात् पृच्छा जैसे मनुष्य कहाँसे आया अथवा घोडा किस देशसे आया; (३) अवाय, अर्थात् उपर्युक्त ज्ञानका ठीक निश्चय होना, (४) धारण अर्थात् उस विशेष वस्तुको याद करके मनमें धारणा करना । *
* अवग्रह इत्यादिका अर्थ जो यहां दिया गया है वह करनल जारैट द्वारा अनुवादित और बंगाल एशियाटिक सोसायटी द्वारा प्रकाशित, 'आईने अकबरी' जिल्द ३, पृष्ट १९० से उद्धृत किया जाता है। क्यों कि आईने अकबरीमें जैनधर्मसंबंधी परिच्छेदमें दिया हुआ प्रमाणविषयक भाग प्रमाण-नय-तत्त्वालोकालंकारके उसी विषयसे बहुत मिलता जुलता है । परंतु, इन शब्दोंका अर्थ जो डा० आर. जी. भंडारकरने संस्कृत हस्तलिखित ग्रंथोंकी सन् १८८३-८४ की. रिपोर्टमें पृष्ट ९३ पर टिप्पणीमें दिया है वह इससे भिन्न है।
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पारमार्थिक प्रत्यक्ष प्रमाण आत्माके प्रकाशसे ही उत्पन्न होता है और मुक्तिके लिए लाभदायक है । इसके दो भेद हैं:-(१) विकल (दूषित) अर्थात् निकटवर्ती अथवा दूरकी वस्तुओंका भेदरहित ज्ञान
और मनःपर्ययज्ञान अर्थात् दूसरेके विचारोंका निश्चित ज्ञान और हृ दयकी गुप्त बातोंका बोध जिसमें सम्मिलित हैं; २ सकल ( सम्पूर्ण जो किसी पदार्थकी समस्त पर्यायोंका अबाधित ज्ञान है । जिसे सकल पारमार्थिक ज्ञान होता है उसे अर्हत् ( अर्थात् जो पूर्णतया निर्दोष तथा अबाधित हो ) कहते हैं।
९५. परोक्ष प्रमाण पांच प्रकारका है, अर्थात् १. स्मरण; २. प्रत्यभिः ज्ञान; ३. तके; ४. अनुमान; ५. आगम ।
९६ अनुमान दो प्रकारका होता है:-१ स्वार्थ, जो अपने लिए हो २ परार्थ, जो दूसरोंके लिए हो । हेतु वह है जो साध्यके संबंधके बिना न रह सके । हेतु वह है जिसमें तीन लक्षण हों। यह परिभाषा त्याज्य है, क्योंकि इसमें आभास है । कोई कोई हेतुके तीन लक्षणों अथवा भेदोंको मानते हैं, परन्तु वे अनुमानमें पक्षका प्रयोग आवश्यकीय नहीं समझते । और कुछका यह मत है कि बहिर्व्याप्तिका दृष्टांत व्यर्थ है | ___१. निश्चितान्यथानुपपत्त्येकलक्षणो हेतुः न तु त्रिलक्षणकादिः । तस्य हेत्वाभासस्यापि सम्भवात् ॥११॥
(प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार, तृतीय परिच्छेद.) यह धर्मकीर्ति और अन्य बौद्ध नैयायिकोंपर आक्षेप है जो हेतुके तीन लक्षणोंकी परिभाषा निम्र रीतिसे करते हैं:---
त्रैरूप्यं पुनर्लिंगस्य अनुमेये सत्त्वमेव सपक्ष एव सत्त्वम् । असपक्षे चासत्त्वमेव निश्चितम् ।
(न्यायबिन्दु, द्वितीय परिच्छेद.) २. त्रिविधं साधनमभिधायैव तत्समर्थनं विदधानः कः खलु न पक्षप्रयोगम् - अंगीकुरुते ॥२३॥
(प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार, तृतीय परिच्छेद
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क्योंकि हेतु और साधनका संबंध अथवा संबंधका अभाव अन्तर्व्याप्तिसे प्रकट किया जा सकता है' । जैसे
वह पर्वत (पक्ष) अग्निसहित ( साध्य) है, क्योंकि वह धूमवान् (हेतु) है जैसे रसोईघर ( दृष्टान्त)।
यहाँपर पर्वत अनुमानका मुख्य अंग है और उसमें अग्नि और धूमका अविनाभावी संबंध मिल सकता है । अतएव हम अपने अनुमानको बाहरके दृष्टान्तसे गुरु क्यों करें? रसोईघर निश्चय करके उसी संबंधको प्रगट करता है । क्योंकि उसमें अग्नि और धूम दोनों साथ साथ मिलते हैं; परन्तु रसोईघर अनुमानका आवश्यक अंग नहीं है, अतएव प्राकर्णिक विषयके लिए वह संबंध जिसकी यह सिद्धि करता है बहिर्व्याप्ति कहा जा सकता है। हमको न्यायसंबंधी स्वच्छता और मानसिक परिश्रमकी मितव्ययिता पर ध्यान रखना चाहिए, क्योंकि जब मनकी चालमें अनावश्यक बातें आ जाती हैं, तब वह व्यग्र हो जाता है।
९७. उपनय और निगमनको भी अनुमानके अंग बनाना व्यर्थ है; परन्तु इनका प्रयोग दृष्टान्तसहित अल्पबुद्धिबालोंको ज्ञान करानेके लिए किया जाता है।
अनुमानके अवयव ये लिखे है:---- १. पक्षप्रयोग-पर्वत अग्निसहित हैं । २. हेतुप्रयोग क्योंकि वह धूमवान् है । १. अन्तव्याप्त्या हेतोः साध्यप्रत्यायने शक्तावशक्ती च बहिर्व्याप्तेरुद्भावनं व्यर्थम् ॥ ३५ ॥
(प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार, तृतीय परिच्छेद) २. मन्दमतास्तु व्युत्पादयितुं पृष्टान्तोपनयनिगमनान्यपि प्रयोज्यानि ॥ ३९ ॥
(प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार, तृतीय परिच्छेद)
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३. दृष्टान्त -- जो अग्निसहित होता है, वह धूमवान् होता है ।
जैसे रसोईघर ।
४. उपनय - यह पर्वत धूमवान् है ।
५. निगमन - अतएव यह पर्वत अग्निसहित है ।
९८. अभाव अथवा अनुपलब्धके ये भेद किये गये हैं— (१) प्रागभाव; (२) प्रध्वंसाभाव; (३) इतरेतराभाव; और (४) अत्यंताभाव । भिन्न प्रकार के आभासोंका भी वर्णन किया गया है। आगम और नयके अभ्यंतर सप्तभंगीनयका विस्तारपूर्वक वर्णन किया गय है । प्रमाणके हेतुसहित और हेतुरहित फलोंका स्पष्टरूपसे वर्णन किया गया है।
९९. ज्ञानके परिणाम और उन परिणामोंके व्यावहारिक उपयोग भ्रांतिजनक ( सांवृति ) नहीं, किन्तु पारमार्थिक बतलाये गये हैं । १००. नयके प्रकरण में नयाभासोंका इस प्रकार वर्णन है :
-
(१) नैगमाभास - जैसे आत्माका अनुमान करनेमें हम उसकी 'सत्ता' ( सामान्यगुण ) और उसकी चेतना ( विशेषगुण) में भेद कर देते हैं ।
(२) संग्रहाभास - यह उस समय होता है जब हम किसी वस्तुकों उसमें केवल सामान्य गुण होनेसे ही यथार्थ कहने लगते हैं, और उसके विशेष गुणों पर सर्वथा दृष्टिपात नहीं करते। जैसे जब हम कहते हैं कि बांस वृक्ष द्रव्यकी अपेक्षा यथार्थ है, परन्तु उसमें विशेष गुण नहीं है ।
( ३ ) व्यवहाराभास -- जैसे चार्वाकदर्शन जिसमें द्रव्य, गुण इत्यादि में अशुद्ध भेद किया गया है ।
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(४) ऋजुसूत्राभास -- जैसे ताथागत दर्शन जो द्रव्यकी सत्ताका सर्वथा निषेध करता है ।
(५) शब्दाभास - यह उस समय होता है, जब हम कालके भूत, वर्तमान और भविष्यभेदों को मानते हैं, परन्तु तीनों कालोंमें किसी शब्दका एक ही अर्थ करते चले जाते हैं । जैसे यदि हम अब शब्द 'ऋतु' ( यज्ञ ) का प्रयोग शक्तिके अर्थमें जो एक सहस्र वर्ष पहले किया जाता था, करें ।
(६) समभिरूढ़ाभास -- यह तब होता है जब हम पर्यायवाचक शब्द जैसे इन्द्र, शक्र, पुरेन्द्र इत्यादिका अर्थ एक दूसरे से सर्वथा भिन्न करें ।
.
(७) एवंभूताभास -- उस समय होता है जब हम किसी वस्तुको केवल इस लिए अस्वीकार करते हैं कि उसमें तत्क्षण वे गुण नहीं पाये जाते जो उसके नाम में विद्यमान हैं। जैसे राम मनुष्य ( मनन करने वाला) नहीं है । क्योंकि इस समय मनन नहीं कर रहा I
है 1 १०१. आत्मा, जो कि कर्ता और भोगता है और चेतनस्वरूप है, अपने शरीर के आकारका होता है । प्रत्येक व्यक्तिमें एक पृथक् आत्मा होता है जो कर्मके बंधन से छुटकारा पानेसे मुक्त हो जाता
है
I
१०२. अंतिम परिच्छेद में वाद ( शास्त्रार्थ ) की रीतिका वर्णन है । किसी प्रतिज्ञाको सिद्ध करने के लिए उस प्रतिज्ञाके विरुद्ध कथनका खंडन करके विधि और निषेध करना वाद है । वादी अर्थात् वह पुरुष जिसका वादमें पूर्व पक्ष होता है या तो विजय पानेका या सत्य की खोजका इच्छुक होता है। सत्यकी खोज या तो अपने लिए होती हैं, जैसे शिष्य खोज करता है, या परके लिए जैसे गुरु खोज
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करता है । प्रतिवादीके विषयमें भी यही बात है। वादसभाके चार अंग होते हैं, अर्थात् (१) वादी; (२) प्रतिवादी; (३) सभ्य; और (४) सभापति । वादी और प्रतिवादीका कर्तव्य प्रमाणसे अपने पक्षका समर्थन करना और दूसरेके पक्षका खंडन करना है। दोनों पक्षोंको यह बात स्वीकृत होनी चाहिए कि सभ्योंमें उनके सिद्धांतोंके समझनेकी योग्यता है । सभ्योंकी स्मरण शक्ति अच्छी होनी चाहिए, वे अच्छे विद्वान् होने चाहिए और उनमें बड़ी योग्यता संतोष और निष्पक्षता होनी चाहिए । उनका काम यह है कि वे बादके विषयके संबंधमें वादी और प्रतिवादीके कथन और उत्तरोंको कहें, उनके वाद और प्रतिवादके गुणों और दोषोंकी परीक्षा करें और कभी कभी उनके कथनका आशय प्रकट करके परिणत फल स्थापित करें और यथासंभव वादके परिणामको प्रकट करें । सभापति बुद्धि, अधिकार, सहनशीलता और निष्पक्षतासे भूषित होना चाहिए । उसका काम पक्षों और सभ्योंकी वक्तृताकी परीक्षा करना और उनके झगडोंको रोकना है । यदि पक्षोंको केवल विजय पानेकी इच्छा हो, तो वे वादको जब तक सभ्य चाहें शक्तिपूर्वक जारी रख सकते हैं; परन्तु यदि वे सत्यका अन्वेषण ही करना चाहें तो जब तक सत्यका निर्णय न हो जाय अथवा जब तक वे अपनी शक्तिको स्थिति रख सकें, वादको चला सकते हैं ।
हेमचन्द्र सारि (ई०सन् १०२२-१११७) १०३. हेमचन्द्र सूरि ( उपनाम कलिकालसर्वज्ञ ) अहमदाबादमें धंधुकमें पैदा हुए थे और वज्रशाखाके देवचन्द्रके शिष्य थे। वे राजा जयसिंहके समकालीन थे। कहते हैं कि लगभग संवत् ११७७ से १२२७ तक वे गुजरातके महाराज कुमारपालके गुरु रहे। उन्होंने
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बहुतसे ग्रंथ लिखे; जैसे काव्यानुशासन-वृत्ति, छंदानुशासनवृत्ति, अभिधानचिंतामणि अर्थात् नाममाला, अनेकार्थ-संग्रह, द्वाश्रयमहाकाव्य, त्रिषष्ठिशलाकापुरुष-चरित, योगशास्त्र, निघंटुशेष, इत्यादि ।
१०४. उन्होंने न्यायका प्रमाण-मीमांसा नामक एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण ग्रंथ लिखा है और उसपर उन्होंने स्वयं ही टीका लिखी है ।
१०५. उन्होंने सन् १०८८ ई० में जन्म लिया, सन् १०९३ ई० में दीक्षा ग्रहण की, सन् ११०९ ई० में सूरिकी पदवी प्राप्त की और सन् ११७२ में स्वर्गवास किया।
चन्द्रप्रभ मूरि ( ई० सन् ११०२) १०६. चन्द्रप्रभसूरिने गुजरातमें जन्म लिया, और ई० सन् ११०२ में पूर्णिमा गच्छ स्थापित किया। वे जयसिंह सूरिके शिष्य और धर्मघोषके गुरु थे। वे दर्शनशुद्धि और संभवतः न्यायके दो ग्रंथ प्रमेयरत्नकोश और न्यायावतारविवृत्तिके कर्ता थे।
१०७. न्यायावतार-विवृत्ति सिद्धसेनदिवाकरकृत न्यायावतार पर उत्तम टीका है । उसमें धर्मोत्तर इत्यादि बौद्ध नैयायिकोंका जिक्र आया है। ..
नेमिचंद्र कवि (ई० सन् ११५० के लगभग ) १०८. नेमिचंदका जन्म गुजरातमें हुआ। सागरेन्दु मुनिके शिष्य. माणिक्यचन्द्रने अपने पार्श्वनाथचरितमें, जो ई० सन् १२१९ में लिखा गया था, नेमिचन्द्रको वैरस्वामीका शिष्य और सागरेन्दु (सागरचन्द) का गुरु लिखा है। क्योंकि माणिक्यचन्द्र लगभग सन् १२१९ में विद्यमान थे, अतएव उनके गुरु सन् ११५० ई० के लगभग हुए होंगे।
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आनन्दसूरि और अमर चंद्रसूरि ( ई० स० १०७३ - ११५० ) १०९. इन दोनोंका जन्म गुजरात में हुआ था । ये बड़े भारी नैयायिक थे । क्योंकि इन्होंने किशोर अवस्था में ही अपने गजसमान प्रतिवादियोंपर विजय पाई थी, इस लिए इनके उपनाम व्याघ्रशिशुक और सिंहशिशुक पड़ गये थे । चूंकि सिद्धराज - जिन्होंने इनको उपनाम दिये थे, सन् १०९३ ई० में सिंहासनारूढ हुए - अतएव ये अवश्य ही ईसाकी बारहवीं शताब्दि में हुए होंगे । हरिभद्रसूरि (१९६८ ई० के लगभग )
११०. हरिभद्रसूरि नामके दो श्वेताम्बर जैनलेखकों का उल्लेख मिलता है। एकने सन् ४७८ ई० में स्वर्गवास किया और दूसरे जो नागेन्द्रगच्छके आनंदसूरि और अमरचन्दसूरिके शिष्य थे, सन् १९६८ ई० के लगभग विद्यमान थे। दूसरे हरिभद्रसूरि "कलिकाल गौतम " कहलाते थे। यदि हम उनको पदर्शनसमुच्चय, दशवैकालिक नियुक्ति, न्यायप्रवेशिका सूत्र और न्यायावतार - वृत्तिके कर्ता मानें, तो वे अवश्य प्रसिद्ध नैयायिक थे ।
१११. यह बहुधा कहा जाता है कि हरिभद्र सूरिने अर्हत् भगवानकी वाणीकी १४०० ग्रंथ लिख कर माता के समान रक्षा की । उन्होंने अपने प्रत्येक ग्रंथके अंतिम पद्य में 'विरह' शब्दका प्रयोग किया है । वे जाति ब्राह्मण थे। कहते हैं कि उनके दो शिष्य हंस और परमहंस जैनधर्मका प्रचार करनेके लिए गये, परन्तु उनको भोटा देश (तिब्बत) में क्रोधित बौद्धोंने - जिनको वे जैन बनाना चाहते थे - मार डाला । इन दोनों शिष्यों की मृत्युका शोक ही 'विरह' शब्द के रूप में प्रकट किया गया है ।
११२. यह बहुधा माना जाता है कि हरिभद्रसूरि जिनके शिष्य तिब्बत में मारे गये थे, इस नामके प्रथम लेखक है । परन्तु यदि हम
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३४१ उनको दूसरे हरिभद्रसूरि मानें, तो कोई गलती न होगी ! क्यों कि भारतवर्ष और तिब्बतमें धार्मिकसंबंध पाँचवीं शताब्दिकी अपेक्षा वारहवीं शताब्दिमें अधिक था।
__रत्नप्रभसूरि ( सन् ११८१ ई० ) ११३. रत्नप्रभसूरि श्वेताम्बर सम्प्रदायके प्रसिद्ध नैयायिक थे। उन्होंने प्रमाणनयतत्त्वालोकालकारकी छोटीसी टीका स्याद्वादरत्नावतारिका लिखी है।
११४. सन् ११८१ ई० में भडोंचमें अश्वबोधतीर्थ पर भद्रेश्वरसूरिके प्रसन्न करनेके लिए उपदेशमालावृत्ति नामक ग्रंथ लिखा । उसमें उन्होंने बृहद्गच्छमें अपनी धार्मिक पट्टावली इस प्रकार लिखी है:(१) मुनिचन्द्रसूरि; (२) देवसूरि; (३) भद्रेश्वरसूरि और (४) रत्नप्रभसूरि ।
मल्लिषेणमूरि ( सन् १२९२ ई०) . ११५. इनका संबंध श्वेताम्बर संप्रदायके नगेन्द्र गच्छसे था और ये हेमचंद्रकृत वीतरागस्तुतिकी टीका स्याद्वादमंजरीके कर्ता थे। इस ग्रंथमें कई दर्शनोंके खंडन भी किये गये हैं । इस ग्रंथके अंतमें मल्लिषणने अपनेको उदयप्रभसरिका शिष्य लिखा है और ग्रंथके रचनेका समय शाका १२१४ अर्थात् सन् १२९२ लिखा है।
. राजशेखर मरि ( सन् १३४८) . . ११६. राजशेखरसूरि श्वेताम्बर सम्प्रदायके थे और प्रमाणनयतत्वालोकालंकारकी उपटीका रत्नावतारिका पंजिका और स्याद्वादकलिका और चर्तुविंशतिप्रबंधके कर्ता थे। वे हिन्दू दार्शनिक श्रीधरकृत न्यायकुंडलीकी एक पंजिका (टीका ) के भी कर्ता हैं।
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ज्ञानचन्द्र (ई० सन् १३५०) ११७. ये श्वेताम्बरसंप्रदायके थे ओर इन्होंने रत्नावतारिकाकी टिप्पणी रत्नावतारिक-टिप्पण लिखी; इसमें दिग्नाग इत्यादिके मतका खंडन भी है । इन्होंने अपने ग्रंथको अपने गुरु राजशेखरसूरि-जो सन् १३४८ ई० में विद्यमान थे-की आज्ञानुसार लिखा ।
गणरत्न ( ई० सन् १४०९) ११८ गुणरत्न श्वेताम्बरसंप्रदायक तपगच्छके थे। उन्होंने षट्दर्शनसमुच्चयकी टीका ष दर्शन-समुच्चय-वृत्ति अर्थात् तर्करहस्य-दीपिका और क्रियारत्नसमुच्चय नामक ग्रंथ लिखे।
११९ रत्नशेखरसूरिने लिखा है कि गुणरत्न देवसुंदरके शिष्य थे और उन्होंने अणहिल्लपट्टणमें सन् १३६३ ई० में सूरिकी पदवी प्राप्त की। देवसमुद्रसूरि मुनिसुन्दरसूरिके समकालीन थे; मुनिसुंदरसूरिकृत गुर्वावली सन् १४०७ में लिखी गई थी। गुणरत्न स्वयं कहते हैं कि उनका क्रियारत्नसमुच्चय सन् १४०९ ई० में लिखा गया था।
१२०. गुणरत्नकृत षट्दर्शनसमुच्चयकी टीकामें बहुतसे बौद्ध और हिंदू नैयायिकों और उनके ग्रंथोंका उल्लेख है।
धर्मभूषण (सन् १६०० ई० के लगभग ) १२१ ये एक दिगम्बर लेखक हैं। इन्होंने न्यायदीपिका ३०० वर्ष हुए लिखी। थी यशोविजयगणिने 'तर्काभास' में इनका उल्लेख किया है।
१२२. न्यायदीपिकामें मंगलाचरणके अतिरिक्त तीन प्रकाश हैं, अर्थात् (१) प्रमाण-सामान्य लक्षण, (२) प्रत्यक्ष-प्रमाण-लक्षण और (३) परोक्ष-प्रमाण-लक्षण ।
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१२३. इसमें न्यायके शब्दोंकी परिभाषा लिखी है और विशेष कर बौद्ध नैयायिकोंके मतका खूब खंडन किया गया है । इसमें बहुतसे लेखकों और ग्रंथोंका उल्लेख है।
यशोविजय गणि ( सन् १६८० ई०) १२४. यशोविजय श्वेताम्बरसंप्रदायके थे। ये न्यायप्रदीप, तर्का. भास, न्यायरहस्य, न्यायामृततरंगिणी, न्यायखंडखाद्य, अनेकांतजैनमतव्यवस्था, ज्ञानबिन्दुप्रकरण, इत्यादि ग्रंथों के प्रसिद्ध कर्ता थे। इन्होंने दिगम्बर ग्रंथ अष्टसहस्री पर अष्टसहस्रीवृत्ति नामक टीका भी लिखी।
१२५. इनकी परम्परा हीरविजयसूरिसे है जो अकबरके समयके प्रसिद्ध सूरि थे। इन्होंने सन् १६८८ ई० में बडौदा राज्यांतर्गत डभोईमें स्वर्गवास किया। इनके चिरस्मार्थ बनारसमें एक जैन यशोविजय पाठशाला स्थापित की गई है, जिसके संरक्षणमें जैनियोंके पवित्र ग्रंथ जैनयशोविजयग्रंथमालामें प्रकाशित हो रहे हैं।*
मोतीलाल जैन, आगरा। समाप्त।
आवरण।
(गतांकसे आगे) इस प्रकारकी अवस्थाका स्वाभाविक परिणाम निरानंद होता है, अर्थात् जब स्वाधीन मनुष्य पुस्तकका मनुष्य बन जाता है, तब उसके स्वाभाविक आनन्दका द्वार बन्द हो जाता है।
* अवकाशाभावके कारण मैं इस बार लेखको स्वयं न लिख सका। इसे मेरे मित्र श्रीयुत बाबू मोतीलालजी आगरानिवासीने मेरे लिए लिख देनेकी कृपा की है, जिसके लिए मैं उनका हृदयसे आभार मानता हूँ। दयाचन्द गोयलीय ।
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इस समय यूरोपके साहित्यमें और समाजमें एक विलक्षण प्रकारकी व्याधिने दर्शन दिये हैं। उस देशवाले इस व्याधिको World weariness कहते हैं । इसकी कृपासे स्नायु विकल हो गये हैं और जीवनका स्वाद चला गया है । पर स्वाद तो होना ही चाहिए, इस. से लोग नई नई उत्तेजनाओंकी रचना करके आपको भुलाने या फुसलानेकी चेष्टामें लग रहे हैं । कुछ समझमें ही नहीं आता कि यह असुख और विकलता क्यों है--इसका कारण क्या है ? स्त्री और पुरुष दोनोंहीको तो इस अवसाद या थकावटने घरे लिया है। __ स्वभावसे क्रमशः बहुत दूर चला जाना-अतिशय अस्वाभाविक या अप्राकृतिक प्रवृत्ति करने लगना ही इसका कारण है । कृत्रिम साधन या सुभीते इस तरह बढ़ाये जा रहे हैं-उनका जोर इतना बढ़ गया है कि उन्होंने जगतके जीवको मानो जगतके बाहरका जीव बना दिया है। इन जगज्जीवों या मनुष्योंका मन तो पुस्तकोसे ढंक गया है और शरीर कपड़े लत्तों तथा और और चीज़ोंके भीतर छुप गया है । इस तरह जीवात्माके सारे दर्वाजे और खिड़कियाँ बन्द कर दी गई हैंस्वच्छ वायु और स्वाधीन प्रकाशको आनेके लिए उसमें कोई मार्ग ही नहीं है। जो सहज हैं, नित्य हैं और मूल्यहीन होनेके कारण ही सबसे अधिक मूल्यवान् हैं, उन प्रकृत वस्तुओंके साथ न तो मिलना जुलना रहा और न प्रत्यक्ष परिचय रहा, इससे उनके ग्रहण करनेकी शक्ति ही नष्ट हो गई है। उनके स्थानमें जो चीजें उत्तेजनाकी नई नई ताडनाओंसे उत्पन्न होकर कुछ दिन फेशनकी भँवरमें पड़कर गँदली हो जाती हैं और इसके बाद ही अनादर और घृणाके किनारे एकत्रित होकर समाज--वायुको दूषित करती हैं, वे फिर फिर कर लाख लाखगुणी मेहनत कराती हैं और उसमें सारे समाजको जोतकर उसे को
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हूके बैलके समान घुमाघुमाकर मार रही हैं । असुख और विकलताका यही कारण है। ___ एक पुस्तकसे और एक पुस्तक उत्पन्न हो रही है; एक काव्यग्रन्थसे और एक काव्यग्रन्थका जन्म हो रहा है; एकका मत अनेक मुखोंका आश्रय लेकर हजारों लोगोंका मत बन रहा है । तात्पर्य यह कि नकलसे नकलका प्रवाह चल रहा है । इस तरह मनुष्यके चारों ओर यह पुस्तकों और वचनोंका जंगल सघन होता जाता है और प्राकृतिक जगतसे उसका सम्बन्ध धीरे धीरे विच्छिन्न होता जाता है । अर्थात् इस समयके मनुष्योंके मनमें जितने भाव उत्पन्न होते हैं, उनमेंसे अधिकांश भाव केवल पुस्तकोंके सृष्ट किये हुए होते हैं। इसी कारण वे वास्तविकतारहित होते हैं और मनुष्यके सिर पर भूतके समान चढ़कर उसके मानसिक स्वास्थ्यको बिगाड़ देते हैं, उसे अत्युक्ति या आतिशय्यकी ओर ले जाते हैं और धीरेधीरे सब ही एक ही लकीर पर चलकर सत्यको मिथ्या बना डालते हैं। उदाहरणके लिए 'पेट्रियटिज्म्' ( स्वदेशानुराग ) को ही ले लीजिए । इसके भीतर जितना सत्य था, उसे लोगोंने स्थिर न रहने दिया, उस पर जिसके जीमें आया उसीने रोज़ रोज उछल कूद मचा कर उसकी रुई धुन डाली और अन्तमें एक मोटा ताजा झूठ बनाकर खड़ा कर दिया ! अब इस बनाकर तैयार की हुई बातको सत्य बनानेके लिए न जाने कितने बनावटी उपाय किये जाते हैं; न जाने कितनी झूठी उत्तेजनायें दिलाई जाती हैं, न जाने कितने अनुचित दण्ड, न जाने कितने गढ़कर तैयार किये हुए विद्वेष, न जाने कितनी कूट युक्तियाँ और न जाने कितने धर्मके ढोंग रचे जाते हैं । इन सब स्वभावभ्रष्ट बातोंके धुआँधारमें मनुष्य को मार्ग नहीं सूझता-वह सरल और उदार, प्रशान्त और सुन्दर
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मार्ग से बराबर दूर हटता जाता है । पर किया क्या जाय, स्वभावभ्रष्ट या बनाई हुई बातका मोह छोड़ना क्या कोई सहज काम है ? यदि कोई स्थूल चीज़ हो, तो वह हाथोंसे पकड़ कर और पृथ्वीपर पटककर नष्ट की जा सकती है; परन्तु 'बात' या वचनके शरीर पर तो छुरी भी नहीं चलती ! इसी लिए मानवसमाज में 'बात' के कारण जितना रक्तपात हुआ है, उतना राज्य और सम्पत्ति आदिके कारण नहीं हुआ !
समाजकी आदिम सरल अवस्थामें देखा जाता है कि राज्य जो जानता है उसे मानता भी है । उस पर उसकी अटल निष्ठा होती है और इसी लिए वह उसके लिए सहज ही स्वार्थत्याग करना या कष्ट सहना स्वीकार कर लेता है । इसके कई कारण हैं । प्रधान कारण यह है कि आदिम अवस्थामें मनुष्य के हृदय और मन खुले हुए रहते हैं -- तरह तरहके मतों या सिद्धान्तों का परदा उन पर पड़ा हुआ नहीं रहता । अतएव उसके मनमें जितने सत्यको ग्रहण करनेका अधिकार या शक्ति है, उतनेको ही वह ग्रहण करता है और मन जिसे सत्यरूपमें ग्रहण कर लिया उस पर पूरा पूरा विश्वास जमा लिया, उसके लिए हृदय अनायास ही अनेक कष्ट सहन कर सकता है; यह उसके लिए बिलकुल मामूली बात है ।
-
पर जब सभ्यताकी जटिल या पेचीदा अवस्थाकी ओर नजर दौड़ाई जाती है, तब मालूम होता है कि इस अवस्थामें मनुष्यका मन खुला हुआ नहीं है; उसपर तरह तरहके मतोंकी सैकड़ों तहें जम गई हैं। कोई चर्चका मत है पर चर्चाका मत नहीं है; कोई सभाका मत है पर घरका मत नहीं है; कोई समूह या पंचायतका मत है पर अन्तरंगका मत नहीं है; कोई मत आँखोंमेंसे आँसुओं को तो बाहर कर देता है पर ज़ेबमेंसे रुपयोंको बाहर नहीं होने देता; कोई मत रुपये भी
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बाहर कर देता है और काम भी जारी कर देता है पर ( मतवालेके ) हृदय में स्थान नहीं पाता - उसकी प्रतिष्ठा फेशनकी नीव पर होती हैं। जब मतोंकी ये तरह तरहकी तहें बीच में आपडती हैं, तब मनुष्यका मन सत्यमतको अटल सत्यके रूप में ग्रहण नहीं कर सकता । यही कारण है, जो उसका आचरण सर्वत्र सर्वतोभावसे सत्य नहीं होता। जब वह सरलता से अपनी शक्ति और प्रकृतिके अनुकूल, किसी मार्ग के निश्चित करनेका अवकाश नहीं पाता है, तब चक्कर में उड़ जाता है और वारवार दूसरोंकी ही बातों या मतों का पाठ किया करता है । किन्तु अन्त में जब कामका समय आता है --विश्वासको कार्य में परिणत करने का अवसर आता है, तब उसका प्रकृति के साथ विरोध खड़ा हो जाता है; अर्थात् वह कहता मानता कुछ है और करने लगता कुछ है। यदि उसके मन पर अनेक मतोंकी तहें न जमी होतीं, यदि वह अपने स्वभावको आप ही पाता - पुस्तकों या दूसरोंके वचनों द्वारा नहीं, तो उस स्वभाव के भीतर से जो कुछ पाता, वह छोटी बड़ी चाहे जैसी होती, पर होती शुद्ध वस्तु ( खालिस चीज़ ) । यह चीज उसे सम्पूर्ण बल देती सम्पूर्ण आश्रय देती और उसे सर्वतोभावसे काम में लगाये बिना न रह सकती । परन्तु इस समय उसे बड़े भारी गड़बडाध्याय में पड़ जाना पडता है। पुस्तकों का मत, वचनोंका मत, सभाओं का मत, पंचायतियों का मत : इस तरह न जाने कितने मतोंका बोझा लादकर उसे स्थिर लक्ष्य से भ्रष्ट हो जाना पड़ता है और केवल बड़े बड़े वचनोंका पाठ करते हुए भटकना पड़ता है । और मजा यह कि इस पाठ करने और भटकते फिरने को वह हितकारी कार्य समझता है । इसके लिए वह तनख्वाह पाता हैं; उन वचनों को बेच -- कर धन कमाता है । उसके उक्त वचनोंसे किसीने जरा भी इवर
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उधर कहा कि उसका मिजाज बिगड़ जाता है, वह तत्काल ही अन्य जातिको हेय और अपने सम्प्रदायको श्रद्धेय सिद्ध करने लगता है । समाजकी जटिल अवस्थामें मनुष्यके मन और हृदयकी ऐसी ही हालत हो जाती है।
मनुष्यके मनके चारों ओर पुस्तकोंका एक सघन बन दूर तक फैल गया है । इसकी मस्त गन्धने हमें मतवाला बना दिया है । यह गन्ध हमें एक डालीसे दूसरी और दूसरीसे तीसरी पर भी लटका कर मारती तो है; परन्तु वास्तविक आनन्द और गहरी तृप्ति नहीं देती । और नाना प्रकारके उपद्रव बढ़ाती तथा मनोविकार उत्पन्न करती रहती है, सो जुदा ही। . ____ जो वस्तु सहज और स्वाभाविक होती है, उसमें यह खूबी रहती है कि उसका स्वाद कभी पुराना नहीं होता-उसकी सरलता उसे सदा ही नया बनाये रखती है । वास्तविक स्वभावकी बातको मनुष्यने आज तक जितनी बार कहा है, उतनी ही बार वह नई मालूम हुई है । पृथ्वी पर इस तरहकी स्वाभाविक बातें कहनेवाले दो तीन महाकाव्य हैं, जो हजारों वर्ष बीत जाने पर भी पुराने या फीके नहीं पड़े । निर्मल जलकी तरह उनसे हमारी प्यास बुझ जाती है और एक अपूर्व तृप्ति भी मिलती है । मदिराकी तरह उत्तेजनाके शिखर पर चढ़ाकर सूखे अवसाद या खेदकी तलीमें पटकनेका गुण उनमें बिलकुल नहीं है। यह सहज स्वाभाविक वस्तुकी बात है । किन्तु सहजसे ज्यों ही कुछ दूर पड़े कि उत्तेजना और अवसादके बीचमें धान कुटनेकी ढेंकी बन जाना पड़ता है । उपकरणों और आडम्बरोंसे सजीधजी हुई अति सभ्यताकी यही तो बड़ी भारी व्याधि है। __इस जंगलके भीतर रास्ता खोजकर, इस ढेरकी ढेर पुस्तकों और वचनोंके आवरणको जुदाकर, यदि समाजके भीतर और
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मनुष्यके मनके भीतर स्वभावका पवन और प्रकाश पहुँचाना आवश्यक हो, तो यह यों ही न पहुँच जायगा; इसके लिए या तो किसी महापुरुषको जन्म लेना पड़ेगा या किसी बड़े भारी विप्लवकी आवश्यकता होगी। अत्यन्त सहज सत्यको और अत्यन्त सहज बातको भी रक्त समुद्र तर कर आना होगा । जो आकाशके समान व्यापक
और वायुके समान मूल्यहीन है, उसके प्राप्त करनेमें भी बहुमूल्य प्राणोंको देना होगा।
यूरोपके मनोराज्यमें अकसर बीचबीचमें जो भूकम्प और अग्न्युपादकी अशान्ति दिखलाई देती है, उसका कारण यही है कि वहाँ स्वभावके साथ जीवनका या बहि:प्रकृतिके साथ अन्तःप्रकृतिका बड़ा भारी असामञ्जस्य हो गया है । अर्थात् वहाँका ज्ञान एक ओर जा रहा है और चरित्र दूसरी ओर । - यूरोपी इस विकृतिने हमारे यहाँ भी दर्शन दिये हैं । किन्तु इसे हमने केवल अनुकरणके द्वारा या छूतके द्वारा प्राप्त किया हैयह हमारे देशकी खास चीज नहीं है । हमने जिस दिन बचपनसे ही विलायती पुस्तकोंका रटना शुरू किया, उसी दिनसे हमारे यहाँ इसका प्रारंभ हुआ है । हम जिन सब विदेशी बातोंको सदा ही निस्सन्देह होकर परम श्रद्धांक साथ मानते और वर्तावमें लाते आ रहे हैं, हमें चाहिए था कि उनमेमे प्रत्येकको अविश्वासके साथ सत्यकी कसौटी पर घिसके जाँच कर लेते । क्योंकि उनका तीन चतुर्थांश भाग तो ऐसा है जो केवल पुस्तकों की सृष्टि है-एकसे दूसरी और दूसरीसे तीसरी पुस्तकने उसे सत्य बनाया है। पहले उसे दश आदमी एक दूसरेका अनुकरण करके सत्य कहते आते थे, धीरे धीरे और भी दश आदमियोंने उसे ध्रुव सत्यमें परिणत कर दिया और अन्तमें वह पुस्तकोंमें लिख दिया गया। पर इस प्रकारकी जाँच करना हमें पसन्द नहीं। कभी
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इच्छा भी नहीं होती । बल्कि अब तो हम उस पुस्तकोंके सत्यको कंठ करके इस तरह व्यवहारमें लाने लगे हैं कि मानो उसके 'आविष्कारक हम ही हैं-मानों हम सिद्ध करना चाहते हैं कि वह विदेशी स्कूलमास्टरोंके मुँहके शब्दोंकी केवल जड़ प्रतिध्वनि ही नहीं है-वह हमारे ही कण्ठका स्वर है। ___ जो लोग नये पाठको रटते हैं, उनका उत्साह स्वभावसे ही कुछ अधिक हुआ करता है । सीखा हुआ तोता जितने ऊँचे स्वरसे बोलता है, उसके सिखानेवालेका गला उतना ऊँचा नहीं हुआ करता । सुनते हैं कि जिन जातियोंमें विलायती सभ्यताका प्रवेश पहले पहल होता है, वे इस विलायती मद्यसे इतनी अधिक मतवाली हो जाती हैं कि उनके लिए जमीन छोड़ना मुश्किल हो जाता हैपरन्तु जिन जातियोंकी नकल करके ये जातियाँ मद्यपान करती हैं, वे स्वयं इतनी कर्तव्यविमूढ और मतवाली नहीं देखी जाती । इसी तरह देखते हैं कि जिन बातोंके मोहसे स्वयं उन बातोंके सृष्टिकर्ता मोहित नहीं होते हैं-अपने विश्वासमें बहुत कुछ अचल बने रहते हैं, उन्हींका मोह हमें एकदम जमीन पर सुला देता है ! अभी थोड़े ही दिन हुए, विलायतमें एक सभा हुई थी। उसमें एकके बाद एक इस तरह कई भारतवासियोंने उठकर कहा कि भारतवर्ष में स्त्रीशिक्षाका अभाव है। इस अभावकी पूर्तिके लिए क्या करना चाहिए, इसके सम्बन्धमें वे बहुतसी अतिशय पुरानी विलायती बातोंका तोतेके माफ़िक पाठ कर गये ! अन्तमें एक अँगरेज़ सज्जनने कहा"इस विषयमें मुझे बहुत सन्देह है कि भारतवर्षकी स्त्रियोंको अँगरेज़ी कायदेसे सिखलाना ही सच्ची शिक्षा है और यह शिक्षा ही उनके लिए एकमात्र कल्याणकारिणी है।" यहाँ हम इस विषयमें तो कुछ कहना
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नहीं चाहते कि उक्त दो प्रकारके कथनों में कौनसा सच है और कौनसा झूठ: किन्तु यह बतला देना चाहते हैं कि हम लोग विलायत के प्रचलित रवाजों और मतोंको जो गन्धमादन पर्वतके समान नीचे से ऊपरतक उखाड़कर ले आनेके लिए तत्पर हो जाते हैं और इस बातका कभी विचार भी नहीं करते हैं कि ऐसा करना योग्य है या नहीं सो इसका कारण यह हैं कि इन सब बातों को हमने बचपन से ही पुस्तकों के द्वारा सीखा है और हमें जो कुछ शिक्षा मिली है वह सब पुस्तकों की शिक्षा है। वह उधार ली हुई चीज़ है, स्वयं अपनी कमाईकी नहीं।
हमारे देश के शिक्षित लोग भी पुस्तकों और वचनोंके विवर में पड़े हुए हैं, इसलिए उन पर भी निरानन्दकी छाया दिखलाई दे रही है । इन विवरवासियों में न तो सहृदयता है, न मिलना जुलना है और न
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साहजिक हँसी खेलकी बातें हैं। इसके दो कारण बतलाये जाते हैंएक तो यह कि जीवन के निर्वाहका बोझा बहुत बढ़ गया है, इसलिए इनमें इतनी अवसन्नता दिखलाई देती है और दूसरा यह कि सर्व प्रकार सामाजिक सम्बन्धविहीन और ममताशून्य राजशक्तिका कोडा शिक्षितों की पीठ पर हमेशा ही पड़ा करता है, इस लिए इन पर इतनी उदासी छाई रहती है। इसमें सन्देह नहीं कि शिक्षितों की निरानन्दताके ये भी कारण हैं; परन्तु इनके साथ ही उनके अत्यन्त क्रत्रिम अप्राकृतिक लिखने पढने की ताडना भी कोई छोटा मोटा कारण नहीं है - यह भी एक जबर्दस्त कारण है । बिलकुल ही बचपन से पढ़ने लिखनेका पीसना शुरू कर दिया जाता हैं । इस ज्ञानलाभके साथ मनका योग या सम्बन्ध बहुत ही कम रहता है और यह ज्ञान आनन्द के लिए प्राप्त भी नहीं किया जाता - यह मुख्यतः प्राण या पेटके लिए और गौणरूपसे
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मानके लिए संग्रह किया जाता है। ऐसी दशामें इन ज्ञानियोंमें सहृदयता और साहजिक हँसी खुशीकी बातें कहाँसे आवे? . . . __जिस ज्ञानको हम मन लगाकर अच्छी तरह उपार्जन करते हैं, वह हमारे रक्तके साथ मिल जाता है और जिसे पुस्तकें रट करके प्राप्त करते हैं, वह बाहर लटक कर हमें एक तरह सबसे जुदा कर देता हैं । इस लटकते हुए ज्ञानको हम किसी तरह भूल नहीं सकते, इस लिए इससे हमारा अहङ्कार बढ़ जाता है और इस अहङ्कारमें जो थोडासा सुख है वही हमारा एक मात्र भरोसा है । हमें पुस्तके ज्ञानसे यदि कुछ आनन्द मिलता है, तो वह यही है । यदि हम ज्ञानके स्वाभाविक आनन्दको प्राप्त करते, तो हमारे लाखों शिक्षितोंमें और कुछ नहीं तो दशबीस मनुष्य अवश्य ही ऐसे दिखलाई देते जिन्होंने ज्ञानचर्चा के लिए अपने सारे स्वार्थोंको संकुचित कर लिया है। हम देखते हैं कि लोग इधर तो सायन्सकी परीक्षामें प्रतिष्ठाके साथ उत्तीर्ण होते हैं और उधर डिपुटी मजिस्ट्रेट बनकर अपनी सारी विद्याको आईन और अदालतकी गहरी निरर्थकतामें सदाके लिए विसर्जन कर देनेके लिए तैयार हो जाते हैं ! बहुतसे युवक बड़ी बड़ी डिगरियाँ केवल कन्याओंके हतभागे पिताओंको ऋणकी गहरी कीचडमें डुब मारनेके लिए प्राप्त करते हैं ! मानो, अपने जीवनमें वे इससे अधिक स्थायी कीर्ति और कुछ भी लाभ नहीं कर सकते ! देशमें इस तरहके शिक्षित कहलानेवाले वकील वैरिस्टर जज क्लर्क आदि तो ढेरके ढेर हैं; परन्तु ज्ञानतपस्वी कहाँ हैं ? उनके तो दर्शन ही नहीं होते। ___ बातों ही बातोंमें बात बहुत बढ़ गई । शिक्षाके विषयमें हमारा जो कुछ काव्य है उसका सार यह है-बालकोंके मनमें इस प्रकारका
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अन्ध संस्कार जमने ही न देना चाहिए कि पुस्तकें पढ़ने को ही सीखना कहते हैं । यह बात उन्हें पद पद पर जतलाते रहना चाहिए कि पुस्तकों में जो कुछ ज्ञान संचित है वह प्रकृतिके अक्षय भाण्डारमेंसे ही हरण किया गया है। अर्थात् मनुष्य, प्रकृतिके प्रत्यक्ष परिचयसे जो कुछ जानता है, उसे ही पुस्तकोंमें लिख जाता है । इस समय पुस्तकोंका उपद्रव बहुत ही अधिक बढ़ गया है, इसलिए इसे बहुत ही बढ़ाकर समझा देनेकी भी जरूरत है । अति प्राचीन कालमें लिपिका प्रचार हो जाने पर भी तपोवनों में पुस्तकोंका व्यवहार न हुआ था। उस समय गुरु मौखिक (जवान ) शिक्षा देते थे और शिष्य उस शिक्षाको नोट बुक या पाकेट बुक नहीं, किन्तु मनमें लिख लिया करते थे । इस तरह एक दीपशिखा से दूसरी और दूसरीसे तीसरी दीपशिखाके जलनेका क्रम जारी रहता था । यद्यपि इस समय ठीक वैसाका वैसा नहीं हो सकता है, तो भी जहाँ तक बने विद्यार्थियोंको पुस्तकों के आक्रमण से बचाये रखना चाहिए । बन सके तो छात्रोंको दूसरोंकी रचना पढ़नेको दी ही न जाय. वे गुरुके पास जो कुछ सीखें, उसीकी उनसे रचना कराई जाय । अर्थात् जिन बातोंके उन्होंने भली भाँति हृदयस्थ कर लिया हो, उन्हींको उनकी भाषामें लिपिबद्ध कराया जाय – बस, यही रचना उन्हें पढ़ने के लिए दी जाय । ऐसा होनेसे यह बात उनके मनमें भी कभी न आयगी कि ग्रन्थ आकाशसे पड़े हुए वेदवाक्य हैं । वे समझने लगेंगे कि जिस तरह हमने अपने विचार लिपिबद्ध कर लिये हैं, उसी तरह प्राचीन कालके विद्वान् भी अपने विचारोंको लिख गये हैं-ग्रन्थ ईश्वरके बनाये हुए नहीं है । " भारतवर्ष के मूलनिवासी अनार्य लोग हैं । आर्य लोग यहाँ मध्य एशियासे आये हैं ।" " ईसाके जन्मके दो हज़ार वर्ष पहले वेदोंकी रचना हुई थी ।" ये सब बातें हमने पुस्तकोंसे सीखी
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हैं। पुस्तकोंके अक्षर काटाकूटीसे रहित निर्विकार होते हैं । वे बचपन में हम लोगों पर एक प्रकारके सम्मोहन मंत्रका प्रयोग करते हैं और इसी लिए हम लोगोंके समीप उक्त सब बातें देववाणीके समान सर्वथा विश्वास योग्य बन गई हैं। बच्चोंको पहलेहीसे यह समझा देना चाहिए कि, ये सब आनुमानिक बातें हैं और थोडीसी युक्तियों पर इन सबका दारोमदार है। यदि बन सके, तो इन सब युक्तियोंके मूल उपकरण छात्रों के आगे रखकर उनकी खुदकी अनुमानशक्तिको उत्तेजित करना चाहिए । अर्थात् उन्हें इस योग्य बना देना चाहिए कि वे स्वयं भी इस तरहके नये नये अनुमान कर सकें । यदि वे पहलेहीसे अपने मनमें धीरे धीरे थोडा थोडा इस बातका अनुभव करते रहेंगे कि पुस्तकें किस तरह और कैसे कैसे अनुमान प्रमाणोंसे तैयार की जाती हैं, तो अवश्य ही वे पुस्तकोंका यथार्थ फल पालेंगे और उनके अन्धशासनसे अपना छुटकारा करा सकेंगे। साथ ही अपने स्वाधीन उद्यमके द्वारा ज्ञान प्राप्त करनेकी जो उनकी स्वाभाविक मानसिक शक्ति है, वह गर्दनके ऊपर बाहरसे बोझा लाद देनेवाली विद्याके द्वारा आच्छन्न और मूर्छित न होने पावेगी-पुस्तकोंके ऊपर उनके मनका स्वामित्व पूरा पूरा बना रहेगा । बालक थोड़ा बहुत जो कुछ सीखें, यदि सीखते समय उसका प्रयोग करना भी सीख लें, तो शिक्षा उनके ऊपर न चढ़ पावेगी-चे ही शिक्षाके ऊपर चढ़ बैठेंगे । इसमें सन्देह नहीं कि हमारी इस बातका अनुमोदन करनेमें लोग आनाकानी न करेंगे; परन्तु जब इसके अनुसार काम करनेका मौका आयगा, तब ठंडे हो जावेंगे । वे सोचेंगे कि बालकोंको शिक्षा इस तरहसे दी ही नहीं जासकती । यह बिलकुल असंभव है। ठीक ही है-ये लोग जिसे शिक्षा समझते हैं, वह इस तरह सचमुच ही नहीं दी जासकती । थोडीसी पुस्तकें तथा थोडेसे
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विषय नियत कर देना और नियत समयके भीतर नियत प्रणालीसे परीक्षा ले लेना, इसीको ये लोग विद्या सिखलाना कहते हैं और जहाँ इस प्रणालीसे शिक्षा दी जाती है, उसीको विद्यालय कहते हैं । उनकी समझके अनुसार मानो विद्या एक स्वतन्त्र (जुदा) पदार्थ है; उसे यदि देखना हो तो उनकी बुद्धिके अनुसार बालकके मनसे अलग-कुछ अन्तर पर देखना चाहिए । अर्थात् पुस्तकोंके पत्र अथवा अक्षरोंकी संख्या गिनकर बालकोंकी विद्याका हिसाब लगाना चाहिए। भले ही इस विद्यासे छात्रोंका मन पिचल जाय, भले ही वे पुस्तकोंके गुलाम बन जायँ, भले ही उनकी स्वाभाविक बुद्धि मूछित हो जाय, भले ही वे अपनी स्वाभाविक शक्तियोंके द्वारा ज्ञानको अधिकृत करनेकी शक्तिको अनाभ्यास और कष्टकर शासनके वश सदाके लिए खो बेठे, पर कहेंगे इसे विद्या । ___ बालकोंका मन जितनी शिक्षाके ऊपर अपना स्वामित्व जमा सके, उतनी ही शिक्षा-चाहे वह थोड़ी ही क्यों न हो-सच्ची शिक्षा है । और जो ' शिक्षा ' नाम धारण करके भी उनके मनको ढंक देती है उसे पढ़ाना भले ही कह लीजिए, पर शिक्षा या सिखाना तो उसे नहीं कह सकते । विधाताने जान लिया था कि आगे मनुष्य स्वयं अपने ही ऊपर अनेक अत्याचार करेगा । इस लिए उसने मनुष्यको पहलेहीसे बहुत मजबूत बना दिया है । इसी कारण गुरुपाक अखाद्य खाकर अजीर्ण भोगकर भी मनुष्य बचा रहता है और बचपनसे शिक्षाके असह्य कष्ट सहन करके भी बहुत विद्या प्राप्त कर लेता है
और उसके कारण गर्व तक करने लगता है ! अर्थात् हमारी शिक्षाप्रणाली इतनी कष्टकर है कि उससे हमारी मानसिक शक्तियोंका जीवित रहना ही कठिन था, परन्तु विधाताने हमारी इस शक्तिको
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संसार और मोक्ष। जैनधर्म के अनुसार संसार और मोक्ष दोनों अनादि कालसे हैं। इस धर्मके सिद्धान्तकी अपेक्षा संसार और परमात्मा ये दोनों ही सदैवसे विद्यमान हैं। कोई समय ऐसा नहीं हुआ कि जिसमें कोई न कोई जीव संसारी और कोई न कोई जीव मुक्त अर्थात् परमात्माकी दशामें न हो। कुछ मतावलम्बियोंका यह सिद्धान्त है कि प्रारम्भमें केवल एक ब्रह्म ही था, पश्चात् उसने यह समस्त संसार अपनी इच्छा व मायासे उत्पन्न किया । परन्तु जैनधर्मावलम्बियोंका यह श्रद्धान नहीं है । जैनधर्मका उपदेश है कि जो कुछ इस संसार में है, वह सदास है और सदा रहेगा। इस धर्मका सिद्धान्त यह है कि अस्तिसे नास्ति और नास्तिम अम्तिका प्रादु
र्भाव कदापि नहीं होता । जिस वस्तुका अस्तित्व है, उसका की नाश नहीं होता और जो नास्तिरूप है, उसका कभी अस्तित्व नहीं हो सकता। कोई वस्तु कभी उत्पन्न नहीं हुई । जो वस्तु है वह सदासे है और सदा रहेगी। केवल उसकी पर्यायमें परिवर्तन होता : रवीन्द्रबाबूके बंगला निवन्धका अनुवाद ।
१ नोट- बाबू ऋषभदास जी वी, ए. के उदै लेख का जनप्रदीप से अनुवाद किया गया।
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रहता है । इसीका नाम हम संसारियोंने जन्म मरण रख छोड़ा है; परन्तु इस परिवर्तनका कारण परमात्मा नहीं है इसका कारण वस्तुस्वभाव और एक वस्तुका दूसरी वस्तु पर प्रभाव है।
संसार और जो कुछ संसारमें है, सब द्रव्यका बना हुआ है। द्रव्यका स्वरूप जैनसिद्धान्तानुसार सत् है। "सद्रव्यलक्षणं" जैनधर्मका सूत्र है। सत् , उत्पाद व्यय और ध्रौव्यरूप होता है । ये तीनों गुण द्रव्यमें पाये जाते हैं। द्रव्यकी पर्यायोंका सदैव उत्पाद व्यय होता रहता है; परन्तु द्रव्य सदा ज्योंका त्यों रहता है। इस प्रकार द्रव्यमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ये तीनों गुण सदैव पाये जाते हैं। इसका उदाहरण इसप्रकार है,-स्वर्ण एक धातु है। उसके भिन्न भिन्न आभूषण बन सकते हैं। कड़े बना लिये । फिर उनको गला कर हार बना लिया। फिर हारको गलाकर कुंडल बना लिये । गरज यह कि उस सोनेकी पर्यायके परिवर्तनसे उसमें उत्पाद और व्ययका होना कह सकते हैं, परन्तु स्वर्णधातुका प्रत्येक अवस्थामें अस्तित्व है। अतएव स्वर्णकी अपेक्षा उसमें ध्रुवता है। इस प्रकार स्वर्णमें उत्पाद, व्यय ध्रौव्य तीनों गुण पाये गये । इसी तरह आत्मा द्रव्य है। यह कभी नरक पर्यायमें जाता है, कभी वनस्पतिके रूपमें उत्पन्न होता है, कभी पशुपक्षीकी योनिमें जन्म लेता है, कभी मनुष्य हो जाता है और कभी देव बनकर स्वर्गमें पहुँच जाता है। इस प्रकारसे एक पर्यायमें मरता है, दूसरी पर्यायमें जन्म लेता है; परन्तु वास्तवमें जीव सदैवसे है, न कभी मरता है और न कभी पैदा होता है, यह उत्पाद, व्यय केवल जीवकी पर्यायोंमें होता है। केवल व्यवहार रूपसे जीवका जन्म: मरण कहा जा सकता है । निश्चयसे जीव अजर, अमर, अनादि,
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अनंत है; परन्तु चूँकि पर्याय जीवसे पृथक् नहीं है इस कारण जब उत्पाद व्यय पर्यायसे होता है तब उसके कारण उत्पाद व्ययका जीवमें कहना भी अनुचित नहीं है। भावार्थ-निश्चय, व्यवहार नयकी अपेक्षासे जीवद्रव्यमें उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य तीनों गुण पाये जाते हैं और द्रव्य पर्याय गुणको लिये होता है । जैसे पीतवर्ण स्वर्णका गुण है और कड़े व हार इत्यादि उसकी पर्यायें हैं । इसी प्रकार ज्ञान जीवका गुण है और पशुपक्षी मनुष्य, देवादि जीवनी, पर्यायें हैं। सारांश यह है कि जैनधर्मानुसार समस्त संसार द्रव्यसे बना हुआ है और द्रव्य सत् रूप होता है और गुण व पर्यायको लिये होता है और उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य उसमें पाये
जाते हैं।
___ अब प्रश्न यह होता है कि द्रव्य.एक है या अनेक हैं। इसका उत्तर जैनधर्म यह देता है कि द्रव्य एक भी है और अनेक भी हैं। द्रव्य होनेकी अपेक्षासे द्रव्य एक है। द्रव्य जहाँ तक उसके सद्धर्मका सम्बन्ध है एक है । अगर द्रव्यको उसके द्रव्यत्वकी अपेक्षासे देखा जाय तो एक है, परन्तु जब अन्य गुणोंकी अपेक्षासे देखा जाता है, तो उसके अन्य भेद हो जाते हैं। जैसे जब ज्ञान व चेतनाशक्तिका अपेक्षा विचार करते हैं, तब द्रव्यके जीव व अजीव ये दो भेद हो जाते हैं। जिस द्रव्यमें ज्ञान व चेतना पाई जाती है, वह जीव है और जिसमें ये गुण नहीं पाये जाते, वह अजीव है। अजीवके अन्य गुणोंकी अपेक्षा पाँच भेद हैं:-पुद्गल, काल, आकाश, धर्म और अधर्म।।
जीव या आत्मा। . . जीव या आत्मद्रव्य अकृत्रिम, अविनाशी, अनादिनिधन, अखंड है। यह संसारी और मुक्त दो अवस्थाओंमें पाया जाता
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है। संसारी जीवके भी उसकी अवस्थापेक्षया बहिरात्मा और अन्त. रात्मा ये दो भेद हैं। जो जीव राग, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, मान, मायामें अधिक फँसा है, जिससे बुरे विचार, बुरे शब्द और बुरे कार्य अधिक होते हैं, वह बहिरात्मा है । इससे विपरीत जो स्व और परके भेदको जानता है, जिसकी इच्छायें व कषायें मन्द हैं, शुभ विचारों और शुभ कार्योंमें जिसका मन लगा रहता है वह अन्तरात्मा है । मुक्त जीव या परमात्मा अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य और अनन्त सुखका धारक है, अमूर्तीक है, अव्याबाध है । अगुरलघु है, अर्थात् हल्का भारी नहीं है । अतएव उसको किसी टेविल व कुर्सीकी जरूरत नहीं है और अवगाहन शक्तिका धारक है अर्थात् किसी वस्तुसे वह रुक नहीं सकता और कोई वस्तु उसको काट नहीं सकती। वह वीतराग, सर्वज्ञ और परमानन्द है। ___ संसारी जीव उपयोगमयी, अमूर्तीक, कर्ता, देहपरिमाण अर्थात् शरीरके बराबर रहनेवाला, भोक्ता अर्थात् कर्मफलका भोगनेवाला और जन्ममरण करनेवाला है। __ जीवका स्वभाव ज्ञान है । स्वभाव वस्तुके उस गुणको कहते हैं कि जिससे वस्तुका अस्तित्व है, जो वस्तुसे कभी पृथक् नहीं होता
और जो कभी और वस्तुमें नहीं पाया जाता। अतएव ज्ञान जीवका ऐसा गुण है जो जीवके अस्तित्वको प्रगट करता है, जो जीवसे कभी पृथक् नहीं होता और जो और किसी वस्तुमें भी नहीं पाया जाता । ज्ञानके कारणहीसे जीव अन्य द्रव्योंसे पृथक् पहचाना जाता है । ज्ञान प्रत्येक जीवमें-चाहे वह संसारी हो चाहे मुक्त-पाया जाता है। अन्तर केवल इतना है कि मुक्त जीवमें
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पूर्ण ज्ञान अर्थात् केवलज्ञान पाया जाता है। मुक्तजीव एक ही समयमें समस्त संसारकी भूत, भविष्यत्, वर्तमान समस्त वस्तुओंको जानता है। मुक्त जीव सर्वज्ञ है; परन्तु संसारी जीव सर्वज्ञ नहीं है । वह इंद्रियोंद्वारा पदार्थको जानता और देखता है। उसका ज्ञान परिमित है | मुक्त जीवका ज्ञान अनन्त, अपरिमित है । समस्त ब्रह्माण्डकी वस्तुओं में फैला हुआ है । संसारी जीवको केवल उतना ही ज्ञान है जितना इन्द्रियोंद्वारा उसको गम्य है । उसकी आँखों से बचाकर यदि कोई पदार्थ रक्खा जाय, तो वह यह नहीं बतला सकता कि वह क्या पदार्थ है । वास्तवमें प्रत्येक जीव में सर्वज्ञ होनेकी शक्ति है । निज स्वभावकी अपेक्षा जीव मात्र सर्वज्ञ है । मुक्त जीवमें यह स्वभाव व्यक्तरूप है । संसारी जीवमें केवल शक्तिरूप है; व्यक्तरूप नहीं । अर्थात् छिपा हुआ है । अब देखना यह है कि संसारी जीवकी यह दशा क्यों हो रही है और जिस कारण से उसकी यह दशा हो रही है, वह किसी उपायसे दूर भी हो सकता है । इससे पूर्व कि इस विषयपर विशद रूपसे विवेचन किया जाय यह आवश्यक है कि अजीव द्रव्यके गुण स्वभावका ज्ञान हो जाय । जैसा ऊपर कह आये हैं, अजीव द्रव्यके पाँच भेद हैं - अर्थात् पुद्गल, काल, आकाश, धर्म, अधर्म ।
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पुद्गल ।
पुद्गल वह द्रव्य है कि जिसमें ज्ञान नहीं है। चेतनाशक्ति से रहित है, मूर्तीक है और मिलने बिछुड़ने की योग्यता रखता है । अर्थात् कभी तो पुद्गलसे पुद्गल मिलकर कोई एक पदार्थ बन जाता है और कभी पुद्गलसे पुद्गल पृथक होकर उस पदार्थके खंड खंड हो जाते हैं । पुद्गल द्रव्य भी अपने द्रव्यत्वकी अपेक्षा अविनाशी है । उसके
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किसी भी परमाणुका अभाव नहीं हो सकता । स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण पुद्गल द्रव्यक्के अस्तित्वको प्रगट करते हैं । ये गुण ऐसे हैं कि जो और द्रव्यमें नहीं पाये जाते । ये पुद्गल के स्वभाव हैं । स्पर्शके आठ भेद हैं:- कड़ा, नर्म, रूखा, चिकना, ठंडा, गर्म, हल्का, भारी । प्रत्येक पुद्गलमें कुछ न कुछ स्पर्श अवश्य होगा, कुछ न कुछ रस अवश्य होगा, सुगन्धि व दुर्गन्धि अवश्य होगी और एक न एक वर्ण भी होगा। गरज यह कि पुद्गल स्पर्श, रस, गन्ध, और वर्ण इन चार गुणों से रहित कभी नहीं हो सकता । इसमें सन्देह नहीं कि कुछ पदार्थ ऐसे हैं और वे ऐसे परमाणुओंसे बने हुए हैं कि जिनमें चारों गुणोंकी अधिकता है और कुछ पदार्थ ऐसे परमाणुओं से बने हुए हैं कि जिनमें तीन व दो व एक ही गुणकी अधिकता है। जैसे धातु, पाषाण, मिट्टी ऐसे पदार्थों से बने हुए हैं कि जिनमें साधारणतः स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण चारों गुणोंकी अधिकता है । जलमें स्पर्श, रस, वर्णकी अधिकता है । वायुमें केवल स्पर्शकी अधिकता है।
शुद्ध पुद्गल परमाणु है । परमाणु इतना छोटा होता है कि उसके और खंड नहीं हो सकते । परमाणु अखंड है । परमाणुमें ये चारों गुण अर्थात् स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण होते हैं। किसी में कोई गुणं न्यून कोई अधिक या किसी में एक गुण जैसे स्पर्शके भेदों में से कोई भेद कम और कोई अधिक होता है । परमाणुओंके संयोग से स्कन्ध व समस्त पदार्थ पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आदि बनते हैं ।
परमाणु इतना सूक्ष्म है कि हमको आँखसे दिखाई नहीं देता । हम केवल स्कन्धको देखते हैं । अब प्रश्न यह होता है कि परमाओंका किस कारण से मिलना बिछुरना होता है। इसका कारण स्पर्शके दो गुण हैं - १ चिकनाहट और २ खुरदरापन । पर
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माणुओंका मिलना, बिछुरना इस चिकनाहट और खुरदरेपनके कारणसे ही होता है। जिन दो परमाणुओंमें ये दोनों गुण समान एकही प्रकारके होते हैं, वे परमाणु आपसमें नहीं मिलते । अर्थात् यदि एक परमाणुमें इतना चिकनाहट है जितना दूसरेमें है, तो वे दोनों परमाणु एक साथ नहीं मिलेंगे और यदि एक परमाणुमें इतना खुरदरापन है कि जितना दूसरेमें तो वे परमाणु भी आपसमें | नहीं मिलेंगे और यदि एक परमाणु इतना "चिकनाहट है कि : जितना दूसरेमें खुरदरापन है तो भी उनका आपसमें मेल नहीं हो सकेगा; परन्तु यदि एककी चिकनाहट दूसरेके खुरदरेपनसे दो गुण (दर्ने ) अधिक है, तो ये दोनों परमाणु एक दूसरेकी ओर आकर्षित होंगे और मिल जायेंगे । संसारमें समस्त पदार्थोंका . बनना और बिगडना इसी सिद्धान्त पर निर्भर है और समस्त पदा- . थोंके परमाणुओंका आपसमें मिला रहना व जुदा जुदा होना इसी सिद्धान्तके आधार पर है। ___ पुद्गलस्कन्ध छह प्रकारके हैं:-- १ वादरवादर जैसे पत्थर, लकड़ी, मिट्टी वगैरह । २ बादर जैसे दूध, पानी वगैरह । ३ बादरसूक्ष्म जैसे धूप, चाँदनी वगैरह । ४ सूक्ष्म बादर जेसै शब्द, गन्ध आदि । ५ सूक्ष्म जैसे आठःप्रकारके ज्ञानावरणीय आदि कर्म अर्थात् वह सूक्ष्म पुद्गल कि जिसका बन्धन आत्माके साथ आत्माके रागद्वेषके कारण होता है। ६ सूक्ष्म सूक्ष्म जैसे परमाणु । __ हम संसारमें जो भाँति भाँतिके नीले, पीले रंग देखते हैं, खट्टे, मीठे, कडवे आदि रस चखते हैं, तरह तरहकी गन्ध सूंघते हैं, कोमल, कठोर, शीत, उष्णादिका जो अनुभव करते हैं और मीठे, सुरीले जो शब्द सुनते हैं, यह सब पुद्गल द्रव्यका खेल है । ये
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सब गुण और पर्यायें पुदगलकी ही हैं । शब्द भी पुद्गल द्रव्यकी पर्याय है । कुछ मतावलम्बियोंने शब्दको आकाशका गुण माना है, परन्तु जैनधर्ममें इसको आकाशका गुण नहीं कहा है। क्योंकि आकाश अमूर्तीक द्रव्य है और शब्द मूर्तीक नहीं है । कारण कि शब्द भीत आदि पौद्गलिक पदार्थोंसे रुक जाता है। इस हेतुसे ऐसी वस्तु जो स्वंय मूर्तीक हो, अमूर्तीकका गुण नहीं हो सकती। जैनधर्मावलम्बी शब्दको पुद्गलकी एक पर्याय विशेष बतलाते हैं। जब एक पुद्गल स्कन्ध दूसरे पुद्गलस्कन्धसे टकराता है, तब कुछ परमाणु एक पर्यायविशेषको धारण कर लेते हैं कि जिसका नाम शब्द है।
काल। दूसरा अजीव द्रव्य काल है। काल भी अनादि और अविनाशी है । इसका स्वभाव अन्य द्रव्योंको प्रवर्तानेका है। वर्तना इसका लक्षण है । नई वस्तुको पुरानी और पुरानीको नई करना, इसका काम है । जैनधर्मके अनुसार कालके दो भेद हैं । निश्चयकाल और व्यवहार काल, परन्तु व्यवहार काल वास्तवमें कोई पृथक् द्रव्य नहीं है-निश्चयकालकी ही पर्याय है। निश्चयकाल समस्त लोकमें व्याप्त है । निश्चयकाल उन कालके अणुओंका नाम है, जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्डमें भरे हुए हैं और जिनका काम पदार्थोंको बदलनेका है । आकाशके प्रत्येक प्रदेश ( आकाशका वह छोटेसे छोटा भाग जिसका फिर भाग न हो सके )पर एक कालाणु स्थित है। यह कालाणु भी अत्यंत सूक्ष्म अमूर्तीक पदार्थ है कि जिसको हम इंद्रियों द्वारा नहीं जान सकते । कालाणुके टुकड़े भी नहीं हो सकते । निश्चय काल द्रव्य यह है । इसीकी भिन्न भिन्न
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पर्यायोंका नाम व्यवहार काल है कि जिनको हम घंटा, दिन, महिना, साल वगैरह करते हैं । पुद्गल परमाणु जितनी देर में अत्यन्त सूक्ष्म गति से एक कालाणु से दूसरे कालाणु पर जाता है, उतनी देरका नाम समय है । समय वक्तका सबसे छोटेसे छोटा भाग है । व्यवहार कालका हिसाब पुद्गलकी क्रिया पर किया गया है । संख्यात समयकी एक आवली होती है और तीन हजार सात सौ तेहत्तर (३७७३ ) उस्वासों का एक मुहूर्त होता है । ३० मुहूर्तका एक दिन होता है । १५ दिनका एक पक्ष, दो पक्षका एक महीना और १२ महीने का एक वर्ष होता है। वर्षोंकी एक गणना विशेषका — जिसकी संख्या जैन शास्त्रों में लिखी हुई है - एक पल्य होता है । १० करोड़ पल्यका एक सागर और दस कोड़ाकोड़ी सागरका एक अवसर्पिणी वा उत्सर्पिणी काल होता है। एक अवसर्पिणी और एक उत्सर्पिणी मिलकर अर्थात् वीस कोड़ीकोड़ी सागरका एक कल्पकाल होता है । अनादि काल से इस तरहके अनन्ता - नना कल्प बीत गये और आगेको बीतेंगे । भावार्थ, काल अनादि अनन्त है। न इसका आदि है न अन्त। इसकी कुछ संख्या वा सीमा नहीं हो सकती। आत्मा जब पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेता हैं अर्थात् परमात्मा हो जाता है, उस समय उसकी पूर्णता उसके ज्ञानमें झलकती है। बुद्धि और शब्दके द्वारा तो जितना कथन हो सकता है, उतना ही कथन किया जाता है। उसका पूरा ज्ञान तो केवलज्ञान प्राप्त होने पर ही होता हैं ।
आकाश ।
तीसरा अजीव द्रव्य आकाश है । आकाशं भी अनादि, अविनाशी, अनन्त और अखंड है । इसका स्वभाव अन्य द्रव्यों और
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पदार्थोंको स्थान देनेका है। संसारकी समस्त वस्तुयें इसके अन्दर समाई हुई हैं । इसकी कोई सीमा नहीं। यह हर तरफ़को बेहद चला गया है। आकाश सर्वत्र फैला हुआ है और जीव, पुद्गल, काल, धर्म, अधर्म सबको अपनेमें समाये हुए है । यह ज्ञानरहित है अर्थात इसमें जानने, देखनेकी शक्ति नहीं है.। जीव ही इसको व अन्य पदार्थों को जानता है।
धर्म । यह भी एक सूक्ष्म द्रव्य है जो सर्वत्र फैला हुआ है। इसका स्वभाव यह है कि यह जीव और पुद्गलकी गतिमें उदासीन रूपसे सहायता देता है। जिस तरह दरियामें पानी मछलीको चलनेमें मदद देता है, उसी प्रकार यह धर्म द्रव्य जीव और पुद्गलको मदद देता है।
अधर्म। यह द्रव्य भी अत्यंत सूक्ष्म है और समस्त संसारमें फैला हुआ है। इसका स्वभाव यह है कि जीव पुद्गलके ठहरनेमें सहायता देता है । जिस तरह मुसाफिर ( पथिक ) धूपमें चलते चलते किसी वृक्षकी छायाके नीचे ठहर जाता है और छाया उसको ठहरनेमें सहायता देती है, उसी तरह जब जीव, पुद्गल और आकाशमें क्रियारहित होकर ठहरते हैं, तब यह अधर्म द्रव्य ठहरनेमें सहायक होता है।
इस प्रकार जैन धर्मानुसार ये छह द्रव्य सारे जगतको बनाये हुए हैं। ये छहों द्रव्य किसी समयविशेषमें उत्पन्न नहीं हुए, किन्तु अकृत्रिम, अनादि और अविनाशी हैं। अर्थात् न कभी इनका अभाव था और न कभी इनका अभाव होगा। सदासे हैं और सदा रहेंगे।
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इनमें से जीवका स्वभाव अन्य पाँचों द्रव्य और स्वयँ अपनेको जाननेका है । अन्य पाँचों द्रव्य न अपनेको जान सकते हैं और न किसी दूसरेहीको । जीव ज्ञाता है और शेष पाँच द्रव्य ज्ञेय हैं। जीवका यह स्वभाव है कि अपने आपको, शेष पाँचों द्रव्योंको और छहों द्रव्योंकी भूत, भविष्यत्, वर्तमान कालकी समस्त पर्यायों और गुणोंको एक ही समयमें जाने। स्वभाव सर्वज्ञता है, परन्तु संसारी जीवका यह स्वभात छि
तेह- . है, प्रगट नहीं है । संसारी जीवका स्वभाव विभावरूप हो रहा है. संसारी जीवको जो कुछ ज्ञान होता है, वह इन्द्रियोंके द्वारा ही होता है। संसारी जीव इन्द्रियों के अधीन हैं। वह आँखके बिना किसी चीजको नहीं देख सकता, कानके बिना कोई शब्द नहीं सुन सकता, जिह्वा पर रक्खे बिना किसी चीज़का स्वाद नहीं जान सकता, नाकके बिना सुगन्धि दुर्गन्धिकी पहचान नहीं कर सकता
और सामने रक्खी हुई, चीजको जबतक हाथसे नहीं छूता, यह नहीं बतला सकता कि यह कड़ी है या नर्म, ठंडी है या गर्म । किसी आदमीको एक ऐसे मकानमें बन्द कर दिया जाय कि जो हर तरफसे बन्द हो और जिसमें केवल छोटे छोटे छिद्र हों जिनमें होकर कुछ कुछ हवा और रोशनी जाती हो । अब अनुमान किया जा सकता है कि उसको बाहरकी दुनियाका कितना ज्ञान होगा और वहाँ बन्द रहनेसे उसका स्वास्थ्य कैसा रहेगा । यही हाल इस संसारी जीवका है। यह कर्मों के बन्धनमें बँधा हुआ है, इसी कारण अपने गुण अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य, अनंत सुखको खोये हुए हैं। अब देखना यह है कि जीवके साथ कर्मोंका बन्धन किस प्रकार हो रहा है।
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अनादि कालसे युद्गलका जीवसे सम्बन्ध है और संसारी जीवमें मोह और राग द्वेप पाया जाता है ! संसारी आत्मा एक वस्तुसे गग करता है और दूसरीसे द्वेप करता है । किसी पदार्थको अपना हितकारी समझता है, किमीको हानिकर जानता है ! किसीको अपना मित्र समजता है, किसीको शत्र मानता है । इस प्रकार अपने असली गुणको भूले हुए है। पर पदार्थको अपना मानता है। जितने काम, क्रोध, लोभ, मान, माया आदि बुरे विचार होते हैं, वे सब गम द्वेपके ही कारण होते हैं। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील आदि जितने बुरे काम होते हैं उन सबकी जड भी राग द्वेष है । इस राग द्वेपके कारण ही पुदलका जीवके साथ संयोग है। वास्तवमें कर्म दो प्रकारका है-भाव कर्म और द्रव्यकर्म । रागद्वेष-- रूप जो जीवके भाव हैं, वे भावकर्म हैं। पुद्गल परमाणु जो आत्माके साथ अघनरूप हो रहे हैं, वे द्रव्यकर्म है। भावकर्म, और द्रव्यकर्ममें निमित्त नैमित्तिक संबंध है । भावकर्म द्रव्यकर्मके कारण और
व्यकर्म भावकर्म के कारण हैं । जीवका असली स्वभाव ज्ञान है; परन्तु द्रव्यकर्म के प्रभावसे यह नान रागद्वेषरूप हो रहा है और रागद्वेपके कारण नवीन व्यकर्म आत्माकी तरफ खिंचकर उसके माथ वैधता है ! दव्यकर्म माम पटलपरमाणुओंका अनुदाय है जिपका स्वभाव यह है कि जीवके असली स्वभावको नष्ट करके उसमें तरह तरहक पर देश के भाव पैदा कर देता है ! यह मुदल परमाणुओं का समुदाय अनेक प्रकारका है । संसारी जीयों की समस्त पयायों का यहीं कारता है । कर्मों के मुख्य आठ भेद हैं। पहला मेड लानावरणीय कर्म है यह वह कर्म है कि जिसका स्वभाव आत्माके वास्तविक ज्ञान और पर्वजपनेको रोकने ढंकनेका है। यदि आत्मामें उस कर्मकी अधिकता है. तो आत्माके ज्ञानमें न्यूनता होगी और यदि उस कर्मकी आत्मामें न्यूनता है, तो उसके ज्ञानमें
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३६८ अधिकता होगी। अर्थात् आत्मामें ज्ञानका न्यून वा अधिक होना आत्मामें ज्ञानावरणीय कर्मके न्यून या अधिक होनेपर निर्भर है । दूसरा कर्म दर्शनावरणीय है। इसका यह स्वभाव है कि यह आत्माकी देखनेकी शक्तिको रोकता है। आत्मामें देखनेकी शक्तिका न्यूनाधिक होना इसी कर्मके न्यूनाधिक होने पर निर्भर हैं। तीसरा कर्म मोहिनीय है । इसका स्वभाव यह है कि । आत्माको संसारके मोहमें फँसाकर आत्मानुभव और आत्म सुखसे वंचित रखता है। चौथा कर्म अन्तराय है । इसका पर स्वभाव है कि यह आत्माको उसकी शक्तियोंको स्वतन्त्रतापूर्वक व्यवहारमें लानेसे रोकता है-उनमें बाधा डालता है । ये चार कर्म घातिया कर्म कहलाते हैं । क्योंकि ये जीवके असली स्वभाव
और उसकी असली शक्तिको नष्ट करते हैं । पाँचवाँ कर्म आयु है । इसका यह यह स्वभाव है कि यह जीवको किसी शरीरमें नियत समयतक रखता है। आयुकी संख्या इसी कर्मप्रकृतिके परमाणुओंकी संख्या पर निर्भर है । छट्ठा कर्म वेदनीय है । इसका काम आत्माके लिए दुनिया सुखदुखकी सामग्री इकट्ठा करना है । कोई आदमी तो दुनियामें बड़े धनी और सुखी देखे जाते हैं, कोई कोई दुःखी, रोगी और निर्धन देखने में आते हैं। यह सब इस वेदनीय कर्मका खेल है। सातवाँ कर्म नाम है। इसके उदयसे शरीरके अगोपांग, आकृति, रूप, रंग आदि बनते हैं। आठवाँ कर्म गोत्र है जिसके उदयसे उच्च, नीच कुलमें जन्म होता है। इस प्रकार जीवकी समस्त संसारी अवस्थायें इन कर्मों के कारण होत हैं। जब जीव राग द्वेषको नष्ट करके कर्मों पर विजय पाता है उस समय यह निजस्वरूप अर्थात् परमात्मपदको प्राप्त कर लेत है। इसी का नाम मोक्ष है।
दयाचंद्र गोयलीय, बी. ए.।
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३६९ श्रीकुन्दकुन्दाचार्य। “हुए, न हैं, न होहिंगे, मुनींद्र कुंदकुंद से।"
-वृन्दावन। दिगम्बरजैनसम्प्रदायमें सबसे अधिक पूज्यता और महत्ता श्रीकुन्दकुन्दाचार्यको प्राप्त है। बड़े बड़े विद्वानों और आचार्योने जहाँ जहाँ अपना परिचय दिया है, वहाँ वहाँ यह कहनेमें अपना सौभाग्य समझा है कि हम कुन्दकुन्दके अन्वयमें, वंशमें, या उनके अनुयायी हैं। हमारे सम्प्रदायमें उन्हें वही प्रतिष्ठा प्राप्त है, जो किसी तीर्थप्रवर्तक या धर्मसंस्थापकको दी जाती है। जैनधर्मके असली उद्देश्योंकी
और उसकी पवित्रताकी रक्षा करनेवालोंमें भगवान् कुन्दकुन्द सर्वप्रधान हैं । इस समय दिगम्बर सम्प्रदायका सबसे अधिक भाग कुन्दकुन्दकी ही आम्नायका अनुयायी है । यह सब होने पर भी बड़े ही खेदका विषय है कि हम-कुन्दकुन्दस्वामी कौन थे, कब हुए हैं और कहाँ हुए हैं-यह भी नहीं जानते । उनके विषयमें हमें जो कुछ ज्ञान परम्परासे प्राप्त हुआ है, वह बहुत ही भ्रमपूर्ण है । विद्वानोंको इस
ओर सावशेष लक्ष्य देना चाहिए और परिश्रम करके कुन्कुन्दस्वामीका वास्तविक परिचय प्रकट करना चाहिए।
इस विषयमें हमने जो कुछ छानबीन की है, उसका सारांश इस लेखके द्वारा प्रकट कर दिया जाता है।
. नामविचार। __ आचार्यप्रवर कुन्दकुन्दका मुख्य और प्रथम नाम पद्मनन्दि था। परन्तु इनकी सबसे अधिक प्रसिद्धि — कोण्डकुन्द' या 'कुन्दकुन्द' के नामसे है। ये कोण्डकुण्ड नामक नगरके रहनेवाले थे। इसीलिए जान
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पड़ता है कि इनका यह नाम प्रसिद्ध हो गया है । ' कोडकुण्ड शब्द कनडी भाषाका है। यह कुछ कर्णकटु मालूम होता है । इसे संस्कृतकवियोंने श्रुतिमधुर कुन्दकुन्दके रूपमें बदल दिया है । श्रीइन्द्रनन्दिसूरिकृत श्रुतावतारमें लिखा है किः--
एवं द्विविधो द्रव्यभावपुस्तकातः समागच्छन् । गुरुपरिपाट्या ज्ञातः सिद्धान्तः कुण्डकुण्डपुरेश्रीपद्मनन्दिमुनिना सोऽपि द्वादशसहस्रपरिमाणः। ग्रन्थपरिकर्मकर्ता षट्खण्डायत्रिखण्डस्य ॥ १६१ ॥ इन श्लोकोंसे श्रीपद्मनन्दिमुनिका निवासस्थान 'कुण्डकुण्डपुर' मालूम होता है । कर्णाटकमें और भी कई आचार्य ऐसे होगये हैं जो अपने निवासस्थानके नामसे प्रसिद्ध हैं। जैसे कि तुम्बुलूराचार्य । इनका वास्तविक नाम संभवतः वर्धदेव था; परन्तु तुम्बुलूर ग्राममें निवास होनेके कारण ये इसी नामसे अधिक प्रसिद्ध हैं। श्रुतावतारमें इनका उल्लेख करते समय लिखा है:--"अथ तुम्बुलूरनामाऽचार्योsभूत्तुम्बुलूरसग्रामे।"
श्रवणबेलगुलके ९ वें और १० वें शिलालेखमें कुन्दकुन्दाचार्यका जिक्र आया है। उनमें इनका सिर्फ इन्हीं दो नामोंसे उल्लेख किया है । और भी कई ग्रन्थोंमें इनके ये ही दो नाम मिलते हैं । परन्तु नन्दिसंघकी पट्टावलीमें इनके पाँच नाम बतलाये गये हैं:-१ कुन्दकुन्द, २ वक्रग्रीव, ३ एलाचार्य, ४ गृध्रपिच्छ, और ५ पद्मनन्दि । यथाः
...................... ततोऽभवत्पञ्चसुमामधामा श्रीपद्मनन्दीमुनिचक्रवर्ती ॥ आचार्यो कुन्दकुन्दाख्यो, वक्रग्रीवो महामतिः।
एलाचार्यो गृध्रपिच्छः, पद्मनन्दीति तन्नुतिः॥४॥ . अर्थात् पट्टावलीमें गृध्रपिच्छ, वक्रग्रीव और एलाचार्य ये तीन नाम अधिक हैं।
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पट्टावलियोंमें जगह जगह सन्देह होते हैं । ऐसा मालूम होता है के प्राचीन पट्टावलियाँ लुप्त हो गई हैं और उनके स्थानमें अभी सौ दो मी वर्ष पहलेके भट्टारकोंने कुछ अनमानसे, कुछ कल्पनासे और कुछ पुराने नोटोंसे ये पट्टावलियाँ गढ़ ली हैं । इस लिए इनमें बीसों बातें यथार्थतासे बिलकुल विरुद्ध पाई जाती हैं । नन्दिसंघकी पट्टावली भी ऐसी ही है । इसमें बतलाया हुआ — गृध्रपिच्छ' नाम कुन्दकुन्दका नहीं, किन्तु उमास्वामि या उमास्वातिका दूसरा नाम है । इसकी साक्षीमें बीसों प्रमाण दिये जा सकते हैं । यथा2--तत्वार्थसूत्रकर्तारं गृध्रपिच्छोपलक्षितम् । बन्द गणीन्द्रसंजातमुमास्वामिमुनीश्वरम् ॥
-तत्त्वार्थप्रशस्ति । २-तस्यान्वये भृविदिते बभूव यः पद्मनन्दिप्रथमाभिधानः ।
श्रीकुन्दकुन्दादिमुनीश्वराख्यः सत्संयमादुद्गतचारणर्द्धिः॥४॥ अभूदुमास्वातिमुनीश्वरोऽसावाचार्यशब्दोत्तरध्रपिच्छः । तदन्वये तत्सदृशोस्ति नान्यस्तात्कालिकाशेषपदार्थवेदी॥५॥
-श्रवणबेलगुलका ४० वा लेख । ३-तदीय वंशाकरतः प्रसिद्धादभूददेषा यतिरत्नमाला ॥
बभौ यदन्तर्मणिवान्मुनीन्द्रग्स कुण्डकुण्डोदितचण्डदण्डः॥१० अभूदुमास्वातिमुनिः पवित्रे वंशे तदीये सकलार्थवेदी॥ सूत्रीकृतं येन जिनप्रणीतं शास्त्रार्थजातं मुनिपुंगवेन॥ ११ ॥ स प्राणिसंरक्षणसावधानो बभार योगी किल गृध्रपक्षानू तदा प्रभृत्येव बुधा यमाहुराचार्यशब्दोत्तरगृध्रपिच्छम् ॥१२॥
-मंगराजकविकृत शिलालेख । इनके सिवा और भी कई प्रमाण हैं जो आगे अन्यान्य प्रसंगोंमें दिये जायेंगे। इससे साफ मालूम होता है कि कुन्दकुन्दका नाम गृध्रपिच्छ नहीं था।
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'वक्रग्रीव' नामका उल्लेख भी पट्टावलीको छोड़कर अन्यत्र कहीं नहीं मिलता है । इस नामके एक और अत्यन्त प्रसिद्ध आचार्य हो गये हैं, जिनका उलेख श्रवणबेलगुलकी मल्लिषेणप्रशस्तिमें मिलता है:
वक्रग्रीवमहामुनेर्दशशतग्रीवोऽप्यहीन्द्रो यथाजातं स्तोतुमलं वचौ बलमसौ किं भग्नवाग्मिव्रजम् ॥ योऽसौ शासनदेवताबहुमतो हीवक्रवादिग्रह- .
ग्रीवोऽस्मिन्नथशब्दवाच्यमवदन्मासान्समासेन षट् ॥ ____अर्थात् " महामुनि वक्रग्रीवके बड़े बड़े वक्ताओंको हटा देनेवाले वचन बलकी स्तुति हजार प्रीवावाला धरणेन्द्र भी नहीं कर सकता है। शासनदेवीने उन्हें बहुत माना था। उन्होंने लगातार छह महीने तक 'अथ' शब्दका अर्थ किया था । उस समय बड़े बड़े . वादियोंकी ग्रीवायें (गर्दनें) लजाके मारे वक्र ( टेढ़ी) हो गई थीं।" उक्त : मलिषेण प्रशस्तिमें पहले “वन्द्यो विभुर्भुवि न कैरिह कोण्डकुन्दः", इत्यादि श्लोकमें कुन्दकुन्दका वर्णन हो चुका है। उनके बाद समन्तभद्र
और सिंहनन्दीका उल्लेख करके फिर वक्रग्रीवकी प्रशंसा की गई है। इससे मालूम होता है कि वक्रग्रीव कुन्दकुन्दसे पृथक् दूसरे एक महान् विद्वान् हो गये हैं और पट्टावलीके लेखकके कथनानुसार कुन्दकुन्दका ही नाम वक्रग्रीव न था। । इस बातका भी कहीं उल्लेख नहीं मिलता कि एलाचार्य कुन्दकुन्दका नाम था । इस नामके भी एक दूसरे अतिशय प्रसिद्ध आचार्य हो गये हैं। वे चित्रकूटपुरके रहनेवाले थे और भगवजिनसेनके गुरु वीरसेनने उनके निकट जाकर सिद्धान्त शास्त्रोंका अध्ययन किया था। यथाः• काले गते कियत्यपि ततः पुनाश्चित्रकूटपुरवासी।
श्रीमानेलाचार्यो बभूव सिद्धान्ततत्त्वज्ञः ॥ १७७
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तस्य समीपे सकलं सिद्धान्तमधीत्य वीरसेनगुरुः । उपरितमनिबन्धनाद्यधिकारानष्ट च लिलेख ॥ १७८
कुन्दकुन्द और उमास्वामि । कुन्दकुन्द और उमास्वामिका परस्पर क्या सम्बन्ध था, इस विषयमें तीन मत हैं-१ कुन्दकुन्द उमास्वामिके गुरु थे, २ वे उमास्वामिके शिष्य थे और ३ दोनों एक ही थे। मेरी समझमें इनमें से पहला मत ठीक मालूम होता है। क्योंकि एक तो श्रवणबेलगुलके जिन सात आठ शिलालेखोंमें कुन्दकुन्दका उल्लेख है, उनमें यही लिखा है कि उमास्वामि कुन्दकुन्दके शिष्य थे । दूसरे पट्टावलीके लेखक भी इसी मतको पुष्ट करते हैं और कुन्दकुन्दके गुरुका नाम जिनचन्द्र बतलाते हैं। तीसरे कई ग्रन्थोंमें कुन्दकुन्दके गुरुका नाम उमास्वामि न बतलाकर और ही कुछ बतलाया है। - यशोधरचरितकी भूमिकामें किसी ग्रन्थके निम्नलिखित दो श्लोक उद्धृत किये गये हैं:
श्रीमानुमास्वातिरयं यतीशस्तत्त्वार्थसूत्रं प्रकटीचकार । यन्मुक्तिमार्गे चरणोद्यतानां पाथेयमयं भवति प्रजानाम् । तस्यैव शिष्योऽजनि गृध्रपिच्छो द्वितीयसंज्ञास्य बलाकपिच्छः यत्सूक्तिरत्नानि भवन्ति लोके मुक्त्यंगनामोहनमण्डनानि ॥ अर्थात् ." उमास्वाति मुनिराजने तत्त्वार्थसूत्रकी रचना की। उनके शिष्य गध्रपिच्छ थे और उनका दूसरा नाम बलाकपिच्छ था।"
१- श्रीमूलसंघेऽजनि नन्दिसंघस्तस्मिन्बलात्कारगणोतिरम्यः ।
तत्राभवत्पूर्वपदांशवेदी श्रीमाघनन्दी नरदेववन्यः ॥ पदे तदीये मुनिमान्यवृत्तो जिनादिचन्द्रस्समभूदतन्द्रः । ततोऽभवत्पञ्चसुनामधामा श्रीपद्मनन्दी मुनिचक्रवर्ती ॥
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इन श्लोकोंसे यह भ्रम हो जाता है कि 'गृध्रपिच्छ ' यह नाम उमास्वातिका नहीं, किन्तु उनके शिष्यका था और वे संभवतः कुन्दकुन्द ही होंगे । क्योंकि पट्टावलीके लेखकने उनका एक नाम यह भी बतलाया है । परन्तु यह केवल भ्रम ही है । उमास्वातिके शिष्यका बलोकपिच्छ नामक प्रधान शिष्य था। इसका वर्णन अनेक स्थानोंमें आया है । चूँकि उमास्वातिका नाम गृध्रपिच्छ था, इसलिए संभव है कि शिष्यत्वके कारण उसे भी लोग गृपिच्छ कहने लगे हों। __तीसरे मतका उल्लेख पं० कल्लापा भरमापा निटवेने संस्कृत सर्वाथसिद्धिकी भूमिकामें किया है। परन्तु यह बिलकुल ही विश्वासके योग्य नहीं है। क्योंकि एक तो इस विषयमें उन्होंने कोई प्रमाण नहीं दिया है और दूसरे इन दोनों विद्वानोंकी रचनायें जुदा जुदा ढंगकी हैं। एक संस्कृतके और दूसरे प्राकृतके लेखक हैं; एक गूढ़ दर्शनशास्त्रके प्रणेता हैं और दूसरे शुद्ध अध्यात्मको सरलसे सरल भाषामें समझानेवाले हैं। इस कल्पनाकी उत्पत्ति कि दोनों एक ही थे, संभवतः दोनोंकी विदेहगमनकी कथाओंसे तथा गृध्रपिच्छ नामके भ्रमसे हुई जान पड़ती है।
- कुन्दकुन्दके गुरु कौन थे ? इस विषयमें भी मतभेद है । पट्टावलीके दो श्लोकोंसे-जो पूर्वमें । उद्धृत हो चुके हैं-मालूम होता है कि आचार्य माघनन्दिके शिष्य जिनचन्द्र और जिनचन्द्रके शिष्य या उनके उत्तराधिकारी कुन्दकुन्दाचार्य थे। श्रीब्रह्मदेवने पंचास्तिकायसमयसारकी एक संस्कृतटीका लिखी है । उसकी उत्थानिकामें वे लिखते हैं:१- श्रीगृध्रपिच्छमुनिपस्य बलाकपिच्छः शिष्योऽजनिष्ट भुवनत्रयवर्तिकीर्तिः चारित्रचञ्चुरखिलावनिपालमौलिमालाशिलीमुखविराजितपादपद्मः ॥
-श्र० बे० का ४० वाँ लेख :
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“अथ श्रीकुमारनन्दिसैद्धान्तिकदेवशिष्यैः प्रसिद्ध कथान्यायेन पूर्वविदेहं गत्वा वीतरागसर्वज्ञसीमन्धरस्वामितीर्थकरपरमदेवं दृष्ट्वा च तन्मुखकमलविनिर्गतदिव्यवर्णश्रवणादवधारितपदार्थसमूहैः बुद्धात्मतत्त्वादिसारार्थ गृहीत्वा पुनरप्यागतैः श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवैः पद्मनन्द्यपरनामधेयैरन्तस्तत्त्ववाहस्तत्त्वगौणमुख्यप्रतिपत्यर्थम् अथवा शिवकुमारमहाराजादिसंक्षेपरुचिशिष्यप्रतिबोधार्थ विरचिते पंचास्तिकायप्राभृतशास्त्रे यथाक्रमेणाधिकारशुद्धिपूर्वकं ताप्तर्यार्थव्याख्यानं कथ्यते।" । इससे मालूम होता है कि कुन्दकुन्दाचार्य-जिनका कि दूसरा नाम पद्मनन्दि था-कुमारनन्दि सैद्धान्तिकदेवके शिष्य थे, परन्तु ये दोनों मत इतने अर्वाचीन हैं कि इनकी सत्यताके विषयमें निश्चयपूर्वक कुछ भी नहीं कहा जासकता । श्रुतावतारमें अर्हद्वलिके बाद माघनन्दि और फिर धरसेनादि गुरुओंका वर्णन कर दिया है-माघनन्दिके बाद न जिनचन्द्रका उल्लेख है और न कुमारनन्दिका । श्रवणबेलगुलके लेखोंमें भी कुन्दकुन्दके गुरुका कहीं उल्लेख नहीं है । जगह जगह भद्रबाहु और चन्द्रगुप्तका वर्णन करके फिर कुन्दकुन्दका वर्णन किया गया है और उस वर्णनमें आचार्य परम्पराका प्रारंभ कुन्दकुन्दसे ही किया जाता है । नन्दिसंघके वे सबसे पहले आचार्य गिने जाते हैं । यह किसीको भी मालूम नहीं है कि उनके गुरु कौन थे । उनके
१-अर्थात् कुन्दकुन्दाचार्य कुमारनन्दिके शिष्य थे । उनका दूसरा नाम पद्मनन्दि था। उनके विषयमें यह कथा प्रसिद्ध है कि वे एक बार पूर्व विदेहको गये । वहाँ सीमन्धरस्वामीके दर्शन करके और उनकी वाणी सुनकर उन्होंने पदार्थों का स्वरूप समझा। आत्मतत्त्वका सार ग्रहण करके वे लौट आये और तब उन्होंने अन्तस्तत्त्व बहिस्तत्त्वको गौणमुख्यरूपमें प्रतिपादन करनेके लिए अथवा शिवकुमार महाराजादि संक्षेपरुचि शिष्योंको समझानेके लिए पंचास्तिकाय प्राभृतकी रचना की।
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३७६ बनाये हुए अनेक ग्रन्थ प्रचलित हैं; परन्तु उनमें मंगलचरणादिमें अपने गुरुका उल्लेख उन्होंने कहीं भी नहीं किया है ।
शिष्यपरम्परा । . आचार्य कुन्दकुन्द नन्दिसंघ या नन्दिगणके प्रथम अचार्य थे। श्रवणबेलगुलमें ४७ नं० का एक विशाल शिलालेख है। वह ई०, स० १११५ के लगभगका लिखा हुआ है इसमें उनकी शिष्यपरम्पराका विस्तृत उल्लेख है । स्थानाभावसे र द्धृत न कर उसके प्रारंभके अंशका सार दे दिया जाता है - "श्रीपमनन्दिका दूसरा नाम कुन्दकुन्दाचार्य था । उच्च चारित्रके प्रभावसे उन्हें चारण ऋद्धि प्राप्त हो गई थी । उनके शिष्य उमास्वाति थे, जिनका दूसरा नाम गृध्रपिच्छाचार्य था। उनकी ( पद्मनंदिकी ) अन्वयमें उमास्वातिके समान दूसरा विद्वान् न था । गृध्रपिच्छके शिष्य बलाकपिच्छ हुए । बड़े बड़े राजा उन्हें नमस्कार करते थे। उनके शिष्य गुणनन्दि पण्डित यति हुए, जो तर्क, व्याकरण, साहित्य आदिके धुरन्धर विद्वान् थे। उनके ३०० शिष्य थे जिनमें ७२ प्रधान थे। उनमें भी देवेन्द्र मुनि सर्वश्रेष्ठ हुए । वे बड़े भारी व्याख्याता, नय प्रमाणके ज्ञाता और सैद्धान्तिक थे। उनके शिष्य कलधौतनन्दि (कनकनन्दि ? ) सिद्धान्तचक्रवर्ती और वाक्कामिनीवल्लभ हुए । उनके पुत्र मदनशंकर या महेन्द्रकीर्ति हुए। उनके शिष्य वीरनन्दि हुए। वे बड़े भारी कवि, गमक, महावादी और वाग्मी थे । इत्यादि ।" - यही परम्परा ४२ वें लेखमें तथा और भी कई लेखोंमें मिलती
... मंगराज (तृतीय)कृत शिलालेखमें पद्मनन्दि, उमास्वाति, और बलाकपिच्छके वर्णनके बाद समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंक, आदिकी
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स्तुति की गई है । परन्तु उसमें यह नहीं लिखा है कि बलाकपिच्छके शिष्य समन्तभद्र थे । अर्थात् समन्तभद्रादि उनकी वंशपरम्परामें तो थे, पर उनके बाद ही नहीं हुए हैं। इसी प्रकारसे ४० ३ शिलालेखमें भी बलाकपिच्छका वर्णन करके समन्तभद्र और पूज्यपाद आदिका स्तवन किया है और स्पष्ट शब्दोंमें यह लिख दिया है कि ये बलाकपिच्छकी आचार्य परम्परामें हुए हैं। .
पट्टावलीकी परम्परा इन लेखोंसे बिलकुल नहीं मिलती। उसके अनुसार कुन्दकुन्दके बादकी परम्परा इस प्रकार है-उमास्वाति, लोहाचार्य, यशःकीर्ति, यशोनन्दि, देवनन्दी (पूज्यपाद ) और गुणनन्दि इत्यादि । आश्चर्य नहीं कि पट्ट या गद्दीके भेदसे यह अन्तर पड़ गया हो । अथवा पट्टावलीके कर्त्ताने अनुमानसे ही यह क्रम लिख दिया हो।
. स्थान । श्रुतावतारके लेखानुसार कुन्दकुन्दाचार्य कुण्डकुन्दपुरके रहनेवाले थे और यह स्थान संभवतः कर्णाटक प्रान्तमें है । भद्रबाहुके समयमें जो द्वादशवर्षव्यापी बड़ा भारी अकाल पड़ा था, उसमें भद्रबाहु स्वामी के साथ मुनियोंका बड़ा भारी संघ कर्णाटक देशमें चला गया था और उसके बाद ही दिगम्बर और श्वेताम्बर दो जुदा जुदा भेद हो गये थे । ऐसा मालूम होता है कि उक्त भेद हो जानेके बाद दिगम्बराचाोंने दक्षिण कर्णाटकको और श्वेताम्बराचार्योंने गुजरात तथा उत्तर भारतको अपना केन्द्रस्थल बना लिया था। इस फूटफाटके कुछ ही समय पछि कुन्दकुन्दाचार्य हुए हैं । इससे उनका निवास कर्णाटक प्रान्तमें ही संभवित जान पड़ता है । उनकी शिष्यपरंपराके आचार्य
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गुणनन्दि, देवेन्द्रादि भी कर्णाटकमें ही हुए हैं, इस लिए भी अनुमान होता है कि वे कर्णाटक प्रान्तके ही होंगे।
श्रीयुक्त तात्या नेमीनाथ पांगलने किसी 'ज्ञानप्रबोध' नामक भाषाग्रन्थके आधारसे कुन्दकुन्दाचार्यकी एक कथा लिखी है । उसमें उन्हें मालवप्रान्तान्तर्गत बारापुर (बाराँ) के रहनेवाले बतलाया है और उज्जयिनी पट्टका अधिकारी बतलाया है । परन्तु उक्त कथाको छोड़कर इस बातका और कोई विश्वस्त प्रमाण नहीं है।
समयविचार। नन्दिसंघकी पट्टावलीमें लिखा है कि पौष वदी ८ विक्रम संवत् ४९ में कुन्दकुन्दाचार्य पट्ट पर बैठे । उस समय उनकी अवस्था ३३ वर्षकी थी। ५१ वर्ष १० महीने संघका शासन करके वे संवत् १०१ के लगभग स्वर्गवासी हुए । परन्तु विचार करनेसे यह समय बिलकुल कल्पित प्रतीत होता है।
इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतारके मतसे भगवान् महावीरके निर्वाणके ६८३ वर्ष तक अंगज्ञानकी प्रवृत्ति रही-इसके बाद उसका लोप हो गया। ६८३ वर्षाका हिसाब इस प्रकार है:इंद्रभूति गणधर (केवली) ....
१२ वर्ष सुधर्माचार्य , .... ....
१२ वर्ष जम्बूस्वामी , .... विष्णु आदि पाँच श्रुतकेवली . १०० वर्ष विशाखदत्तादि ग्यारह-अंग-दशपूर्व–पाठी १८३ वर्ष नक्षत्रादि ग्यारह अंगके पाठी
२२० वर्ष सुभद्रादि आचारांगके पाठी
११८ वर्ष ६८३ वर्ष
३८ वर्ष
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हरिवंशपुराणकी प्रशस्तिमें भी यही बात लिखी है कि निर्वाणके ६८३ वर्ष बाद तक अंगज्ञानकी प्रवृत्ति रही है । तथा:त्रयः क्रमाकेवलिनो जिनात्परे द्विषष्टिवर्षान्तरभाविनो भवत् । ततः परे पंच समस्तपूर्विणस्तपोधना वषेशतान्तरे गताः॥ त्र्यशीतिके वर्षशते तु रूपयुक दशैव गीता दशपूर्विणः शते। द्वये च विशेगभृतोऽपि पंच ते शते च साष्टादशके चतुर्मुनिः ॥ ___ भगवजिनसेनकृत आदिपुराणके द्वितीय पर्वमें भी ( देखो श्लोक १३९ से १५० तक) इसी मतको पुष्ट किया है । तीनों ही ग्रन्थ प्राचीन और प्रामाणिक हैं, इसलिए इस विषयमें कोई सन्देह नहीं रहा कि वीरनिर्वाण संवत् ६८३ तक अर्थात् विक्रम संवत् २१३ तक अंगज्ञानका अस्तित्व रहा है। - श्रुतावतारके अनुसार “ इसके बाद विनयधर, श्रीदत्त, शिवइत्त और अर्हद्दत्त अंगपूर्वके कुछ अंशोंके ज्ञाता हुए । इनके पीछे पुण्टवर्धनमें अंगपूर्वाशके एक शाखाके जानकार श्रीअर्हद्वलि हुए । इन्होंने नन्दि, सेनादि संघोंकी स्थापना की। इनके बाद माघनन्दि मुनि भी अंगपूवांशदेशज्ञ हुए और समाधिपूर्वक स्वर्गवासी हुए। फिर कर्मप्राभृतके ज्ञाता धरसेनाचार्य हुए। उन्होंने भूतबलि और पुष्पदन्तको पढ़ाया । फिर इन दोनोंने कर्मप्राभूतके षट्खण्डशास्त्रोंकी रचना की।
१ इस विषयमें अब कोई मन्देह नहीं रहा है कि विक्रमादित्यसे ४७० वर्ष पहले महावीर भगवानका निर्वाण हुआ था । त्रैलोक्यसारादि कई ग्रन्थोंके प्रमाणोंसे यह बात सिद्ध हो चुकी है । श्वेताम्बर ग्रन्थोंसे भी यही समय निश्चित होता है।
२ पट्टावलीके लेखकके मतसे लोहाचार्यके बाद अर्हदलि, माधनन्दि, धरसेन, भूतबलि और पुष्पदन्त भी अंगज्ञानी हैं । परन्तु यह ठीक नहीं।
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" एक गणधर नामके आचार्य हुए । उन्होंने, यतिवृषभने और उच्चारणचार्यने क्रमशः कषायप्राभृतकी गाथा, चूर्णि और वृत्तिकी रचना की ।
“ ये दोनों कर्मप्राभृत और कषायप्राभृत सिद्धान्त गुरुपरिपाटीसे कुण्डकुन्दपुरमें पद्मनन्दि मुनिको प्राप्त हुए । "
अर्थात् इन्द्रनन्दिसूरि के मत से भूतिबलि पुष्पदन्तके और उच्चारणाचार्य के बाद कुन्दकुन्दाचार्य हुए हैं । कितने बाद हुए हैं, यह नहीं कहा; परन्तु निम्नलिखित लोकसे मालूम होता है. कि वे उक्त आचार्योंकी मृत्युके कुछ वर्ष बाद हुए हैं । यदि ऐसा -न होता, तो ऐसा नहीं कहा जाता कि उन्हें दोनों सिद्धान्त गुरुपरि - पाटीसे प्राप्त हुए। वह श्लोक यह है:
"
एवं द्विविधो द्रव्यभावपुस्तकगतः समागच्छन् । गुरुपरिपाट्या ज्ञातः सिद्धान्तः कुण्डकुन्दपुरे ॥ १६० श्रीपद्मनन्दिमुनिना....
""
खेदका विषय है कि श्रुतावतार के कर्त्ताको गुणधर और धरसेन आचार्यका पूर्वापक्रम मालूम नहीं था - यदि उन्होंने उनकी गुरुपरिपाटी बतला दी होती, तो कुन्दकुन्दका समय सहज ही निश्चित हो जाता। तो भी उनके कथनसे यह तो निस्सन्देह कहा जासकता है
अंगपूर्व और उनके अंशोंका ज्ञान धीरे धीरे बराबर कम होता - जाता था और इस क्रम में धरसेन और गुणधराचार्य सबसे पिछले थे, जिन्हें अग्रायणी पूर्वान्तर्गत पंचमवस्तु के चौथे कर्मप्राभृतका तथा ज्ञानप्रवाद पूर्वान्तर्गत दशम वस्तुके तृतीय कषायप्राभृतका ज्ञान था ।
१ गुणधरधरसेनान्वयगुर्वोः पूर्वापरक्रमोऽस्माभिः
न ज्ञायते तदन्वयकथकागममुनिजनाभावात् ॥ १५१ ॥
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- श्रुतावतार ।
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अर्थात् ये दोनों उस समय हुए हैं, जब अन्तिम अंगज्ञानी लोहाचार्य हो चुके थे, उनके बाद चार आरातीय मुनि हो चुके थे और उनके. . बाद अर्हद्वलि और माघनन्दि हो चुके थे।
लोहाचार्यकी मृत्यु विक्रमसंवत् २१३ के लगभग हुई है। अन्तिम अंगज्ञानियोंके समान यदि विनयधरादि चार आरातीय मुनि भी केवल १८ वर्षके भीतर हुए मान लिये जावें, उनके बाद अर्हद्वलि
और माघनन्दिके १०-१२ वर्ष गिन लिए जावें और उनके बाद धरसेन, भूतबलि, पुष्पदन्त, गुणधर, यतिवृषभ, उच्चारण आदि आचार्योंके होनेमें और उनके ग्रन्थोंके गुरुपरिपाटीद्वारा कुन्दकुन्दतक आनेमें केवल ५० ही वर्ष माने जावें, तो कुन्दकुन्दस्वामीका समय धिक्रमकी तीसरी शताब्दिके अन्तिम पादके लगभग निश्चित होता है। ___ कुन्दकुन्दस्वामी नन्दिसंघके एक सातिशय प्रसिद्ध आचार्य हुए हैं, इस बातको प्रायः सभी मानते हैं और प्राचीन ग्रन्थोंसे भी यह बात सच मालूम होती है। अर्थात् उनके समयमें नन्दिसंघ स्थापित हो चुका था और संघोंके स्थापक अर्हद्वलि हुए हैं । नन्दिसंघकी गुर्वावलीसे यह भी मालूम होता है कि कुन्दकुन्द नन्दिसंघके तीसरे आचार्य थे, अर्थात् उनके पहले माघनन्दि और जिनचन्द्र हो चुके थे। इसलिए और नहीं तो कमसे कम अर्हद्वलि और माघनन्दिके बाद तो कुन्दकुन्दको मानना ही पड़ेगा और यह समय तीसरी शताब्दिके उत्तरार्ध तक अवश्य जा पहुँचेगा।
एक कथा प्रसिद्ध है कि गिरनार पर्वत पर कुन्दकुन्दस्वामी और ..श्वेताम्बराचार्योंके बीच विवाद हुआ था और उस समय स्वामीने पाषा
णकी सरस्वतीको वाचाल कर दिया था। यथाः--
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पद्मनन्दिगुरुर्जातो बलात्कारगणाग्रणीः । पाषाणघटिता येन वादिता श्रीसरस्वती ॥ २६ ॥
-गुर्वावली । कुन्दकुन्दगणी येनोजयन्तिगिरिमस्तके। . सोवताद्वादिता ब्राह्मी पाषाणघटिता कलौ॥१४॥
-शुभचन्द्रकृत पांडवपुराण । इससे मालूम होता है कि कुन्दकुन्दस्वामीके समयमें जैनधर्ममें दिगम्बर श्वेताम्बर भेद हो चुके थे। कुन्दकुन्दस्वामीके षट्पाहुडग्रन्थमें भी इस बातका आभास पाया जाता है कि उस समय श्वेताम्बर सम्प्रः दाय था। यथाः
णवि सिजई वच्छधरो जिणसासणे जइवि होइ तिच्छयरो णग्गो विमोक्खमग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे॥ जइ दंसणेण सुद्धा उत्ता मग्गेण सावि संजुत्ता। घोरं चरिय चरित्तं इच्छीसु ण पविया भणिया ॥
-सूत्रपाहुड। अर्थात् जिनशासनमें कहा है कि वस्त्रधारी मुनि-चाहे वह तीर्थकर ही क्यों न हो-सीझ नहीं सकता-मुक्त नहीं हो सकता। नग्न या निर्ग्रन्थ मार्ग ही मोक्षमार्ग है, शेष सब उन्मार्ग हैं। सम्यग्दर्शनसे शुद्ध स्त्रीको मोक्षमार्ग संयुक्त कही है। वह घोर चारित्रका आचरण कर सकती है, तो भी उसे मोक्षप्राप्तिके योग्य दीक्षा नहीं दी जासकती।
अब यह देखना चाहिए कि दिगम्बर संप्रदायमें श्वेताम्बरसंघकी उत्पत्ति कब मानी है । देवसेनसूरिने अपने दर्शनसारमें निम्नलिखित गाथा दी है
एकसये छत्तीसे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । . सोरटे बलहीये उप्पण्णो सेवडो संघो॥
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अर्थात् विक्रम राजाकी मृत्युके पश्चात् १३६ वें वर्षमें सौराष्ट्रके वल्लभीपुरमें श्वेताम्बरसंघकी उत्पत्ति हुई। भद्रबाहुचरितमें रत्ननन्दिने भी यही समय बतलाया है। ___दर्शनसारमें जिस विक्रमका संवत् दिया है, वह संभवतः शक विक्रम या शालिवाहन है। जैनग्रन्थोंमें शालिवाहन शकको भी विक्रम संवत् लिखनेकी परिपाटी है। इसलिए यदि यह १३६ शक है, तो इसमें १३५ जोड़नेसे २७१ विक्रम संवत्के लगभग श्वेताम्बर संघकी उत्पत्ति मानी जासकती है और इसके बाद तीसरी शताब्दिके अन्तमें-जैसा कि श्रुतावतारसे सिद्ध हो चुका है-कुन्दकुन्दाचार्यका समय निश्चित होता है। कमसे कम वि० सं० २१३ के पहले तो उनका होना माना ही नहीं जासकता।
जीवनकथा। श्रीयुत तात्या नेमिनाथ पांगळने मराठीमें कुन्दकुन्दाचार्यका चरित लिखा है। उसमें उन्होंने ज्ञानप्रबोध नामक भाषाग्रन्थके आधारसे एक कथा दी है, जिसका सारांश यह है:___" मालवाके बारापुर या बाराँ नामक नगरमें कुमुदचन्द्र राजा राज्य करता था । रानीका नाम कुमुदचन्द्रिका था । उसके राज्यमें कुन्दश्रेष्टी नामक धनिक व्यापारी अपनी स्त्री कुन्दलताके साथ निवास करता था । कुन्दलताको एक पुत्र हुआ। उसका नाम रक्खा गयाकुन्दकुन्द । पुत्रकी प्राप्तिसे सेठ और सेठानीके हर्षकी सीमा न रही।
"एक दिन कुन्दकुमार अपने साथी लड़कोंके साथ खेलता खेलता नगरके बाहर उद्यानमें चला गया । वहाँ एक मुनि विराजमान थे और बहुतसे श्रावक उनका पूजन अर्चन बन्दन कर रहे थे। कुछ समयमें मुनिराज धर्मोपदेश देने लगे। बालक ध्यानपूर्वक सुनने लगा । उनके
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वचनोंका और ऊँचे चरित्रका उस पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा । उसे संसारसे विरक्ति हो गई। उसके हृदयमें मोक्षमार्गके अन्वेषणकी इच्छा प्रबल हो उठी । वह जिनचन्द्रमुनिका शिष्य हो गया और उनके संघके साथ ज्ञानार्जन करता हुआ भ्रमण करने पहि। इस समय उसकी अवस्था केवल ११ वर्ष की थी ! मातापिताको बहुत दुःख हुआ, परन्तु वेचारे करते क्या ? - "कुन्दकुन्दकी गणना जिनचन्द्रके मुख्य शिष्योंमें
होमन्तमें ३३ वर्षकी अवस्थामें उन्हें आचार्यपद मिल गया। ये होता है त हुए और आत्मनिरीक्षण करते हुए यतस्ततः विहार करने लगे। एक बार उन्हें जैनधर्मके कुछ सिद्धान्तोंके विषयमें कुछ शंकायें उत्पन्न हुई, परन्तु उससमय उनका निवारण करनेवाला कोई न था। इस लिए निरुपाय होकर वे तपस्या करने लगे और ध्यानका विशेष अभ्यास करने लगे। ___ "एक बार ध्यानस्थ होते समय उन्होंने सीमंधरस्वामीको त्रिकरण
शुद्धिसे नमस्कार किया। सीमंधर स्वामी विदेहक्षेत्रमें समवसरणसभामें विराजमान थे। उनकी दिव्यध्वनिमें उसी समय 'सद्धर्मवृद्धिरस्तु' यह वाक्य निकला । किसीके प्रश्न करने पर-कि यह आर्शीवाद किसके दिया गया-उतर मिला कि भरतक्षेत्रके अमुक स्थानमें कुन्दकुन्द मुनि हैं। उन्हें कुछ शंकायें हो रही हैं। उन्होंने इसी समय मुझे नमस्कार किया है, जिसका यह आर्शीवाद दिया गया। ___ "यह बात दो भाइयोंने सुनी। वे कुन्दकुन्दके पूर्वजन्मके मित्र थे । इस लिए वहाँसे चलकर वे बाराँके उद्यानमें कुन्दकुन्दके स्वामीके पास आये और सब समाचार सुनाकर उन्हें अपने विमानमें बिठाकर विदेहक्षेत्रको ले गये।
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"मार्गमें मुनिमहाराजकी मयूरपिच्छि गिर गई और तलाश करने पर भी न मिली । लाचार उससमय एक गृध्रपिच्छिसे काम चलाना पड़ा ! इसी घटनाके कारण पीछे गृध्रपिच्छाचार्यके नामसे उनकी ख्याति
___ “विदेह क्षेत्रके मनुष्योंका शरीर ५०० धनुष्यका था और कुन्दकुन्दाचार्य ३|| हाथके थे ! इसलिए वहाँकी समवसरण सभामें इन्हें लोग बड़े कुतूहलकी दृष्टिसे देखने लगे । भगवानके कहने पर लोगोंको मालूम हुआ कि ये भरतक्षेत्रके एक मुख्य आचार्य हैं । ___ " कुन्दकुन्दाचार्य वहाँ आठ दिन तक रहे । इस बीचमें उन्होंने अपनी शंकाओंका समाधान कर लिया और बहुतसा नवीन ज्ञान सम्पादन किया । लौट कर आते समय वे एक ग्रन्थ साथ लेते आये, जिसमें राजनीति, मंत्र आदि नाना विद्याओंका भण्डार था। परन्तु दुर्भाग्यवश वह लवणसमुद्रमें गिरकर नष्ट हो गया! वे अनेक तीथोंकी बन्दना करते हुए अपने मित्रोंकी सहायतासे जहाँके तहाँ आ पहुँचे । ___" इसके बाद वे धर्मोपदेश करते हुए धर्मका प्रसार करने लगे। लगभग ७०० पुरुषोंने और बहुतसी स्त्रियोंने उनके निकट जिनदीक्षा धारण की । कुछ समय पीछे गिरनार पर्वत पर श्वेताम्बरियों
और दिगम्बरियोंका विवाद हुआ। उसमें कुन्दकुन्दस्वामीने वहाँकी ब्राह्मी देवीके मुँहसे यह कहलवा दिया कि-'सत्य पंथ निरग्रंथ दिगम्बर ' और दिगम्बर मत ही प्राचीन मत है । ___“ अन्तमें उमास्वामीको अपने पद पर स्थापित करके वे तपस्या करने लगे और एक दिन ध्यानस्थ अवस्थामें ही परलोकवासी हो गये ।"
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३८६ - इस कथा कुन्दकुन्दके मातापिताके तथा स्थानादिके जो नाम दिये हैं, कह नहीं सकते कि वे कहाँ तक ठीक हैं । क्योंकि एक तो यह कथा किसी आधुनिक लेखककी लिखी हुई, और दूसरे कुमुदचद्र राजा कुमुदचन्द्रिका रानी; कुन्दश्रेष्ठी और कुन्दलता सेठानी, ये नाम बिलकुल कल्पित जैसे मालूम होते हैं। आश्चर्य नहीं, जो सेठ
और सेठानीके नाम केवल ' कुन्दकुन्द ' नामको अन्वर्थक सिद्ध करनेके लिए ही गढ़े गये हों । तत्त्वार्थाधिगम भाष्यकी प्रशस्तिमें उमास्वातिकी माताका नाम उमा और पिताका नाम स्वाति लिखा है और इसीलिए उनका नाम उमास्वाति पड़ गया बतलाया है । कुन्द श्रेष्ठी और कुन्दलताके नाम इसीकी छाया पर गढ़े गये जान पड़ते हैं। वास्तवमें कुण्डकुन्द ग्रामके कारण ही पद्मनन्दिका नाम कुन्दकुन्द प्रसिद्ध हुआ है जैसा कि पहले लिखा जा चुका है। कुन्दलता और कुन्दश्रेष्ठीके नामोंका उल्लेख किसी प्राचीन ग्रन्थमें या शिलालेखादिमें भी नहीं मिलता। ___ इस कथाके इस अंशकी साक्षी और भी कई स्थानोंमें मिलती है कि कुन्दकुन्दस्वामी विदेह क्षेत्रको गये थे। देवसेनसूरिका दर्शनसार संवत् ९०९ का लिखा हुआ है। उसमें एक जगह लिखा है:--
जइ पउमणंदिणाहो सीमंधरसामिदिव्वणाणेण ।
ण विवोहइ तो समणा, कहं सुमग्गं पयाणंति ॥ . । अर्थात् यदि पद्मनन्दिनाथ, सीमंधर स्वामीके दिव्यज्ञानके द्वारा उपदेश न देते-न समझाते, तो श्रमण या मुनिजन सुमार्गको कैसे जानते ? इससे मालूम होता है कि आजके समान नववीं दशवीं शताब्दीमें भी यह विदेहक्षेत्रगमनकी बात प्रसिद्ध थी।
पंचास्तिकाय टीकाकी उत्थानिकामें ब्रह्मदेवने भी इस प्रसिद्ध कथाका उल्लेख किया है। (यह उत्थानिका इसी लेखके पृष्ठ (३७४७५) में उद्धृत की जा चुकी है।)
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कनडी भाषामें 'राजावली' नामका एक ग्रन्थ है। उसमें इसी ढंगकी एक कथा पूज्यपाद या देवनन्दिस्वामीके विषयमें भी लिखी है । अर्थात् उसके मतसे पूज्यपाद भी अपनी शंकाओंका निरसन करनेके लिए सीमंधर जिनके समवसरणमें गये थे और इसी कारण लोग उनसे 'जिनेन्द्रबुद्धि ' कहने लगे थे।
उमास्वामीके विषयमें भी यही कथा प्रसिद्ध है । वास्तवमें गृध्रपिच्छाचार्य इन्हींका नाम था और इस कथामें जो गृध्रके पंखोंकी पिछी ले लेनेकी बात है, वह इन्हींके नामका कारण बतलानेके लिए कही गई है । कुन्दकुन्दाचार्यका नाम गृध्रपिच्छ न था। मालूम होता है, इस बातको न जानकर इस कथाका उक्त अंश उमास्वातिकी कथासे ही ले लिया है। ..
इस समय यह निर्णय करना कठिन है कि विदेह क्षेत्रमें जानेकी बात किसी एकके विषय सही है, अथवा तीनोंके विषयमें सही है। __ ब्रह्मदेवने पंचास्तिकायकी उत्थानिकामें कहा है कि यह ग्रन्थ शिवकुमार महाराजादि संक्षेपरुचि शिष्यों के लिए बनाया गया है । प्रवचनसारं टीकाकी उत्थानिकामें श्रीजयसेनाचार्यने भी शिवकुमार महाराजके लिए ग्रन्थ निर्मित होनेका उल्लेख किया है। मालूम नहीं, राजा शिवकुमार कब और कहाँ हुए हैं। प्रो० पाठकने कुछ प्रमाण ऐसे संग्रह किये हैं जिनसे मालूम होती है कि शिवकुमार राजा गुप्तवंशी राजाओंके समयमें हुए हैं। संभवतः उनका समय ईसाकी चौथी शताब्दी होगा।
ग्रन्थरचना। भगवान् कुन्दकुन्दके जितने ग्रन्थ उपलब्ध हैं, वे सब प्राकृत भाषामें हैं । संस्कृतमें उन्होंने कोई ग्रन्थ लिखा है या नहीं, इसका
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पता नहीं चलता । उनका यह प्राकृतप्रेम दिखला रहा है कि उनक लक्ष्य अपना पाण्डित्य प्रकट करनेकी ओर नहीं, किन्तु सर्वसाधारणका, उपकार करनेकी ओर था । क्यों कि उस समयकी साधारणजनता संस्कृतकी अपेक्षा प्राकृतको सुगमतासे समझ सकती थी। उनके बनाये हुए नीचे लिखे ग्रन्थ उपलब्ध हैं:--
१ समयसार प्राभृत ( पाहुड ), २ पंचास्तिकाय प्राभृत, ३ प्रवचनसार प्राभृत, ४ षट्प्राभृत या षट्पाहुड़ ( १ दर्शन पाहुड, २ २ सुत्त पाहुड़, ३ चारित्त पाहुड़, ४ बोध पाहुड़, ५ भाव पाहुड़, ६मोक्ख पाहुड़), ५ रयणसार, ६ बारह अणुबेक्खा (द्वादशानुप्रेक्षा)
और ७ नियमसार । इनमेंसे पहले छहों ग्रन्थ छप चुके हैं । सातवाँ प्रन्थ नियमसार संस्कृतटीका और श्रीयुक्त ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीकृत भाषाटीका सहित छप रहा है। ___षट्खण्ड सिद्धान्तके आदिके तीन खण्डोंकी एक बड़ी भारी टीका भी कुन्दकुन्दस्वामीकी बनाई हुई है । इस टीकाका प्रमाण १२ हजार श्लोक है। इसका उल्लेख श्रुतावतारमें किया गया है; परन्तु इस समय उपलब्ध नहीं है। ऐसा प्रसिद्ध है कि कुन्दकुन्द भगवानने सब मिलाकर ८४ पाहुड या प्राभतोंकी रचना की थी। इनमें से कुछका उल्लेख तो ऊपर हो चुका है, शेषमेंसे इतने पाहुड़ोंका नाम और भी मालूम हुआ है:
१ जोणीसार, २ क्रियासार, ३ आराहणासार, ४ लब्धिसार, ५ छपणासार, ६ बंधसार, ७ तत्त्वसार, ८ अंगसार, ९ द्रव्यसार, १० क्रमपाहुड, ११ पयपाहुड़, १२ विद्यापाहुड़, १३ उघातपाहुड़, १४ दृष्टिपाहुड़, १५ सिद्धांतपाहुड़, १६ तोयपाहुड़, १७ चरणपाहुड़ १८ समवायपाहुड़, १९ नयपाहुड़, २० प्रकृतिपाहुड़, २१ चूर्णीपाहुड, १ देखो, इस लेखके प्रारंभके ‘एवं द्विविधो ' आदि श्लोक ।
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२२ पंचवर्गपाहुड, २३ कर्मविपाकपाहुड़, २४ वस्तुपाहुड़, २५ बुद्धिपाहुड़ २६ पयद्धपाहुड़, २७ उत्पादपाहुड़, २८ दिव्वपाहुड़, २९ सिक्खापाहुड, ३० जीवपाहुड़, ३१ आचारपाहुड़, ३२ स्थानपाहुड़, ३३ प्रमाणपाहुड़, ३४ आलापपाहुड़, ३५ चूलीपाहुड़, ३६ षट्दर्शनपाहुड़, ३७ नोकम्मपाहुड, ३८ संठाणपाहुड़, ३९ नितायपाहुड़, ४० एयंतपाहुड़, ४१ विहयपाहुड, ४२ सालमीपाहुड़।
कुन्दकुन्दश्रावकाचार नामका संस्कृत ग्रन्थ भी कुन्दकुन्दस्वामीके नामसे प्रसिद्ध था; परन्तु जाँच करनेसे मालूम हुआ कि यह उनका बनाया हुआ नहीं है। किसी धूर्तने अपने किसी प्रयोजनकी सिद्धिके लिए 'विवेकविलास' नामक श्वेताम्बर सम्प्रदायके ग्रन्थके दो चार श्लोक काट छाँट कर उसे उक्त नामसे प्रसिद्ध कर रक्खा था ।
कुन्दकुन्दस्वामीके जितने ग्रन्थ उपलब्ध हैं, वे सब बहुत ही सुगम और सरल भाषामें लिखे गये हैं । ऐसा मालूम होता है कि वे निरन्तर ही इस बातका ध्यान रखते थे कि मेरी रचना बहुत ही सहज और बोधगम्य हो। __ आपकी रचनामें पहले तीनग्रन्थ (समयसार, पंचास्तिकाय, प्रवचनसार ) सर्वशिरोमणि हैं। इन्हें प्राभूतत्रय, या नाटकत्रय कहते हैं। जैनधर्मका वेदान्त या अध्यात्म इन्हीं तीन ग्रन्थों में है। इन ग्रन्थोंको यदि जैनधर्मका जीव या प्राण कहें, तो भी अत्युक्ति न होगी। इनका स्वाध्याय और मनन किये बिना कोई यह नहीं कह सकता कि मैंने जैनधर्म जान लिया ।
. (सनातनजैनग्रन्थमालाके लिए लिखा गया ।)
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ग्रन्थपरीक्षा।
(३)
जिनसेन-त्रिवर्णाचार। इस त्रिवर्णाचारका दूसरा नाम 'उपासकाध्ययनसारोद्धार' भी है; ऐसा इस ग्रंथकी प्रत्येक संधिसे प्रगट होता है । यह ग्रंथ किस समय बना है और किसने बनाया है, इसका पृथकरूपसे कोई स्पष्टोलेख इस ग्रंथमें किसी स्थान पर नहीं किया गया है। कोई ' प्रशस्ति' भी इस ग्रंथके साथ लगी हुई नहीं है । ग्रंथकी संधियोंमें ग्रंथकर्ताका नाम कहीं पर ' श्रीजिनसेनाचार्य ' कहीं ' श्रीभगवजिनसेनाचार्य' कहीं ' श्रीजिनसेनाचार्य नामांकित विद्वज्जन' और कहीं ' श्रीभट्टारकवर्य जिनसेन ' दिया है। इन संधियों से पहली संधि इस प्रकार है: __"इत्याचे श्रीमद्भगवन्मुखारविन्दाद्विनिर्गते श्रीगौतमर्षिपदपद्माराधकेन श्रीजिनसेनाचार्येण विरचिते त्रिवर्णाचारे उपासकाध्ययनसारोद्धारे श्रीश्रेणिकमहामंडलेश्वरप्रश्नकथनश्रीमवृषभदेवस्य पंचकल्याणकवर्णनद्विजोत्पत्तिभरतराजदृष्टषोडशस्वप्नफलवर्णनं नाम प्रथमः पर्वः।
संधियोंको छोड़कर किसी किसी पर्वके अन्तिम पद्योंमें ग्रंथकर्ताका नाम 'मुनि जैनसेन' या ' भट्टारक जैनसेन ' भी लिखा है। परन्तु इस कोरे नामनिर्देशसे इस बातका निश्चय नहीं हो सकता कि यह ग्रंथ कौनसे 'जिनसेन' का बनाया हुआ है । क्योंकि जैन समाजमें 'जिनसेन ' नामके धारक अनेक आचार्य और ग्रंथकर्ता हो गये हैं। जैसा कि आदिपुराण और पाभ्युदय आदि ग्रंथोंके प्रणेता भगवजिनसेन; हरिवंश पुराणके रचयिता दूसरे जिनसेन; हरिवंपुराणकी ' प्रशस्ति ' में जिनका जिकर है वे तीसरे जिनसेन;
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श्रीमलिषेणाचार्यप्रणीत महापुराणकी ' प्रशस्ति ' में जिनका उल्लेख है वे चौथे जिनसेन और जैनसिद्धान्तभास्कर द्वारा प्रकाशित पाँचवें जिनसेन, इत्यादि । ऐमी अवस्थामें विना किसी विशेष अनुसंधानके किसीको एकदम यह कहनेका साहस नहीं हो सकता कि यह त्रिवर्णाचार अमुक जिनसेनका बनाया हुआ है। यह भी संभव है कि जिनसेनके नामसे किसी दूसरे ही व्यक्तिने इस ग्रंथका सम्पादन किया हो । इसलिए अनुसंधानकी बहुत बड़ी जरूरत है | ग्रंथमें ग्रंथकर्ताके नामके साथ कहीं कहीं भट्टारक ' शब्दका संयोग पाया जाता है; पर यह संयोग इस अनुसंधान में कुछ भी सहायता नहीं देता । क्योंकि 'भट्टारक' शब्द यद्यपि कुछ कालसे शिथिलाचारी और परिग्रहधारी साधु
ओं- श्रमणाभामों के लिए व्यवहृत होने लगा है; परन्तु वास्तवमें यह एक बडा ही गौरवान्वित पद है । शास्त्रोंमें बड़े बड़े प्राचीन आचार्यों और ताथकरी तक के लिए इसका प्रयोग पाया जाता है । आदिपुराणमें भगवजिनसेनने भी — श्रीवीरसेनइत्यात्त भट्टारकपृथुप्रथः' इस पटके द्वारा अपने गुरु 'वीरसेन' को ' भट्टारक ' पदवीसे विभूपित वर्णन किया है । बहुतसे लोगोंका ऐसा खयाल है कि यह त्रिवगाचार आदिपुराणक प्रणेता श्रीजिनसेनाचार्यका, जिन्हें इस लेखमें आगे बराबर भगवजिनसेन' लिखा जायगा.--बनाया हुआ है । परन्तु यह केवल उनका ग्वयाल ही ग्वयाल है। उनके पास इसके समर्थनमें ग्रंथी मंधिया में दिये हुए ' इत्या ' और ' भगवजिनसेन,' इन शब्दोंको छोडकर और कोई भी प्रमाण मौजूद नहीं है। ऐसे नाममात्रके प्रमाणोंसे कुछ भी सिद्ध नहीं हो सकता । भगवजिनसेनके पाछे होनेवाले किसी माननीय आचार्यकी कृतिमें भी इस ग्रंथका कहीं नामोल्लेख नहीं मिलता। इसलिए ग्रंथके साहित्यकी जाँचको
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छोड़कर कोई भी उपयुक्त साधन इस बातके निर्णयका नहीं है कि य ग्रंथ वास्तवमें कब बना है और किसने बनाया है। ..
जिस समय इस ग्रंथको परीक्षा दृष्टिसे अवलोकन किया जाता है, उस समय इसमें कुछ और ही रंग और गुल खिला हुआ मालूम होता है। स्थान स्थान पर ऐसे पद्यों या गद्योंके ढेरके ढेर नजर पड़ते हैं, जो बिलकुल ज्योंके त्यों दूसरे ग्रंथोंसे उठाकर ही नहीं किन्तु चुराकर रक्खे हुए हैं। ग्रंथकर्ताने उन्हें अपने ही प्रकट किये हैं। और तो क्या, मंगलाचरण तक भी इस ग्रंथका अपना नहीं है। वह भी पुरुषार्थसिद्धयुपाय ग्रंथसे उठाकर रक्खा गया है । यथाः--
तजयति परं ज्योतिः समं समस्तैरनन्तपर्यायैः । दर्पणतल इव सकला प्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र ॥१॥ परमागमस्य जीवं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुराविधानम् । ।
सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥२॥ पाठकगण इसीसे समझ सकते हैं कि यह ग्रंथ भगवजिनसेनका बनाया हुआ हो सकता है या कि नहीं। जैनसमाजमें भगवज्जिनसेन एक बड़े भारी विद्वान् आचार्य हो गये हैं । उनकी अनुपम काव्यशक्ति और अगाध पांडित्यकी बड़े बड़े विद्वानों, आचार्यों और कवियोंने मुक्त कंठसे स्तुति की है। जिन विद्वानोंको उनके बनाये हुए संस्कृत आदिपुराण और पाश्चाभ्युदय काव्यादिकोंके पढ़नेका सौभाग्य प्राप्त हुआ है, वे अच्छी तरह जानते हैं कि भगवज्जिनसेन कितने बड़े प्रतिभाशाली विद्वान् हुए हैं । कविता करना तो उनके लिए एक प्रकारका खेल था । तब क्या ऐसे कविशिरोमणि मंगलाचरण तक भी अपना बनाया हुआ न रखते ? यह कभी हो नहीं सकता । पाठकोंको यह जानकर और भी आश्चर्य होगा कि जिस ग्रं
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थसे उपर्युक्त मंगलाचरणके दोनों पद्य उठाकर रक्खे गये हैं, उस ग्रंथका भगवज्जिनसेनके समय में अस्तित्व भी न था । भगवज्जिनसेन विक्रमकी ९ वीं शताब्दी में हुए हैं और 'पुरुषार्थसिद्धयुपाय' ग्रंथ श्रीअमृतचंद्रसूरिद्वारा विक्रमकी १० वीं शताब्दीके लगभग बना है । त्रिवर्णाचार के सम्पादक ने इस पुरुषार्थसिद्धयुपायसे केवल मंगलाचरणके दो पद्य ही नहीं लिये, बल्कि इन पद्योंके अनन्तरका तीसरा पद्य भी लिया है, जिसमें ग्रंथका नाम देते हुए परमागमके अनुसार कथन करनेकी प्रतिज्ञा की गई है । यथा:
“लोकत्रयैकनेत्रं निरूप्य परमागमं प्रयत्नेन । अस्माभिरुपोध्रियते विदुषां पुरुषार्थसिद्धयुपायोऽयम् ॥ ३ ॥ इस पद्यसे साफ तौर पर चोरी प्रगट हो जाती है और इसमें कोई संदेह बाकी नहीं रहता कि ये तीनों पद्य पुरुषार्थसिद्ध्युपाय ग्रंथसे उठाकर रक्खे गये हैं। क्योंकि इस तीसरे पद्यमें स्पष्टरूपसे ग्रंथका नाम ' पुरुषार्थसिद्धयुपाय ' दिया है । यद्यपि इस पद्यको उठाकर रखने से ग्रंथकर्ताकी योग्यताका कुछ परिचय जरूर मिलता है । परन्तु . वास्तव में इस त्रिवर्णाचारका सम्पादन करनेवाले कैसे योग्य व्यक्ति थे, इसका विशेष परिचय, पाठकोंको इस लेखमें, आगे चलकर मिलेगा । यहाँ पर, इस समय, कुछ ऐसे प्रमाण पाठकोंके सन्मुख उपस्थित किये जाते हैं, जिनसे यह भले प्रकार स्पष्ट हो जाय कि यह ग्रंथ (त्रिव -
चार ) भगवज्जिनसेनका बनाया हुआ नहीं है और न हरिवंशपुराणके कर्ता दूसरे जिनसेन या तीसरे और चौथे जिनसेनकाही बनाया हुआ हो सकता है:
( १ ) इस ग्रंथ के दूसरे पर्वमें ध्यानका वर्णन करते हुए यह प्रतिज्ञा की है कि मैं ज्ञानार्णव ग्रंथके अनुसार ध्यानका कथन करता हूँ । यथा:
१ आचार्य अमृतचन्द्र कब हुए हैं, इसका कोई सुदृढ प्रमाण नहीं है ।
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३९४ “ ध्यानं तावदहं वदामि विदुषां ज्ञानार्णवे यन्मतम् (२-३ ज्ञानार्णव ग्रंथ, जिसमें ध्यानादिका विस्तारके साथ कथन है, श्रमि शुभचंद्राचार्यका बनाया हुआ है । शुभचंद्राचार्य विक्रमकी ११ वीर शताब्दीमें धाराधीश महाराज भोजके समयमें हुए हैं। इससे स्वयं व ग्रंथमुखसे ही प्रगट है कि यह त्रिवर्णाचार ज्ञानार्णवके पीछे बना है और इसलिए भगवजिनसेनका बनाया हुआ नहीं हो सकता।
और न हरिवंशपुराणके कर्ता दूसरे जिनसेन या तीसरे जिनसेनका ही बनाया हुआ हो सकता है। क्योंकि हरिवंशपुराणके कर्ता श्रीजिसेनाचार्य भगवजिनसेनके प्रायः समकालीन ही थे। उन्होंने हरिवंशपुराणको शक संवत् ७०५ (वि० सं० ८४० ) में बनाकर समाप्त किया है। जब हरिवंशपुराणसे बहुत पीछे बननेके कारण यह ग्रंथ हरिवंशपुराणके कर्ताका बनाया हुआ नहीं हो सकता, तब यह स्वतःसिद्ध है कि हरिवंशपुराणकी प्रशस्तिमें हरिवंशपुराणके कर्तासे पहले होनेवाले जिन तीसरे जिनसेनका उल्लेख है, उनका भी बनाया हुआ नहीं हो सकता।
(२) ग्रन्थके चौथे पर्वमें एक पद्य इस प्रकार दिया है:__ " प्रापदैवं तव नुतिपदैर्जीवकेनोपदिष्टैः ।
पापाचारी मरणसमये सारमेयोऽपि सौख्यम् ॥ कः संदेहो यदुपलभते वासवश्रीप्रभुत्वम् । जल्पं जाप्यमणिभिरमलैस्त्वन्नमस्कारचक्रम् ॥ १२७॥" यह पद्य श्रीवादिराजसूरिरचित 'एकीभाव ' स्तोत्रका है । वहींसे उठाकर रक्खा गया है। वादिराजसूरि विक्रमकी ११ वी १ ज्ञानार्णवके प्रारंभमें जिनसेन स्वामीको नमस्कार किया गया है।
-सम्पादक।
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शताब्दाम हुए हैं। उन्होंने शक संवत् ९४८ (वि. सं. १०१३ ) में पार्श्वनाथचरितकी रचना की है। इस लिए यह त्रिवर्णाचार उनसे पीछेका बना हुआ है और कदापि दो शताब्दी पहले होनेवाले भगवज्जिन सेनादिका बनाया हुआ नहीं हो सकता ।
( ३ ) इस ग्रंथ में अनेक स्थानों पर गोम्मटसारकी गाथायें भी पाई जाती हैं । १४ पर्व में आई हुई गाथाओं में से एक गाथा इस प्रकार हैं:
" एयंत बुद्धदरसी विवरीओ वंभतावसी विणओ । satar संसदि मक्कडिओ चैव अण्णाणी ॥ १२ ॥ यह गाथा गोम्मटसारमें नम्बर १६ पर दर्ज है । गोम्मटसार ग्रंथ श्री नेमिचंद्र सिद्धान्तचक्रवर्तीका बनाया हुआ है; जो कि महाराजा चामुंडराय के समय में विक्रमकी ११ वीं शताब्दी में हुए हैं । महाराजा चामुंडरायका जन्म शक संवत् ९०० (वि. सं. २०३५ ) में हुआ था। इससे भी यह त्रिवर्णाचार भगवजिनसेनादिसे बहुत पीछेका बना हुआ सिद्ध होता हैं।
( ४ ) इस ग्रंथ के चौथे पर्व में, एक स्थान पर ग्रन्थों को और दूसरे स्थानपर ऋषियोंको तर्पण किया है। ग्रंथोंके तर्पण में आदिपुराण, उत्तरपुराण, हरिवंशपुराण, और गोम्मटसारको भी अलग अलग तर्पण किया है । ऋषियों के तर्पण में प्रथम तो लोहाचार्य के पश्चात् 'जिनसेन' को तर्पण किया है ( जिनसेनस्तृप्यतां । ); फिर वीरसेन के पश्चात् 'जिनसेन'का तर्पण किया है और फिर नेमिचन्द्र तथा गुणभद्राचार्यका भी तर्पण किया है । १० वें पर्व में जिनसेन मुनिकी स्तुति भी लिखी है और चौथे पर्व के एक श्लोक में जिनसेनका हवाला दिया हैं। यथा:---
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३९६ “ सकलवस्तुविकाश दिवाकरं भुविभवार्णवतारणनीसमं । सुरनरप्रमुखैरुपसेवितं सुजिनसेनमुनिं प्रणमाम्यहम् ॥१०-२॥ वाचिकस्त्वेक एव स्यादुपांशुः शत उच्यते। सहस्रमानसः प्रोक्तो जिनसेनादिसूरिभिः ॥ ४-१३३॥ इस सब कथनसे भी यही प्रगट होता है कि यह प्रथ भगवनिनसेन या हरिवंशपुराणके कर्ता जिनसेनका बनाया हुआ नहीं है। भगवजिनसेनके समयमें आदिपुराण अधूरा था. उत्तरपुराणका बनना प्रारंभ भी नहीं हुआ था और गोम्मटसार तथा जे जमित श्रीनेमिचंदका अस्तित्व ही न था।
(६) इस ग्रंथमें अनेक स्थानों पर एकसंधि भट्टारककृत 'जिनसंहिता से मैकडों शोक कर व्यों के त्यो रक्खे हुए हैं । एक स्थान पर ( पाँच पर्वमें ) एकसंधि भट्टारककी बनाई हुई संहिताके अनुसार होमकुंडोंका लक्षण वर्णन करनेकी प्रतिज्ञा भी की है और साथ ही तद्विषयक कुछ श्लोक भी उद्धृत किये हैं। वह प्रतिज्ञावाक्य और संहिताके दो श्लोक नमूनेके तौर पर इस प्रकार हैं:
लक्षणं होमकुंडानां वक्ष्ये शास्त्रानुसारतः । भट्टारकैकसंधेश्च दृष्ट्वा निर्मलसंहिताम् ॥ १०३ ॥ त्रिकोणं दक्षिणे कुंडं कुर्याद्वर्तुलमुत्तरे । तत्रादिमेखलायाश्चाप्यवसेयाश्च पूर्ववत् ॥ (५-१२०) अथ राजन् प्रवक्ष्यामि शृणु भोः जातिनिर्णयम् । यस्मिन्नेव परिज्ञानं स्यात् त्रैवर्णिकशूद्रयोः ॥ (११-२)" (६) अन्तके दोनों शोक 'जिनमंहितामें ' क्रमश: नम्बर २१० और ४३ पर दर्ज हैं। एकसंधिभट्टारक भगवजिनसेनसे बहुत पीछे हुए हैं। उन्होंने खुद अपनी संहितामें बहुतमे श्लोक आदिपुराणसे उठाकर रक्खे हैं। उनमेंसे दो श्लोक नमूनेके तौर पर इस प्रकार हैं -
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" वांछन्त्यो जीविका देव त्वां वयं शरणं श्रिताः। तन्नस्त्रायस्व लोकेश तदुपायप्रदर्शनात् ॥४७॥ श्रुत्वेति तद्वचो दीनं करुणाप्रेरिताशयः । मनः प्रणिधावेवं भगवानादिपूरुषः ॥४८॥ ये दोनों श्लोक आदिपुराणके १६ वें पर्वके हैं । इस पर्वमें इनका नम्बर क्रमशः १३६ और १४२ है। इससे भी प्रगट है कि यह ग्रंथ भगवजिनसेनका बनाया हुआ नहीं है । .. (६) श्रीसोमदेवसूरिविरचित 'यशस्तिलक ' श्रीहेमचंद्राचार्यप्रणीत ' योगशास्त्र' और श्री जिनदत्तसूरिकृत 'विवेकविलास'के पद्य भी इस ग्रंथमें पाये जाते हैं, जिनका एक एक नमूना इस प्रकार है:
क-श्रद्धा तुष्टिर्भक्तिर्विज्ञानमलुब्धता क्षमाशक्तिः ।
__ यत्रैते सप्त गुणास्तं दातारं प्रशंसन्ति ॥ १४-११९ ॥ यह श्लोक यशस्तिलकके आठवें आश्वासका है। ख-अह्नो मुखेवसाने च यो द्वे द्वे घटिके त्यजन् ।
निशाभोजनदोषज्ञोऽश्नात्यसौ पुण्यभाजनम् १४-८७ ॥ यह योगशास्त्रके तीसरे प्रकाशका ६३ वाँ पद्य है। ग-शाश्वतानंदरूपाय तमस्तोमैकभास्वते ।
___ सर्वशाय नमस्तस्मै कस्मैचित्परमात्मने ॥९-१॥ यह श्लोक विवेकविलासका आदिम मंगलाचरण है। ...श्रीसोमदेवसूरि विक्रमकी ११ वीं शताब्दीमें हुए हैं। उन्होंने विक्रम संवत् १०१६ (शक संवत् ८८१) में यशस्तिलकको बनाकर समाप्त किया है। श्वेताम्बराचार्य श्रीहेमचंद्रजी राजा कुमारपालके समयमें अर्थात् विक्रमकी १३ वीं शताब्दीमें (सं० १२२९ तक) विद्यमान थे और श्वेताम्बराचार्य श्रीजिनदत्तसूरि भी विक्रमकी
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१३ वीं शताब्दी में हुए हैं। इन आचार्योंके उपर्युक्त ग्रंथोंसे जब पद्य लिये गये हैं, तब साफ प्रगट है कि यह त्रिवर्णाचार उनसे भी पीछे बना है और इस लिए श्रीमल्लिषेणाचार्यकृत ' महापुराण ' की प्रशस्तिमें उल्लिखित मल्लिषेणके पिता चौथे श्रीजिनसेनसूरिका बनाया हुआ भी यह ग्रंथ नहीं हो सकता। क्योंकि मलिषेणने शक संवत् ९६९ (वि. सं. ११०४) में ' महापुराण'को बनाकर समाप्त किया है।
(७) इस ग्रंथके चौंथे पर्वमें एक स्थान पर 'सिद्धभक्तिविधान । का वर्णन करते हुए दस पद्योंमें सिद्धोंकी स्तुति दी है। इस स्तुतिका पहला और अन्तका पद्य इस प्रकार है:
“यस्यानुग्रहतो दुराग्रहपरित्यक्तादिरूपात्मनः, सद्व्यं चिदचित्रिकालविषयं स्वैःस्वैरभीक्ष्णं गुणैः ।। सार्थ व्यंजनपर्ययैः समभवजानाति बोधः स्वयं, तत्सम्यक्त्वमशेषकर्मभिदुरं सिद्धाः परं नौमि वः ॥१॥ उत्कीर्णामिव वर्तितामिव हृदि न्यस्तामिवालोकय- . नेतां सिद्धगुणस्तुति पठति यः शाश्वच्छिवाशाधरः रूपातीतसमाधिसाधितवपुः पातःपतदुष्कृतव्रातः सोऽभ्युदयोपभुक्तसुकृतः सिद्धे तृतीये भवे ॥ १०॥ यह स्तुति पंडित आशाधरकृत 'नित्यमहोद्योत' ग्रंथसे, जिसे बृहच्छांतिकाभिषेक विधान भी कहते हैं, ज्योंकी त्यों उठाकर रक्खी हुई है। इसके दसवें पद्यमें आशाधरजीने युक्तिके साथ अपना नाम भी दिया है। सागारधर्मामतादि और भी अनेक ग्रंथोंमें उन्होंने इस प्रकारकी युक्तिसे (शिवाशाधरः या बुधाशाधरः लिखकर) अपना नाम दिया है। नित्य महोद्योत ग्रंथसे और भी बहुतसा गद्य पद्य उठाकर रक्खा हुआ है। इसके सिवाय उनके बनाये हुए 'सागरधर्मामृत' .
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से भी पचासों श्लोक उठाकर रक्खे गये हैं। उनमेंसे दो श्लोक नमूनेके तौर पर इस प्रकार हैं:__“नरत्वेऽपि पशूयन्ते मिथ्यात्वग्रस्तचेतसः।
पशुत्वेऽपि नरायन्ते सम्यक्त्वव्यक्तचेतनाः ॥ १४-९॥ कुधर्मस्थोऽपि सदूधर्म लघुकर्मतयाऽद्विषन्। 'भद्रः स देश्यो द्रव्यत्वान्नाभद्रस्तद्विपर्ययात् ॥ १४-११ ॥ ये दोनों श्लोक सागारधर्मामृतके पहले अध्यायमें क्रमशः नम्बर ४ और ५ पर दर्ज हैं। आशाधर विक्रमकी १३ वीं शताब्दीमें हुए हैं। उन्होंने अनगारधर्मामृतकी टीका वि० सं० १३०० के कार्तिक मासमें बनाकर पूर्ण की है । ऐसा उक्त टीकाके अन्तमें उन्हींके वचनोंसे प्रकट है। पंडित आशाधरजीके वचनोंका इस ग्रंथमें संग्रह होनेसे साफ जाहिर है कि यह त्रिवर्णाचार १३ वीं शताब्दीके पीछे बना है। और इस लिए शताब्दियों पहले होनेवाले भगवजिनसेनादिका बनाया हुआ नहीं हो सकता।।
(८) अन्यमतके ज्योतिष ग्रंथोंमें 'मुहूर्तचिन्तामणि' नामका एक प्रसिद्ध ग्रंथ है । यह ग्रंथ नीलकंठके अनुज रामदैवज्ञने शक संवत् १५२२ (विक्रम सं० १६५७) में निर्माण किया है ।* इस ग्रंथ पर संस्कृतकी दो टीकायें हैं। पहली टीकाका नाम 'प्रमिताक्षरा' है, जिसको स्वयं ग्रंथकर्ताने बनाया है और दूसरी टीका 'पीयूषधारा' नामकी है, जिसको नीलकंठके पुत्र गोविन्द दैवज्ञने शक संवत् १५२५ (वि. सं.
* यथाः- “तदात्मज उदारधार्विबुधनीलकंठानुजो।
गणेशपदपंकजं हृदि निधाय रामाभिधः ॥
गिरीशनगरे वरे भुजभुजेषु चंद्रमिते (१५२५)। ... शके विनिरमादिमं खलु मुहूर्तचिन्तामणिम् ॥ १४-३॥"
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१६६०) में बनाकर समाप्त किया है । * इस मुहूर्तचिन्तामणिके संस्कार प्रकरणसे बीसियों श्लोक और उन श्लोकोंकी टीकाओंसे बहुतसा गद्यभाग और पचासों पद्य ज्योंके त्यों उठाकर इस त्रिवर्णाचारके १२ वें. और १३ वें पर्वमें रक्खे हुए हैं । मूल ग्रंथ और उसकी टीकासे उठाकर रक्खे हुए पद्योंका तथा गद्यका कुछ नमूना इस प्रकार है:
"विप्राणां व्रतबन्धनं निगदितं गर्भाजनेर्वाष्टमे । वर्षे वाप्यथ पंचमे क्षितिभुजां षष्ठे तथैकादशे॥ वैश्यानां पुनरष्टमेप्यथ पुनः स्यादूद्वादशे वत्सरे । कालेऽथ द्विगुणे गते निगदितं गौणं तदाहुर्बुधाः ॥१३-८॥ कविज्य चंद्रलग्नपा रिपो मृतौ व्रतेऽधमाः व्ययेब्जभार्गवौ तथा तनौ मृतौ सुते खलाः ॥ १३-१९ ॥ “गर्भाष्टमेषु ब्राह्मणमुपनयेद्गभैंकादशेषु राजन्यं गर्भद्वादशेषु वैश्यमिति बहुत्वान्यथानुपपत्यागर्भषष्टगर्भसप्तमगर्भाष्टमेषु सौरवर्षेष्विति वृत्तिकृद्याख्यानात्त्रयाणामपि नित्यकालता।" ...
ऊपरके दोनों पद्य मुहूर्तचिन्तामाणिके पाँचवें प्रकरणमें क्रमशः नम्बर २९ और ४१ पर दर्ज हैं और गद्यभाग पहले पद्यकी टीकासे लिया गया है । मुहूर्तचिन्तामणि और उसकी टीकाओंसे इस प्रकार गद्यपद्यको उठाकर रखने में जो चालाकी की गई है और जिस प्रकारसे, अन्धकारके जमानेमें, लोगोंकी आँखोंमें धूल डाली गई है, पाठकोंको उसका दिग्दर्शन आगे चलकर कराया जायगा । यहाँ पर सिर्फ इतना बतला देना काफी है कि जब इस त्रिवर्णाचारमें मुहूर्तचिन्तामणि* जैसा कि टीकाके अन्तमें दिये हुए इसका पद्यसे प्रगट है:
"शाके तत्त्वतिथीमिते (१५२५) युगगुणाब्दो नीलकंठात्मभूदुग्धाब्धि निखिलार्थयुक्तममलं मौहूर्तचिन्तामणिम् । काश्यां वाक्यविचारमंदरनगेनामथ्य लेखप्रियाम् । गोविन्दो विधिविद्वरोऽतिविमलां पीयूषधारां व्यधात्॥६-५॥"
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के पद्य और उसकी टीकाओंका गद्य भी पाया जाता है, तब इसमें कोई भी संदेह बाकी नहीं रहता कि यह ग्रंथ विक्रम संवत् १६६०से भी पीछेका बना हुआ है।
(२) वास्तवमें, यह ग्रंथ सोमसेनत्रिवर्णाचार (धर्मरसिकशास्त्र) से भी पीछेका बना हुआ है । सोमसेन त्रिवर्णचार भट्टारक सोमसेनका बनाया हुआ है ।* और विक्रमसंवत् १६६७ के कार्तिक मासमें बन कर पूरा हुआ है; जैसा कि उसके निम्नलिखित पद्यसे प्रगट है:
“अब्दे तत्वरसर्तुचंद्र (१६६७) कलिते श्रीविक्रमादित्यजे । मासे कार्तिकनामनीह धवले पक्षे शरत्संभवे ॥ .... बारे भास्वति सिद्धनामनि तथा योगे सुपूर्णातिथौ । नक्षत्रेऽश्वनिनानि धर्मरसिको ग्रन्थश्चपूर्णीकृतः॥१३-२१६॥ जिनसेन-त्रिवर्णाचारमें 'सोमसेनत्रिवर्णाचार' प्रायः ज्योंका त्यों उठाकर रक्खा हुआ है। कई पर्व इस ग्रंथमें ऐसे हैं जिनमें सोमसेन - त्रिवर्णाचारके अध्याय मंगलाचरणसहितं ज्योंके त्यों नकल किये गये हैं । सोमसेनत्रिवर्णाचारकी श्लोकसंख्या, उसी ग्रंथमें अन्तिम पद्यद्वारा, दो हजार सातसौ (२७००) श्लोक प्रमाण वर्णन की है। इस संख्यामेंसे सिर्फ ७२ पद्य छोड़े गये हैं और बीस बाईस पद्योंमें कुछ थोडासा नामादिकका परिवर्तन किया गया है। शेष कुल पद्य जिनसेनत्रिवर्णाचारमें ज्योंके त्यों, जहाँ जब जीमें आया, नकल कर दिये हैं। .. सोमसेनत्रिवर्णाचारमें, प्रत्येक अध्यायके अन्तमें, सोमसेन भट्टारकने पद्यमें अपना नाम दिया है । इन पद्योंको जिनसेनत्रिवर्णाचारके कर्ताने कुछ कुछ बदल कर रक्खा है। जैसा कि नीचेके उदाहरणोंसे प्रगट होता
(१)."धन्यः स एव पुरुषः समतायुतो यः।
प्रातः प्रपश्यति जिनेंद्रमुखारविन्दम् ॥ . . . • इस सोमसेनत्रिवर्णाचारकी परीक्षा भी एक स्वतंत्र लेख द्वारा की जायगी।
-लेखक ।
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पूजासुदानतपसि स्पृहणीयचित्तः । सेव्यः सदस्सु नृसुरैर्मुनिसोमसेनैः॥
(सोमसेन त्रि० अ० १ श्लो० ११६) जिनसेनत्रिवर्णाचारके दूसरे पर्वमें यही पद्य नम्बर ९२ पर दिया है। सिर्फ 'मुनिसोमसेनः' के स्थानमें 'मुनिजैनसेनैः बदला हुआ
हैं।
(२) शौचाचाराविधिः सुचित्वजनकः प्रोक्तो विधानागमे
पुंसां सदूव्रतधारिणां गुणवतां योग्यो युगेऽस्मिन्कलौ ॥ श्रीभट्टारकसोमसेनमुनिभिः स्तोकोऽपि विस्तारतः प्रायः क्षत्रियवैश्यविप्रमुखकृत् सर्वत्र शूद्रोऽप्रियः ॥
(सोम० त्रि० अ० २ श्लो० ११५) जिनसेनत्रिवर्णाचारमें यही पद्य तीसरे पर्वके अन्तमें दिया है। केवल ' सोमसेन ' के स्थानमें उसीके वजनका 'जैनसेन' बनाया गया है । इसी प्रकार नामसूचक सभी पद्योंमें ' सोमसेन ' की जगह ‘जैनसेन ' का परिवर्तन किया गया है। किसी भी पद्यमें 'जिनसेन' ऐसा नाम नहीं दिया है । जिनसेनत्रिवर्णाचारमें कुल १.८ पर्व हैं और सोमसेनत्रिवर्णाचारके अध्यायोंकी संख्या १३ है। पाठकों. को यह जानकर आश्चर्य होगा कि जिनसेनत्रिवर्णाचारके इन १८ पर्वोमेंसे जिन १३ पौंमें सोमसेनत्रिवर्णाचारके १३ अध्यायोंकी प्रायः नकल की गई है, उन्हीं १३ पर्वोके अन्तमें ऐसे पद्य आये हैं जिनमें ग्रंथकर्ताका नाम ' सोमसेन ' के स्थानमें 'जैनसेन ' दिया है; अन्यथा शेष पांच पामें-जो सोमसेन त्रिवर्णाचारसे अधिक हैं-कहीं भी ग्रंथकर्ताका नाम नहीं है।
सोमसेन भट्टारकने, अपने त्रिवर्णाचारमें, अनेक स्थानों पर यह प्रगट किया है कि मेरा यह कथन श्रीब्रह्मसूरिके वचनानुसार है
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उन्हींके ग्रंथोंको देखकर यह लिखा गया है । जैसा कि निम्नलिखित पद्योंसे प्रगट होता है:--
" श्रीब्रह्मसूरिद्विजवंशरत्नं श्रीजैनमार्गप्रविवुद्धतत्त्वः । वाचं तु तस्यैव विलोक्य शास्त्रं कृतं विशेषान्मुनिसोमसेनैः॥
(सोम० त्रि. ३-१४९ ) "कर्म प्रतीतिजननं गृहिणां यदुक्तं,श्रीब्रह्मसूरिवरविप्रकवीश्वरेण। सम्यक् तदेव विधिवत्प्रविलोक्य सूक्तं, श्रीसोमसेनमुनिभिः
शुभमंत्रपूर्वम् ॥" ( सो० त्रि० अ० ५ श्लो० अन्तिम) विवाहयुक्तिः कथिता समस्ता संक्षेपतः श्रावकधर्ममार्गात् । श्रीब्रह्मसूरिप्रथितं पुराणमालोक्य भट्टारकसोमसेनः॥
(सोम० त्रि. ११-२०४ ) वास्तवमें सोमसेनत्रिवर्णाचारमें ब्रह्ममूरित्रिवर्णाचार ' से बहुत कुछ लिया गया है और जो कुछ उठाकर या परिवर्तित करके रक्खा गया है, वह सब जिनसेनत्रिवर्णाचारमें भी उसी क्रमसे मौजूद है । बल्कि इस त्रिवर्णाचारमें कहीं कहीं पर सीधा ब्रह्मसूरित्रिवर्णाचारसे भी कुछ मजमून उठाकर रक्खा गया है जो सोमसेन त्रिवर्णाचारमें नहीं था; जैसा कि छठे पर्वमें ' यंत्रलेखनविधि,' इत्यादि । परन्तु यह सब कुछ होते हुए भी जिनसेनत्रिवर्णाचारमें उपर्युक्त तीनों पद्योंको इस प्रकारसे बदल कर रक्खा है:--
"श्रीगौतमर्षिद्विजवंशरत्नं श्रीजैनमार्ग प्रविवुद्धतत्त्वः। वाचं तु तस्यैव विलोक्य शास्त्रं कृतं विशेषान्मुनिजैनसेनैः॥
(पर्व ४ श्लो० अन्तिम ) कर्म प्रतीतिजननंगृहिणां यदुक्तं श्रीगौतमर्षिगणविप्रकवीश्वरेण सम्यक् तदेवविधिवत्प्रविलोक्य सूक्तं श्रीजैनसेनमुनिभिः शुभमंत्र
पूर्वम् । ( पर्व ७ श्लो० अन्तिम ) . . .१ इस ब्रह्मसूरि त्रिवर्णाचारकी परीक्षा भी एक स्वतंत्र लेखद्वारा की जायगी।
-लेखक ।
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विवाहयुक्तिः कथिता समस्ता संक्षेपतः श्रावकधर्ममार्गात् । श्रीगौतमर्षिप्रथितं पुराणमालोक्य भट्टारकजैनसेनैः ॥" ...
(पर्व १५ श्लो. अन्तिम) इन तीनों पद्योंमें सोमसेनके स्थानमें 'जैनसेन' का परिवर्तन तो वही है, जिसका जिकर पहले आचुका है। इसके सिवाय 'श्रीब्रह्मसूरि के स्थानमें ' श्रीगौतमर्षि ' ऐसा विशेष परिवर्तन किया गया है । यह विशेष परिवर्तन क्यों किया गया है और क्यों 'ब्रह्मसूरि' का नाम उड़ाया गया है, इसके विचारका इस समय अवसर नहीं है। ग्रंथकर्ताने इस परिवर्तनसे इतना सूचित किया है कि मैंने श्रीगौतमस्वामीके किसी ग्रंथ या पुराणको देखकर इस त्रिवर्णाचारके ये तीनों पर्व लिखे हैं। श्रीगौतमस्वामीका बनाया हुआ कोई भी ग्रंथ जैनियोंमें प्रसिद्ध नहीं है। श्रीभूतबलि आदि आचार्योंके समयमें भी, जिस वक्त ग्रंथोंके लिखे जानेका प्रारंभ होना कहा जाता है-गौतम स्वामीका -- बनाया हुआ कोई ग्रंथ मौजूद न था और न किसी प्राचीन आचार्यके ग्रंथमें उनके बनाये हुए ग्रंथोंकी कोई सूची मिलती है। हाँ, इतना कथन ज़रूर पाया जाता है कि उन्होंने द्वादशांगसूत्रोंकी रचना की थी । परन्तु वे सूत्र भी लगभग दो हज़ार वर्षका समय हुआ तब लुप्त हुए कहे जाते हैं। फिर नहीं मालूम जिनसेन त्रिवर्णाचारके कर्ताका गौतमस्वामिके बनाये हुए कौनसे गुप्त ग्रंथसे साक्षात्कार हुआ था जिसके आधार पर उन्होंने यह त्रिवर्णाचार या इसका ४ था, ७ वाँ और १५ वाँ पर्व लिखा है । इन पर्वोको तो देखनेसे ऐसा मालूम होता है. कि इनमें आदिपुराण, पद्मपुराण, एकीभावस्तोत्र, तत्त्वार्थसूत्र, पद्मनंदिपंचविंशतिका, नित्यमहाद्योते, जिनसंहिता और ब्रह्मसूरित्रिवर्णाचारादिक तथा अन्यमतके बहुतसे ग्रंथोंके गद्यपद्यकी एक विचित्र खिचड़ी पकाई गई है । परिवर्तनादिककी इन सब बातोंसे साफ जाहिर
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है कि यह ग्रंथ सोमसेनत्रिवर्णाचारसे अर्थात् विक्रमसंवत् १६६७ से भी पीछेका बना हुआ हैं । वास्तवमें, ऐसा मालूम होता है कि ग्रंथकर्ताने सोमसेनत्रिवर्णाचारको लेकर और उसमें बहुतसा मजमून इधर उधरसे मिलाकर उसका नाम जिनसेनत्रिवर्णाचार रख दिया है । अन्यथा जिनसेन त्रिवर्णाचारके कर्ता महाशय में एक भी स्वतंत्र श्लोक बनानेकी योग्यताका अनुमान नहीं होता । यदि उनमें इतनी योग्यता होती, तो क्या वे पाँच पर्वोंमेंसे एक भी पर्वके अन्तमें अपने नामका कोई पद्य न देते और मंगलाचरण भी दूसरे ही ग्रंथसे उठाकर रखते ? कदापि नहीं । उन्हें सिर्फ दूसरोंके पद्योंमें कुछ नामादिका परिवर्तन करना ही आता था और वह भी यद्वा तद्वा । यही कारण है कि वे १३ पर्वों के अन्तिम काव्योंमें ' सोमसेन' के स्थानमें 'जैनसेन' ही बदल कर रख सके हैं। जिनसेनका बदल उनसे कहीं भी न हो सका । यहाँ पर जिनसेनत्रिवर्णाचारके कर्त्ताकी योग्यताका कुछ और भी दिग्दर्शन कराया जाता है, जिससे पाठकों पर उनकी सारी कलई खुल जायगी :
( क ) जिनसेन त्रिवर्णाचारके प्रथम पर्वमें ४५९ पद्य हैं। जिनमेंसे आदिके पाँच पद्योंको छोड़कर शेष कुल पद्य (४४६ श्लोक) भगवज्जिनसेनप्रणीत आदिपुराणसे लेकर रक्खे गये हैं । ये ४४६ 1 श्लोक किसी एक पर्वसे सिलसिलेवार नहीं लिये गये हैं, किन्तु अनेक पर्वोंसे कुछ कुछ श्लोक लिये गये हैं । यदि जिनसेनत्रिवर्णाचार के कर्ता में कुछ योग्यता होती, तो वे इन श्लोकोंको अपने ग्रंथ में इस ढंग से रखते कि जिससे मजमूनका सिलसिला (क्रम) और सम्बंध ठीक ठीक बैठ जाता । परन्तु उनसे ऐसा नहीं हो सका । इससे साफ ज़ाहिर है कि वे उठाकर रक्खे हुए इन श्लोकोंके अर्थको भी अच्छी
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सरह न समझते थे । उदाहरणके तौर पर कुछ श्लोक नीचे उद्धृत किये जाते हैं:
ततो युगान्ते भगवान्वीरः सिद्धार्थनन्दनः । विपुलाद्रिमलं कुर्वन्तेकदास्ताखिलार्थदृक् ॥ ६॥
अथोपसृत्य तत्रैनं पश्चिमं तीर्थनायकम्। . पप्रच्छामुं पुराणार्थ श्रेणिको विनयानतः ॥७॥ तं प्रत्यनुग्रहं भर्तुरवबुध्य गणाधिपः । पुराणसंग्रहं कृत्स्नमन्वोचत्स गौतमः॥८॥ अत्रान्तरे पुराणार्थकोविदं वदतां वरं। पप्रच्छुर्मुनयो नम्रा गौतमं गणनायकम् ॥ ९॥ भगवन्भारते वर्षे भोगभूमिस्थितिच्युतौ। कर्मभूमिव्यवस्थायां प्रसृतायां यथायथम् ॥ १० ॥ तदा कुलधरोत्पत्तिस्त्वया प्रागेव वर्णिता।
नाभिराजश्च तत्रान्त्यो विश्वक्षत्रगणाग्रणीः ॥ ११ ॥ इन श्लोकोंमेंसे श्लोक नं० ६ मंगलाचरणके बादका सबसे पहला श्लोक है। इसीसे ग्रंथके कथनका प्रारंभ किया गया है। इस श्लोकमें 'ततो' शब्द आया है जिसका अर्थ है 'उसके अनन्तर'; परन्तु उसके किसके ? ऐसा इस ग्रंथसे कुछ भी मालूम नहीं होता। इस लिए यह श्लोक यहाँ पर असम्बद्ध है। इसका 'ततो' शब्द बहुत ही खटकता है।
आदिपुराणके प्रथम पर्वमें इस श्लोकका नम्बर १९६ है। वहाँ पर इससे पहले कई श्लोकोंमें महापुराणके अवतारका-कथासम्बंधका-सिलसिलेवार कथन किया गया है। उसीके सम्बन्धमें यह श्लोक तथा इसके बादके दो श्लोक नं. ७ और ८ थे।
अन्तके तीनों श्लोक ( नं.९-१०-११ ) आदिपुराणके १२ वें पर्वके हैं । उनका पहले तीनों श्लोंकोंसे कुछ सम्बंध नहीं मिलता।
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श्लोक नं. ९ में 'अत्रान्तरे' ऐसा पद इस बातको बतला रहा है कि गातमस्वामि कुछ कथन कर रहे थे जिसके दरम्यानमें मुनियोंने उनसे कुछ सवाल किया है। वास्तवमें आदिपुराणमें ऐसा ही प्रसंग था। वहाँ ११ वें पर्वमें वज्रनाभिका सर्वार्थसिद्धिगमन वर्णन करके १२ वें पर्वके प्रथम श्लोकमें यह प्रस्तावना की गई थी कि अब वज्रनाभिके स्वर्गसे पृथ्वी पर अवतार लेने आदिका वृत्तान्त सुनाया जाता है। उसके बाद दूसरे नम्बर पर फिर यह श्लोक नं. ९ दिया था। परन्तु - यहाँ पर वज्रनाभिके सर्वार्थसिद्धिगमन आदिका वह कथन कुछ भी न लिखकर एकदम १०-११ पर्व छोड़कर १२ वें पर्वके इस श्लोकसे ऐसे कई श्लोक विना सोचे समझे नकल करडाले हैं जिनका मेल पहले श्लोकोंके साथ नहीं मिलता। अन्तके ११ वें श्लोकमें त्वया प्रागेव वर्णिता' इस पदके द्वारा यह प्रगट किया गया है कि कुलकरोंकी उत्पत्तिका वर्णन इससे पहले दिया जा चुका है । आदिपुराणमें ऐसा है भी । परन्तु इस ग्रंथमें ऐसा नहीं किया गया । इस लिए यहाँ रक्खा हुआ यह श्लोक त्रिवर्णाचारके कर्ताकी बे समझी जाहिर कर रहा
"देवाद्य यामिनीभागे पश्चिमे सुखनिद्रिता। अद्राक्षं षोडशस्वप्नानिमानत्यद्भुतोदयान् ॥ ७३॥ वदेतेषां फलं देव शुश्रूषा मे विवर्द्धते। अपूर्वदर्शनात्कस्य न स्यान्कौतुकवन्मनः ॥ ७४॥" इन दोनों श्लोकोंमेंसे पहले श्लोकमें 'इमान्' शब्दद्वारा आगे स्वप्नोंके नामकथनकी सूचना पाई जाती है। और दूसरे पद्यमें 'एतेषां' शब्दसे यह जाहिर होता है कि उन स्वप्नोंका नामादिक कथन कर दिया गया; अब फल पूछा जाता है। परन्तु इन दोनों श्लोकोंके मध्यमें १६ स्वप्नोंका नामोल्लेख करनेवाले कोई भी पद्य नहीं .
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हैं। इससे ये दोनों पद्य परस्पर असम्बद्ध मालूम होते हैं । आदिपुराणके १२ वें पर्वमें इन दोनों श्लोकोंका नम्बर क्रमशः १४७ और १५३ है । इनके मध्य में वहाँ पाँच पद्य और दिये हैं; जिनमें १६ स्वप्नोंका विवरण है । ग्रंथकर्ताने उन्हें छोड़ तो दिया, परन्तु यह नहीं समझा कि उनके छोड़नेसे ये दोनों श्लोक भी परस्पर असम्बद्ध हो गये हैं।
" महादानानि दत्तानि प्रीणितः प्रणयजिनः । निर्मापितास्ततो घंटाजिनविम्बैरलंकृताः ॥ ३३१ ॥ चर्कवर्ती तमभ्येत्य त्रिप्ररीत्य कृतः स्तुतिः महामहमहां पूजां भक्तया निर्वर्तयन्स्वयम् ॥ ३३२ ॥ चतुर्दशदिनान्येवं भगवन्तमसेवत ॥ (पूर्वार्ध) ३३३ ॥ *
इन पद्योंमेंसे पहेल पद्यका दूसरे पद्यसे कुछ सम्बंध नहीं मिलता । दूसरे पद्यमें ' चक्रवर्ती तमभ्येत्य' ऐसा पद आया है, जिसका अर्थ है ' चक्रवर्ती उसके पास जाकर' । परन्तु यहाँ इस 'उस' (तम्) शब्दसे किसका ग्रहण किया जाय ? इस सम्बन्धको बतलानेवाला कोई भी पद्य इससे पहले नहीं आया है । इसलिए यह पद्य यहाँ पर बहुत भद्दा मालूम होता है । वास्तवमें पहला पद्य आदिपुराणके ४१ वें पर्व है, जिसमें भरतचक्रवर्तीने दुःस्वप्नोंका फल सुनकर उनका शान्तिविधान किया है। दूसरा पद्य आदिपुराणके ४७ वें पर्वका है और उस वक्तसे सम्बंध रखता है, जब भरतमहाराज आदीश्वरभग
I
* पद्य. नं. ३३१ आदिपुराणके ४१ वें पर्वके श्लोक नं. ८६ के उत्तरार्ध और नं. ८७ के पूर्वार्धको मिलकर बना है। श्लोक नं. ३३२ पर्व नं. ४७ के श्लोक नं. ३३७ और ३३८ के उत्तरार्ध और पूर्वाधोंको मिलानेसे बना है । और श्लोक नं. ३३३ का पूर्वार्ध उक्त ४७ वें पर्वके श्लोक नं. ३३८ का उत्तरार्ध है।
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वान्की स्थितिका और उनकी ध्वनिके बन्द होने आदिका हाल सुनकर उनके पास गये थे और वहाँ उन्होंने १४ दिन तक भगवान्की सेवा की थी। ग्रंथकर्ताने आदीश्वरभगवान् और भरतचक्रवर्तीका इस अवसरसम्बन्धी हाल कुछ भी न रखकर एकदम जो ४१ वें पर्वसे ४७ वें पर्वमें छलाँग मारी है और एक ऐसा पद्य उठाकर रक्खा है जिसका पूर्व पद्योंसे कुछ भी सम्बंध नहीं मिलता, उससे साफ जाहिर है कि ग्रंथकर्ताको आदिपुराणके इन श्लोकोंको ठीक ठीक समझनेकी बुद्धि न थी। (ख) इस त्रिवर्णाचारका दूसरा पर्व प्रारंभ करते हुए लिखा है कि
"प्रणम्याथ महावीरं गौतमं गणनायकम् । प्रोवाच श्रेणिको राजा श्रुत्वा पूर्वकथानकम् ॥१॥ त्वत्प्रसादाच्छ्रतं देव त्रिवर्णानां समुद्भवम् । अथेदानी च वक्तव्यमाह्निकं कर्मप्रस्फुटम् ॥२॥" अर्थात् राजा श्रेणिकने पूर्वकथानकको सुनकर और महावीरस्वामी तथा गौतम गणधरको नमस्कार करके कहा कि, हे देव ! आपके प्रसादसे मैंने त्रिवर्णों की उत्पत्तिका हाल तो सुना; अब स्पष्ट रूपसे आह्निक कर्म (दिनचर्या) कंथन करने योग्य है । राजा श्रेणिकके इस निवेदनका गौतम स्वामीने क्या उत्तर दिया, यह कुछ भी न बतलाकर, ग्रंथकर्ताने इन दोनों श्लोकोंके अनन्तर ही, 'अथ क्रमेण सामायिकादिकथनम्, ' यह एक वाक्य दिया है और इस वाक्यके आगे यह पद्य लिखा है:." ध्यानं तावदहं वदामि विदुषां ज्ञानार्णवे यन्मतमात रौद्रसधय॑शुक्लचरमं दुःखादिसौख्यप्रदम् ॥ पिंडस्थं च पदस्थरूपरहितं रूपस्थनामापरम् । तेषां भिन्नचतुश्चतुर्विषयजा भेदाः परे सन्ति वै॥३॥"
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ऊपरके दोनों श्लोकोंके सम्बंधसे ऐसा मालूम होता कि गौतम स्वामीने इस पद्यसे आह्निक कर्मका कथन करना प्रारंभ किया है
और इस पद्यमें आया हुआ ' अहं' (मैं) शब्द उन्हींका वाचक है। परन्तु इस पद्यमें ऐसी प्रतिज्ञा पाई जाती है कि मैं ज्ञानार्णव ग्रंथके अनुसार ध्यानका कथन करता हूँ। क्या गौतम स्वामिके समयमें भी ज्ञानार्णव ग्रंथ मौजूद था और आह्निक कर्मके पूछने पर गौतमस्वामीका ऐसा ही प्रतिज्ञावाक्य हो सकता है ? कदापि नहीं । इस लिए आदिके दोनों श्लोकोंका इस तीसरे पद्यसे कुछ भी सम्बंध नहीं मिलता-उपर्युक्त दोनों श्लोक बिलकुल व्यर्थ मालूम होते हैं और इन श्लोकोंके रखनेसे ग्रंथकर्ताकी योग्यतामें वट्टा लगता है। यह तीसरा पद्य और इससे आगेके बहुतसे पद्य, वास्तवमें, सोमसेनत्रिवर्णाचारके पहले अध्यायसे उठाकर यहाँ रक्खे गये हैं।
(ग) इस त्रिवर्णाचारके १३ वें पर्वमें संस्कारोंका वर्णन करते हुए एक स्थानपर ' अथ जातिवर्णनमाह .' ऐसा लिखकर नम्बर २३ से ५९ तक ३७ श्लोक दिये हैं। इन श्लोकोंमेंसे पहला और अन्तके दो श्लोक इस प्रकार हैं:-- .
"शूद्राश्चावरवर्णाश्च वृषलाश्च जघन्यजाःआचंडालात्तु संकीर्णा अम्बष्ठकरणादयः ॥ २३ ॥ प्रतिमानं प्रतिबिम्बं प्रतिमा प्रतियातना प्रतिच्छाया। प्रतिकृतिरर्चा पुंसि प्रतिनिधिरूपमोपमानं स्यात् ॥ ५८॥ वाच्यलिंगाः समस्तुल्यः सदृक्षः सदृशः सदृक् । साधारणः समानश्च स्युरुत्तरपदे त्वमी ॥ ५९॥" इस सब श्लोकोंको देकर अन्तमें लिखा है कि, ' इति जातिकथनम्' इससे विदित होता है कि ये सब ३७ श्लोक ग्रंथकाने जातिप्रकरणके समझ कर ही लिखे हैं। परन्तु वस्तुतः ये श्लोक ऐसे
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नहीं हैं । यदि आदि के कुछ श्लोकोंको जातिप्रकरणसम्बंधी मान भी लिया जाय, तो भी शेष श्लोकोंका तो जातिप्रकरणके साथ कुछ भी सम्बंध मालूम नहीं होता; जैसा कि अन्तके दोनों लोकों से प्रगट है कि एक 'प्रतिमा' शब्दके नाम ( पर्यायशब्द ) दिये हैं और दूसरे में ' समान' शब्दके । वास्तवमें ये कुल श्लोक अमरकोश द्वितीय कांडके 'शूद्र' ' वर्गसे उठाकर यहाँ रक्खे गये हैं । इनका विषय शब्दोंका अर्थ है, न कि किसी खास प्रकरणका वर्णन करना | मालूम नहीं, ग्रंथकर्तीने इन अप्रासंगिक श्लोकोंको नकल करने का कष्ट क्यों
उठाया ।
(घ) इस त्रिवर्णाचार के १२ वें पर्वमें एक स्थान पर, ' अथ प्रसूतिस्नानं ' ऐसा लिखकर नीचे लिखे दो लोक दिये हैं:" लोकनाथेन संपूज्यं जिनेद्रपदपंकजम्।
वक्ष्ये कृतोऽयं सूत्रेषु ग्रंथं स्वर्मुक्तिदायकम् ॥ १ ॥ प्रसूतिस्नानं यत्कर्म कथितं यज्जिनागमे । प्रोच्यते जिनसेनोऽहं शृणु त्वं मगधेश्वर ॥२॥ ये दोनों श्लोक बड़े ही विचित्र मालूम होते हैं । ग्रंथकर्ताने इधर उधर से कुछ पदोंको जोड़कर एक बड़ा ही असमंजस दृश्य उपस्थित कर दिया है। पहले श्लोकका तो कुछ अर्थ ही ठीक नहीं बैठता, - उसके पूर्वार्धका उत्तरार्धसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं मिलता रहा दूसरा श्लोक उसका अर्थ यह होता है कि, 'प्रसूतिस्नान नामका जो कर्म जिनागममें कहा गया हैं, मैं जिनसेन कहा जाता है, है श्रेणिक राजा तू सुन ।' इस श्लोक में 'प्रोच्यते जिनसेनोऽहं ' यह पद बड़ा विलक्षण है | व्याकरण शास्त्र के अनुसार ' प्रोच्यते' क्रियाके साथ. ' जिनसेनोऽहं' यह प्रथमा विभक्तिका रूप नहीं आसकता और ' जिनसेनोऽह' के साथ 'प्रोच्यते' ऐसी क्रिया नहीं बन सकती । इसके
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सिवाय जिनसेनका राजा श्रेणिकको सम्बोधन करके कुछ कहना भी नितान्त असंगत है। राजा श्रेणिकके समयमें जिनसेनका कोई अस्तित्व ही न था । ग्रंथकर्ताको शब्दशास्त्र और अर्थशास्त्रका कितना ज्ञान था और किस रीतिसे उन्हें शब्दोंका प्रयोग करना आता था, इसकी सारी कलई ऊपरके दोनों श्लोकोंसे खुल जाती है । इसी प्रकारके और भी बहुतसे अशुद्ध प्रयोग अनेक स्थानों पर पाये जाते हैं। चौथे पर्वमें, जहाँ नदियोंको अर्घ चढाये गये हैं वहाँ, बीसियों जगह 'नबैकोऽर्घः' 'सुवर्णकूलायकोऽर्घः' तीर्थदेवतायैकोऽर्घः, इत्यादि अशुद्ध पद दिये गये हैं; जिनसे ग्रंथकर्ताकी संस्कृत-योग्यताका परिचय मिलता है।
(ङ) इसी १२ वें पर्वमें, 'प्रसूतिस्नान' प्रकरणसे पहले मूल और अश्लेषा नक्षत्रोंकी पूजाका विधान वर्णन करते हुए इस प्रकार लिखा है:---- 'ॐठाठः स्वाहा' ए मंत्र भणी सर्षप तथा सुवर्णसूं अभिषेक कीजे । पाछै दिसि बांधि तत्र भणनं 'ऊँ नमो दिसि विदिसि आदिसो । ठऊ दिशउ भ्यः स्वाहा।' ए मंत्र त्रण बार भणीयं ताली ३ दीजइ । आषांड छाली भणीइं पहिलो कह्यो ते एवि. धि करीने माता पिता बालकनुं हाथ दिवारी सघली वस्तनई दान दीजे । पाछै अठावीस नक्षत्र अने नव ग्रहना मंत्र भणीइं माने खोलै बालक बैसारिये । पिता जिमणे हाथ वैसारीइं। पितानै माताना हाथमांहि ज्वारना दाणा देईन मंत्र भणीइं । पहिलो कह्यो ते मंत्र भणीइं । ए विधि करीने माता बालकनुं हाथ दिवारी सघली वस्तुनइ दान दीजे । पूजाना करणहारनै सर्व वस्तु दीजे । पाछै 'ॐ तदुलः'ए मंत्र भणी शांति भणीइं । पाछै जिमण देईनें वालीइ । इति मूल अश्लेषा पूजाविधि समाप्तः।"
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संस्कृत ग्रंथ में इस प्रकारकी गुजराती भाषाके आने से साफ़ यह मालूम होता है कि ग्रंथकर्ताको स्वयं संस्कृत बनाना न आता था और जब उनको उपर्युक्त पूजाविधि किसी संस्कृत ग्रंथमें न मिल सकी, तब उन्होंने उसे अपनी भाषामें ही लिख डाला है । और भी दो एक स्थानों 1 पर ऐसी भाषा पाई जाती है, जिससे ग्रंथकर्ताकी निवासभूमिकाअनुमान होना भी संभव है ।
योग्यताके इस दिग्दर्शनसे, पाठकगण स्वयं समझ सकते हैं कि जिनसे - त्रिवर्णाचार के कतीको एक भी स्वतंत्र श्लोक बनाना आता था कि नहीं।
यहाँ तकके इस समस्त कथनसे यह तो सिद्ध होगया कि, यह - ग्रंथ (जिनसेनत्रिवर्णाचार) आदिपुराणके कर्ता भगवज्जिनसेनका बनाया हुआ नहीं है और न हरिवंशपुराणके कर्ता दूसरे जिनसेन या तीसरे और चौथे जिनसेनका ही बनाया हुआ है । बल्कि सोमसेनत्रिवर्णाचारसे बादका अर्थात् विक्रमसंवत् १६६७ से भी पीछेका बना हुआ है । साथ ही ग्रंथकर्ताकी योग्यताका भी कुछ परिचय मिल गया । परन्तु यह ग्रंथ वि० सं० १६६७.से कितने पीछेका बना हुआ है और किसने बना-या है, इतना सवाल अभी और बाकी रह गया है ।
जैनसिद्धान्तभास्करद्वारा प्रकाशित हुई और पुष्करगच्छसे सम्बन्ध रखनेवाली सेनगुणकी पट्टावलीको देखनेसे मालूम होता है कि भट्टारक श्रीगुणभद्रसूरिके पट्ट पर एक सोमसेन नामक भट्टारक हुए हैं । सोमसेनत्रिवर्णाचार में भट्टारक सोमसेन भी अपनेको पुष्करगच्छ में गुणभद्रसूरिके पट्ट पर प्रतिष्ठित हुए बतलाते हैं। इससे . पट्टावली और त्रिवर्णाचार के कथनकी समानता पाई जाती है । अर्थात् यह मालूम होता है कि पट्टावलीमें गुणभद्रके पट्ट पर जिन सोमसेन
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भट्टारकके प्रतिष्ठित होनेका कथन है उन्हींका सोमसेन त्रिवर्णाचार बनाया हुआ है। इन सोमसेनके पट्ट पर उक्त पट्टावलीमें जिनसेन भट्टारकके प्रतिष्ठित होनेका कथन किया गया है। हो सकता है कि जिनसेनत्रिवर्णाचार उन्हीं सोमसेन भट्टारकके पट्ट पर प्रतिष्टित होनेचाले जिनसेन भट्टारकका सम्पादन किया हुआ हो और इस लिए विक्रमकी १७ वीं शताब्दीके अंतमें या १८ वीं शताब्दीके आरंभमें इस ग्रंथका अवतार हुआ हो । परन्तु पट्टावलीमें उक्त जिनसेन भट्टारककी योग्यताका परिचय देते हुए लिखा है कि, वे महामोहान्धकारसे ढके हुए संसारके जनसमूहोंसे दुस्तर कैवल्य मार्गको प्रकाश करनेमें दीपकके समान थे और बड़े दुर्धर्ष नैय्यायिक कणाद वैय्याकरणरूपी हाथियोंके कुंभोत्पाटन करनेमें लम्पट बुद्धिवाले थे, इत्यादि । यथाः
"तत्पट्टे महामोहान्धकारतमसोपगूढभुवनभवलग्नजनताभि दुस्तरकैवल्यमार्गप्रकाशकदीपकानां, कर्कशतार्किककणादवैय्याकरणबृहत्कुंभिकुंभपाटनलम्पटधियां, निजस्वस्याचरणकणखंजायिनचरणयुगादेकाणां, श्रीमद्भट्टारकवर्य सूर्यश्रीजिनसेनभट्टारकाणाम् ॥ ४८॥"
यदि जिनसेन भट्टारककी इस योग्यतामें कुछ भी सत्यता है तो कहना होगा कि यह 'जिनसेन त्रिवर्णाचार' उनका बनाया हुआ नहीं है । क्योंकि जिनसेनत्रिवर्णाचारके कर्ताकी योग्यताका जो दिग्दर्शन ऊपर कराया गया है उससे मालूम होता है कि वे एक बहुत मामूली अदूरदर्शी और साधारण बुद्धिके आदमी थे। और यदि सोमसेन भट्टारकके पट्ट पर प्रतिष्ठित होनेवाले जिनसेन भट्टारककी, वास्तवमें, ऐसी ही योग्यता थी जैसी कि जिनसेनत्रिवर्णाचारसे जाहिर है-पट्टीवलीमें दी हुई __ १ सेनगणकी पट्टावलीका केवल संस्कृत गद्य ही अच्छा है । इतिहासकी दृष्टिसे उसका कुछ अधिक मूल्य नहीं मालूम होता है। उसके कर्ता चाहे जिसको चाहे जितना बड़ा बना दे सकते हैं । गुणभद्राचार्यको उन्होंने द्वादशांगका ज्ञाता बतला दिया है!! -सम्पादक।
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योग्यता नितान्त असत्य है तो कह सकते हैं कि उन्हीं भट्टारकजीने यह जिनसेनत्रिवर्णाचार बनाया है। परन्तु फिर भी इतना जरूर कहना होगा कि उन्होंने सोमसेन भट्टारकके पट्ट पर होनेवाले जिनसेन भट्टारककी हैसियतसे इस ग्रंथको नहीं बनाया है । यदि ऐसा होता तो वे इस ग्रंथमें कमसे कम अपने गुरु या पूर्वज सोमसेन भट्टारकका जरूर उल्लेख करते, जैसा कि आम तौर पर सब भट्टारकोंने किया है । और साथ ही उन पद्योंमेंसे ब्रह्ममुरिका नाम उड़ाकर उनके स्थानमें 'गौतमर्षि' न रखते जिनको उनके पूर्वज सोमसेनने बड़े गौरवके साथ रक्खा था; वल्कि अपना कर्तव्य समझकर ब्रह्मसूरिके नामके साथ साथ सोमसेनका नाम भी और अधिक देते । परन्तु ऐसा नहीं किया गया, इससे जाहिर है कि यह ग्रंथ उक्त भट्टारककी हैसियतसे नहीं बना है। बहुत संभव है कि जिनसेनके नामसे किसी दूसरे ही व्यक्तिने इस ग्रंथका सम्पादन किया हो; परन्तु कुछ भी हो,-भट्टारक जिनसेन इसके विधाता हों या कोई दूसरा व्यक्ति इसमें सन्देह नहीं कि जिसने भी इस त्रिवर्णाचारका सम्पादन किया है, उसका आभिप्राय जरूर रहा है कि यह ग्रंथ सोमसेन और ब्रह्मसूरिके त्रिवर्णाचारोंसे पहला, प्राचीन और अधिक प्रामाणिक समझा जाय । यही कारण है जो उसने सोमसेन त्रिवर्णाचारके अनेक पद्योंमेंसे 'ब्रह्मसूरि' का नाम उडाकर उसके स्थानमें गौतम स्वामीका गीत गाया है और सोमसेन त्रिवर्णाचारका-जिसकी अपने इस ग्रंथमें नकल ही नकल कर डाली है-नाम तक भी नहीं लिया है। इसी प्रकार एक स्थानपर पं० आशाधरजीका नाम भी उड़ाया है; जिसका विवरण इस प्रकार
___सोमसेनत्रिवर्णाचारके १० वें अध्यायमें निम्नलिखित चार पद्य पंडित आशाधरके हवालेसे 'अथाशाधर ' लिखकर उद्धृत किये गये हैं । यथाः
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अथाशाधरः
स्वयं समुपविष्टोऽद्यात्पाणिपात्रेऽथ भाजने । स श्रावकगृहं गत्वा पात्रपाणिस्तदङ्गणे ॥ १४६ ॥ स्थित्वा भिक्षां धर्मलाभं भणित्वा प्रार्थयेत वा । मौनेन दर्शयित्वांगं लाभालाभे समोऽचिरात् ॥ १४७ ॥ निर्गत्यान्यद् गृहं गच्छेद्भिक्षोद्युक्तश्च केनचित् । भोजनायार्थितोऽद्यात्तद्भुक्त्वा यद्भिक्षितं मनाक् ॥ १४८ प्रार्थयेतान्यथा भिक्षां यावत्स्वोदरपूरणीम् ॥
लभेत प्रासुपात्रान्तस्तत्र संशोध्य तां चरेत् ॥ १४२ ॥ जिनसेनत्रिवर्णाचारके १४ वें पर्व में सोमसेनत्रिवर्णाचारके दसवें अध्यायकी मंगलाचरणसहित नकल होनेसे ये चारों पद्य भी उसमें इसी क्रमसे दर्ज हैं । परन्तु इनके आरंभ में ' अथाशाधरः ' के स्थान में ' अथ समंतभद्र: ' लिखा हुआ है । वास्तवमें ये चारों प पं० आशाधरविरचित 'सागारधर्मामृत के ७ वें अध्यायके हैं; जिसमें इनका नम्बर क्रमशः ४०, ४१, ४२, ४३ है । श्रीसमंतभद्रस्वामी के ये वचन नहीं हैं । स्वामी समंतभद्रका अस्तित्व विक्रमकी दूसरी शताब्दी के लगभग माना जाता है । और पं. आशाधरजी विक्रमकी १३ वीं शताब्दी में हुए हैं। मालूम होता है कि जिनसेन त्रिवर्णाचारके बनानवालेने इसी भयसे ' आशाघर' की जगह समंतभद्र का नाम बदला है कि, कहीं आशाधरका नाम आजाने से उसका यह ग्रंथ आशाधरसे पीछेका बना हुआ अर्वाचीन और आधुनिक सिद्ध न हो जाय । यहाँ पर पाठकों के हृदय में स्वभावतः यह सवाल उत्पन्न हो सकता है कि ग्रंथकर्ताको समंतभद्रस्वामीका झूठा नाम लिखनेकी क्या जरूरत थी, वह वैसे ही आशाधरका नाम छोड़ सकता था । परन्तु ऐसा सवाल करने की जरूरत नहीं है। वास्तव में ग्रंथकर्ताको अपने घरकी इतनी अकल ही नहीं थी। उसने जहाँसे जो वाक्य
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उठाकर रखें हैं, उनको उसी तरहसे नकल कर दिया है। सिर्फ जो नाम उसे अनिष्ट मालूम हुआ, उसको बदल दिया है और जहाँ कहीं उसकी समझमें ही नहीं आया कि यह 'नाम' है, वह ज्योंका त्यों रह गया है। इसके सिवाय ग्रंथकर्ताके हृदयमें इस बातका जरा भी भय न था कि कोई उसके ग्रंथका मिलान करनेवाला भी होगा या कि नहीं। वह अज्ञानान्धकारसे व्याप्त जैनसमाज पर अपना स्वच्छंद शासन करना चाहता था। इसीलिए उसने आँख बन्द करके अंधाधुंध, जहाँ जैसा जीमें आया, लिख दिया है। पाठकों पर आगामी अंकमें इसका सब हाल खुल जायगा और यह भी मालूम हो जायगा कि इस त्रिवर्णाचारका कर्ता जैनसमाजका कितना शत्रु था। यहाँ पर इस समय सिर्फ इतना और प्रगट किया जाता है कि इस त्रिवर्णाचारके चौथे पर्वमें एक संकल्प मंत्र दिया है, जिसमें संवत् १७३१ लिखा है। वह संकल्प मंत्र इस प्रकार है:___ “ओं अथ त्रैकाल्यतीर्थपुण्यप्रवर्तमाने भूलोके भवनकोशे मध्यम लोके अद्य भगवतो महापुरुषस्य श्रीमदादिब्रह्मणो मते जम्बूद्वीपके तत्पुरो मेरोदक्षिणे भारतवर्षे आर्यखंडे एतदवसर्पिणीकालावसानप्रवर्तमाने कलियुगाभिधानपचमकाले प्रथमपादे श्रीमहति महावीरवर्द्धमानतीर्थकरोपदिष्टसद्धर्मव्यतिकरे । श्रीगौतमस्वामीप्रतिपादितसन्मार्गप्रर्वतमाने श्रीश्रेणिकमहामंडलेश्वरसमाचरित. सन्मार्गविशेषे सम्वत् १७३१ प्रवर्तमाने अ० संवत्सरे अमुकमासे अमुकपक्षे अमुकतिथौ अमुकवासेर..............." ___ मालूम होता है कि यह संकल्पमंत्र किसी ऐसी याददाश्त (स्मरणपत्र ) परसे उतारा गया है, जिसमें तत्कालीन व्यवहारके लिए किसीने संवत् १७३१ लिख रक्खा था । नकल करते या कराते समय ग्रन्थकर्ताको इस संवतके बदलनेका कुछ खयाल न रहा और इस लिए वह
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बराबर ग्रंथमें लिखा चला आता है। कुछ भी हो, इस सम्वत्से इतना पता जरूर चलता है कि यह ग्रंथ वि० संवत् १६६७ ही नहीं, बल्कि संवत् १७३१ से भी पीछेका बना हुआ है। जहाँ तक मैंने इस विषय पर विचार किया है, मेरी रायमें यह ग्रंथ विक्रमकी अट्ठारहवीं शताब्दीके अन्तका या उससे भी कुछ बादका बना हुआ मालूम होता है और इसका बनानेवाला अवश्य ही कोई धर्त व्यक्ति था।
जुगलकिशोर मुख्तार ता. १२-६-१४.
देवबंद, जि० सहारनपुर । - विविध प्रसंग।
जैन और वैष्णव अग्रवालोंका सम्बन्ध । . ____ जैनमित्रके ज्येष्ठ शुक्ला २ के अंकमें सम्पादक महाशयका एक लेख प्रकाशित हुआ है। उसमें उन्होंने इस बातका उपदेश दिया है कि-"जैन और वैष्णव अग्रवालोंमें जो परस्पर बेटीव्यवहार होता है वह बन्द कर दिया जाय । जैन अग्रवालोंकी संख्या भी थोडी नहीं है। प्रान्तीयता और पहनाव उडावके कारण उन्होंने जो अपने ही भीतर कई भेद कर रक्खे हैं, उन्हें मिटा देना चाहिए और एक छोरसे दूसरे छोर तकके जैन अग्रवालोंमें परस्पर बेटीव्यवहार जारी कर देना चाहिए। वैष्णवोंके साथ सम्बन्ध करनेसे जैन कन्यायें वैष्णव हो जाती हैं और वैष्णव कन्यायें जैन घरमें अपना वैष्णव धर्म साथ लिये आती हैं और कुछ समयमें उस घरको वैष्णव बना डालती हैं । इससे जैनियोंकी संख्या घटती जा रही है।" हमारी समझमें ब्रह्मचारीजीने इस विषय पर अच्छी तरह विचार नहीं किया। जैन वैष्णव अग्रवालोंके पुराने सम्बन्धको तोड़नेमें सिवा हानिके कुछ लाभ नहीं है । प्राचीन भारतकी
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धार्मिक सहिष्णुताका यह एक बचा बचाया नमूना है। यह बतला रहा है कि पहले हम अपने जुदा जुदा धमोंको पालते हुए भी एकता, प्रीति
और सहानुभूतिके साथ रहते थे-हमारा पारलौकिक धर्म हमारे ऐहिक सामाजिक कामोंमें बाधक न होता था। राष्ट्रीयताकी दृष्टि से यह सम्बन्ध बहुत ही महत्त्वका है । इसे तोडनेका विचार भी न करना चाहिए, बल्कि कहीं कहींके अग्रवालोंने जो इसे बन्द कर दिया है उनमें फिरसे जारी करा देना चाहिए। जैनधर्मको इससे कोई हानि नहीं पहुँच सकती और जैनियोंकी संख्या घटनेसे इसका कोई सम्बन्ध नहीं है। क्योंकि जिस तरह इस सम्बन्धसे बहुतसे जैन कुटुम्ब वैष्णव हो जाते हैं, उसी तरह बहुतसे वैष्णव भी तो जैन हो सकते हैं । यदि जैनीकी लडकी वैष्णवके यहाँ जाकर वैष्णव बन जाती है, तो वैष्णवकी लडकी भी तो जैनीके यहाँ आकर जैनी बन जाती है-ऐसे उदाहरणोंकी भी तो कमी नहीं है । वैष्णव धर्ममें ऐसी कोई खास खबी नहीं है कि उसके संसर्गसे जैनी बलात् वैष्णव बन जाय और जैनधर्ममें ऐसी कोई कमी नहीं है कि उसके संसर्गसे कोई जैनी न बने । ऐसी भी कोई बात नहीं है कि वैष्णवोंमें धार्मिक चर्चा कुछ अधिकतासे होती हो और जैनियोंमें न होती हो और इसके कारण लोग वैष्णव बन जाते हों, पर जैन न बनते हों । और थोड़ी देरके लिए यदि यह भी मान लिया जाय कि वर्तमानमें जैनियोंसे वैष्णव बहुत बन गये हैं, तो इसके लिए
और बहुतसे प्रयत्न हो सकते हैं-जातिसम्बन्ध तोडनेकी क्या ज़रूरत है ? जैनी अग्रवाल भाईयोंको चाहिए कि वे अपनी लडकियोंको जैनधर्मकी ऊँचे दर्जेकी शिक्षा दें-उनके हृदयमें श्रद्धाका चिरस्थायी बीज डाल दें और ऐसी पक्की बना दें कि वैष्णव घरमें जाकर भी मजबूत बनी रहें; बल्कि अपने अच्छे स्वभाव और अच्छे विचारोंसे उस सारे घरको ही मुग्ध करके जैन बना लें । हमारे हाथमें तो धर्मप्रचा
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रका यह बड़ा भारी जरिया है-इससे तो हम अपने धर्मकी आशातीत उन्नति कर सकते हैं और हममें यदि कुछ करतूत हो, तो सारे अप्रवालोंको जैन बना सकते हैं । बड़े अफसोसकी बात है कि इस बहुत ही अच्छे द्वारको हम अपने हाथसे बन्द कर देना चाहते हैं। इसी तरह यदि हम अपने कुटुम्बोंको शिक्षा, सदाचार आदि गुणोंसे आदर्श बना दें, सच्चे जैनधर्मका रूप अपने घरमें खड़ा कर दें, तो कट्टरसे कट्टर वैष्णव कन्या आकर भी हमारे आगे सिर झुका देगी । जैनी अग्रवाल कुछ निर्धन भी नहीं है। यदि डर है कि जैनी वैष्णव बन -- जावेंगे, तो उन्हें चाहिए कि इसके लिए खास तौरसे दो चार उपदेशक रख लें, जगह जगह धर्मशिक्षा देनेकी व्यवस्था कर दें और धार्मिक साहित्यका विशेष प्रयत्नसे प्रचार करें । __ इस विषयमें एक बात हमें अवश्य याद रखना चाहिए कि यदि यह सम्बन्ध चिरस्थायी रखना है तो हमें, इस धार्मिक मामलेमें - किसी स्त्री पुरुष पर अनुचित दबाव न डालना चाहिए । हम सिर्फ उपदेश दे सकते हैं, समझा सकते हैं और अपने चरित्रका प्रभाव डाल सकते हैं परन्तु किसी बहू बेटीको जबर्दस्ती किसी धर्म पर आरूढ नहीं कर सकते हैं। यह बात जैन और वैष्णव दोनोंहीको सदा स्मरण रखना चाहिए।
इस बातको हम भी आवश्यक और उचित समझते हैं कि जैन अग्रवालोंमें प्रान्तीयता या पोशाकके कारण जो सम्बन्ध नहीं होता है, वह जारी कर दिया जाय और इसके लिए जल्द उद्योग किया जाय । परन्तु वैष्णवोंका सम्बन्ध कदापि न तोड़ा जाय । यह भी याद रखना चाहिए कि इस सम्बन्धके टूटनेसे अग्रवाल भाईयोंका विवाहक्षेत्र बहुत ही संकुचित हो जायगा और फिर उन्हें और और अल्पसंख्यक जातियोंके समान ही वरकन्यानिर्वाचनका कष्ट भोगना पड़ेगा।
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ब्रह्मचारीजीने एक जगह लिखा है कि-"पहले भी ऐसे दृष्टान्त मिलते हैं जिनमें धर्मका खयाल बहुधा रहा करता था और प्रायः मिथ्यातीसे सम्बन्ध न किया जाता था ।" इसके विरुद्ध सैकड़ों ऐसे प्रमाण भी मिलते हैं, जिनमें जैनियोंने अजैनोंको अपनी लडकियाँ दी हैं और अजैनोंसे ली हैं । हमारे कई कथाग्रन्थोंमें ही ऐसी कई घटना
ओंका उल्लेख है । दक्षिण और कर्णाटकके पिछले राजाओंके इतिहासमें ऐसे बीसों उदाहरण हैं, जो आवश्यकता होने पर प्रकट किये जा सकते हैं । वास्तवमें समान वर्णकी जातियोंमें पारस्परिक सम्बन्धके समय धर्मकी ओर क्वचित् ही लक्ष्य दिया जाता था।
अन्तमें हम अग्रवाल भाईयोंको आधुनिक समयके इस नियमका स्मरण कराके इस लेखको समाप्त करते हैं कि 'संसारमें निर्बलोंको जीनेका कोई आधिकार नहीं है।' यदि तुम बलवान् बन सको-अपनी दुर्बलताके कारणोंको दूर कर सको, तो इस प्राचीन सम्बन्धसे डरनेकी कोई आवश्यकता नहीं हैं और यदि निर्बल बने रहना है, तो सम्बन्ध तोड़ देनेसे भी कुछ न होगा-वैष्णवोंसे बचोगे, तो और कोई तीसरा ही आकर तुम्हें हज़म करनेका यत्न करेगा।
२ जैन लाजिककी समाप्ति । . इस लेखका प्रारम्भ २४३८ के ज्येष्ठमें किया गया था और इस अंकमें यह पूरा होता है । अर्थात् लगभग दो वर्षमें इसकी समाप्ति हुई। यह डाक्टर सतीशचन्द्र विद्याभूषण एम. ए, पी. एच. डी. के 'हिस्ट्री आफ दि मिडिवल स्कूल ऑफ इंडियन लाजिक,' नामक ग्रन्थके एक भाग ( जैन भाग ) का अनुवाद है । मित्रवर बाबू दयाचन्द्रजी गोयलीयने जैनहितैषी पर अनुग्रह करके बड़े परिश्रमसे इस कठिन कार्यको समाप्त किया है, इसलिए हम आपका हृदयसे आभार मानते हैं। यदि
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आप कृपा न करते, तो हमारे पाठक उन महत्त्वकी बातोंसे अज्ञात रहते, जो इस लेखके द्वारा प्रकट हुई हैं। जो सज्जन इतिहास और ' न्यायमें थोड़ी बहुत गति रखते हैं, उन्होंने इस लेखको बहुत ही महत्त्वका बतलाया है और वास्तवमें है भी यह ऐसा ही । यदि यह ग्रन्थ इतना अच्छा न होता, तो 'डाक्टर आफ फिलासफी' के कार्समें कभी न रक्खा जाता । इस लेखमें न्यायाचार्योंका जो ऐतिहासिक परिचय दिया गया है, उसके अनेक स्थल हमारे कई पाठकोंको अरुचिकर हुए हैं, बल्कि किसी किसीने तो आक्षेप भी कर डाले हैं; परन्तु यह पहले ही सूचित कर दिया गया था कि इसमें जो कुछ लिखा जायगा, वह सब मूल लेखकका अभिप्राय होगा; अनुवादक या सम्पादक उसका जिम्मेवार नहीं । अब रहा यह कि ऐसे स्थलों पर अनुवादक या सम्पादक अपना नोट लगा देता, सो हमारी समझमें एक नामी विद्वानकी निश्चय की हुई बातका खण्डन करना सहज काम नहीं- इसके लिए पाण्डित्य और परिश्रम दोनोंकी जरूरत है । 'ठीक नहीं है ' कह देना तो सहज है, पर 'क्यों ठीक नहीं है ?' यह लिखना कुछ काम रखता है । अब लेख सम्पूर्ण हो गया है, इसकी जो जो बातें ठीक न हों, विद्वानोंको चाहिए कि परिश्रम करके उनका उत्तर लिखें और पाठकोंका भ्रम दूर कर दें । इस लेखको, विशेष करके इसके न्यायविचारको पढ़ते पढ़ते साधारण पाठक ऊब गये थे और दिन भी बहुत हो गये थे, इस लिए हमने इसे शीघ्र समाप्त कर देना उचित समझा और इससे इस अंकमें हम आचार्य हेमचन्द्रके आगेके केवल उतने ही अंशका अनुवाद प्रकाशित करते हैं, जो इतिहाससे सम्बन्ध रखता है---ग्रन्थोंके 'न्यायविचार'का अंश छोड़ देते हैं । यदि कभी कोई धर्मात्मा महाशय इसे जुदा पुस्तकाकार प्रकाशित करनेकी उदारता दिखलावेंगे, तो उस..
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समय अनुवादक महाशय इसके छोड़े हुए अंशको भी लिख देनेका विश्वास दिलाते हैं।
- ३ पुराने पुराणों में नई मिलावट । हिन्दुओंके अठारह पुराण सुप्रसिद्ध हैं। साधारण लोग इन सबको श्रीव्यासजीके बनाये हुए समझते हैं। बहुतसे श्रद्धालु लोग तो यहाँ तक मानते हैं कि उक्त पुराण जिस रूपमें इस समय मिलते हैं, ठीक इसी रूपमें व्यासजीके द्वारा रचे गये हैं-उनकी रचनामें जरा भी न्यूनाधिकता नहीं की गई है। परन्तु पुराणोंका विचारपूर्वक स्वाध्याय करनेसे इस बातपर विश्वास नहीं होता-उनमें ऐसे सैकड़ों प्रमाण मिलते हैं जिनसे मालूम होता है कि या तो वे बने ही बहुत पीछे हैं, या उनमें बहुतसा भाग पीछेसे मिला दिया गया है। धर्मप्रन्थोंमें इस तरह की मिलावटें बहुत की गई हैं । प्रसिद्ध प्रसिद्ध महात्माओं
और ग्रन्थकर्ताओंके नामसे लोगोंने अपने सैकड़ों भले बुरे विचार इन ग्रन्थोंमें घुसेड़ दिये हैं। महाभारतकी श्लोकसंख्या इस समय लगभग एक लाख है। परन्तु स्वर्गीय बाबू बंकिमचन्द्रने अपने 'कृष्ण चरित'में अनेक युक्तियाँ देकर अच्छी तरह सिद्ध किया है कि मूल महाभारत पच्चीस हजार श्लोकोंसे अधिकका न था ! उन्होंने यह बतलानेकी भी चेष्टा की है कि प्रक्षिप्त भागका अमुक अंश अमुक समयमें बना होगा और अमुक अमुक समयमें । अठारह पुराणोंमें 'भविप्यपुराण' भी एक प्रसिद्ध पुराण है । यह भी व्यासजीका बनाया हुआ कहलाता है । इसे यदि हम निरन्तर वृद्धिशील सचेतन पुराण कहें, तो कह सकते हैं। क्योंकि इसका शरीर बराबर वृद्धिको प्राप्त होता जाता है । सुनते हैं कि प्रत्येक संस्करणमें इसका कुछ भाग बढ़ जाता है और संस्करणसमय तकका भविष्यकथन उसमें शामिल हो जाता
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है। मराठी विविधज्ञानविस्तारकी मईकी संख्यामें 'भविष्यपुराण व म्लेच्छ' इस नामका एक लेख प्रकाशित हुआ है । उससे मालूम होता है कि व्यासजी महाराज इस विचित्र पुराणमें बौद्ध, शक, मुसलमान, छत्रपति शिवाजी, अँगरेज़, और दो चार वायसरायों तकका वर्णन लिख गये हैं ! इसाईयोंकी बायबिलमें जो आदम और हव्वाके द्वारा सृष्टिकी उत्पत्तिका वर्णन है, वह इस पुराणमें जैसाका तैसा नकल कर दिया गया है । आदमको अदम, हव्वाको हव्यवती, अदनके बागको प्रदानका रम्य महावन, सेथको श्वेत, इस तरह उक्त ईसाई कथाके नामोंको संस्कृतकी पोशाक पहना दी गई है । ईसा मसीहकी उत्पत्ति भी कुछ फेरफार करके लिख दी गई है। 'मुहम्मद'को आपने 'महामद' और उनके ' मदीना'को 'मद्रहीन' बना डाला है । मुसलमान शब्दका अर्थ आप यह करते हैं कि जिसका संस्कार मुसलसे (मूसलसे) हो, वह मुसलमान है । अँगरेजोंका. उल्लेख आपने 'गुरुंड' नामसे किया है। उनके मुँह आप बन्दरों जैसे बतलाते हैं ! महाराणी विक्टोरियाका स्मरण आपने 'विकटावती' नामसे किया है। गुरुंड वंशके सात राजाओंका (वायसरायोंका ?) भी उल्लेख है । आपने एक जगह म्लेच्छ भाषाओंका भी वर्णन किया है और उसमें बड़े भारी आश्चर्यकी बात यह है कि ब्रजभाषा और मराठीको भी म्लेच्छ भाषाकी पदवी दे डाली है ! (ब्रजभाषाकी कविताके पृष्ठपोषकोंको व्यासजीकी जल्द खबर लेनी चाहिए।)
इसमें सन्देह नहीं कि पुराणानुयायी लोगोंकी अपने पूर्वजोंके भविष्यकथन पर इतनी प्रगाढ श्रद्धा है कि वे इस अवस्थामें भी भविष्यपुराणको जाली या बनावटी कहनेके लिए तैयार न होंगे और इसलिए इस विषयमें उनसे कुछ कहना न कहना बराबर होगा; तो
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भी जो सज्जन विवेकी और विचारशील हैं, उन्हें सावधान हो जाना चाहिए और पौराणिक साहित्यका अध्ययन केवल श्रद्धा दृष्टिसे नहीं; किन्तु विवेकयुक्त श्रद्धादृष्टिसे करना चाहिए।
४ भारतीय सभ्यताके प्राचीन चिह्न । तिव्वत, चीन, जापान, श्याम, कम्बोडिया, अनाम, जावा, बाली आदि देश और द्वीप किसी समय भारतकी सभ्यतासे ही सभ्य हुए थे। इस बातके अब तक अनेक प्रमाण मिल चुके हैं। अब यह भी पता लगा है कि किसी समय मध्यएशियाके प्रदेशोंमें भी यहींकी सभ्यताकी तूती बोलती थी। विख्यात पर्यटक और आविष्कारक 'डा० वन् ले कक्' कुछ समयसे चीन-तुर्कस्थानमें जमनिके भीतरसे प्राचीन इतिहासकी सामग्रीकी खोज करनेमें लग रहे थे। उन्होंने अब तक मरालवाशीके निकटके कूवा और टूमशुग नामक स्थानोंमें अपना कार्य किया है। इस प्रयत्नमें उन्हें आशातीत सफलता प्राप्त हुई है। अपनी संग्रहकी हुई सामग्रीको वे बड़े बड़े १५२ बाक्सोंमें बन्द करके देशको भेज चुके हैं ! इस सामग्रीमें गान्धार तक्षणशिल्पक बीसों नमूने मिले हैं । वे पत्थरोंपर नहीं उकीरे गये हैं, किन्तु मिट्टीसे बनाये गये हैं और उन पर ऊपरसे रेतचूनेका आस्तर चढ़ाया गया है। बहुतोंके ऊपर अब भी रंग और सोनेके पत्र लगे हुए हैं। बहुतसी हस्तलिखित पुस्तकें भी प्राप्त हुई हैं जिनमें कुछ संस्कृतभाषामें लिखी हुई हैं और कुछ ईराणकी भाषामें। इस समाचारको लिखते हुए प्रवासीके सम्पादक महाशय लिखते हैं कि " हमारे पूर्व पुरुषोंने पहाड पर्वत समुद्र मरुभूमि पार करके न जाने कितने देशोंमें हिन्दू-सभ्यता फैलाई थी और उनके वंशज हम ऐसे हैं कि अपने देशके ही अज्ञानको दूर नहीं कर सकते हैं!"
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५ सिद्धान्तपाठशालाका स्थायी भाण्डार। मोरेनाकी सिद्धान्तपाठशालाका नये सिरेसे परिचय करानेकी जरूरत नहीं। सभी जानते हैं कि यह संस्था जैनसमाजकी एक बड़ी भारी कमीको पूरा कर रही है और अपने ढंगकी अद्वितीय है। जैन धर्मको स्थायी बनाये रखनेके लिए जरूरत है कि उसके वास्तविक तत्त्वों या सिद्धान्तोंका पठनपाठन होता रहे और उनके जाननेवाले, चर्चा करनेवाले और प्रचार करनेवाले विद्वान् बनते रहें। उक्त पाठशाला इसी उद्देश्यसे स्थापित की गई है और अपनी छोटीसी शक्तिके अनुसार वह काम भी कर रही है। अब तक इस पाठशालाका कोई स्थायी भण्डार या ध्रुवफण्ड न था—खास खास लोगोंकी सहायतासे ही चलती थी। पर अब इस तरह काम नहीं चल सकता। इसकी प्रसिद्धि अधिक हो चुकी है, इसलिए दूरदूरके विद्यार्थी पढ़नेके लिए आने लगे हैं। उनकी संख्या बढ़ जानेसे और कई नये अध्यापकोंके रखनेसे खर्च बहुत बढ़ गया है । अब आवश्यक है कि इसके चलानेका स्थायी प्रबन्ध कर दिया जाय । इसके लिए एक स्थायी फण्ड होना चाहिए जिसका कि प्रारंभ इन्दौरके उत्सवमें हो चुका है। एक लाख रुपयेके फण्डसे पाठशालाका काम अच्छी तरह चलने लगेगा। फण्डकी रक्षाके लिए एक ट्रस्ट कमेटी बना दी गई है जिसकी कि शीघ्र ही रजिस्टरी करा दी जायगी। आशा है कि जैनसमाजके धनिकगण इस ओर ध्यान देंगे
और बहुत जल्दी इस रकमको पूरी कर देंगे। सर्वसाधाण लोग भी इस फण्डमें सहायता दे सकें, इसके लिए पाठशालाके मंत्री महाशयने 'एक रुपया फण्ड' खोला है। प्रत्येक धर्मात्मा भाईको इस फण्डके सौ सौ पचास पचास टिकट मँगा लेना चाहिए और अपने नगर ग्रामोंमें जितने टिकट बिक सकें उतने, बेचकर पाठशालाकी सहा
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यता करनी चाहिए। एक एक रुपयेसे हजारों रुपये एकडे हो जाते हैं। .
६ संस्कृतप्राकृतसाहित्यका प्रकाश-कार्य ।। ' हम इस बातको तो बहुत अभिमानके साथ कहने लगे हैं कि हमारे प्राचीन ऋषिमुनि और विद्वान् हजारों उत्तमोत्तम ग्रन्थ बनाकर रख गये हैं और उनमें अनेक ऐसे हैं जिनकी जोडके ग्रन्थ दूसरे. किसी साहित्यमें नहीं है। परन्तु यह कभी नहीं कहते कि उन ग्रन्थों'का उद्धार करनेके लिए, उनको सर्व साधारणकी दृष्टि तक पहुँचानेके लिए और उनके पठनपाठनका सुभीता कर देनेके लिए हमने क्या किया है । अपने इस प्रमाद पर हमें संकोच भी नहीं होता। हम बड़े बड़े विद्यालय और स्कूल स्थापित करनेका उद्योग तो करते हैं, पर यह कभी नहीं सोचते कि विद्यार्थियोंके पढ़नेके लिए आवश्यक ग्रन्थ कहाँसे प्राप्त होंगे? यूनीवर्सिटियोंको दरख्वास्तें तो देते हैं कि औरोंके समान जैनोंके साहित्यके भी संस्कृत प्राकृत ग्रन्थ भरती होना चाहिए, पर इसकी चिन्ता कभी नहीं करते कि कालेजोंके विद्यार्थी उक्त पाठ्य. प्रन्थपावेंगे कहाँसे ? क्या उनके लिए ईडर और नागौरके भट्टारक अपने भण्डार खाली करना पसन्द करेंगे? हमारा दिगम्बर समाज तो ग्रन्थप्रकाशनके कार्यमें सबसे पीछे पड़ा हुआ है। सच पूछा जाय, तो उसने अपने साहित्यके प्रकाश करनेमें उतना भी प्रयत्न नहीं किया है-जितना कि जैनसाहित्यके रासिक अन्य अजैन सज्जनोंने किया है। अब तक प्रकाशित हुए उच्चश्रेणीके दिगम्बर जैनग्रन्थोंका यदि हिसाब लगाया जाय, तो मालूम होगा कि इस कार्यमें निर्णयसागर प्रेसके स्वामी, श्रीयुक्त टी. एस. कुप्पूस्वामी शास्त्री, बंगाल एशियाटिक सुसाइटी, आदि जैनेतर महाशयोंके द्वारा जितने ग्रन्थ मुद्रित हुए हैं,
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उनके बराबर भी जनसमाजके द्वारा नहीं हुए हैं। क्या हमारे लिए यह लज्जाका विषय नहीं है ?
गतवर्ष जब सनातनजैनग्रंथमालाका निकलना शुरू हुआ, तब हमने समझा था कि यह माला स्थायी हो जायगी और इसके द्वारा धीरे धीरे सैकड़ों ग्रंथ प्रकाशित हो जावेंगे । जब हमारे श्वेताम्बरी भाईयों द्वारा 'श्रीयशोविजय ग्रन्थमाला' आदि अनेक ग्रन्थमालायें प्रकाशित हो रही हैं, तब हमारा अपनी इस दिगम्बर समाजकी इकलौती ग्रन्थमालाके स्थायीरूपसे चल निकलनेकी आशा करना स्वाभाविक था। परन्तु ग्रन्थमालाके सम्पादक महाशयसे मालूम हुआ कि इस कामके चलानेके लिए एक उदार महाशयने जो दो हजार रुपयेकी रकम दी थी, वह प्रायः खर्च हो चुकी है-उससे केवल एक अंक और निकल सकेगा । अब तक मालाके ८ अंक निकले हैं, किसी तरह ४ अंक और निकालकर इसकी 'इति श्री' कर देनी पड़ेगी। जैन समाजका ध्यान इस ओर बहुत कम है और इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि अब तक इसके कुल ६० ग्राहक हुए हैं और सौ सौ रुपये देकर पन्द्रह पन्द्रह प्रति लेनेवाले केवल ३ ग्राहक हैं । अब बतलाइए कि लगभग १०० ग्राहकोंके भरोसे -यह कष्टसाध्य और द्रव्यसाध्य काम कैसे चल सकता है ?
क्या हम अपने पाठकोंसे इस विषयमें कुछ उद्योग करनेकी आशा कर सकते हैं ? यदि इस कार्यकी आवश्यकता समझी जाय, तो जैनसमाज इसे बड़ी आसानीसे जारी रख सकता है और थोडे ही दिनोंमें सैकड़ों ग्रन्थ प्रकाशित कर सकता है । नीचे लिखे उपाय ध्यान देने योग्य हैं:
१. ब्रह्मचर्याश्रम हस्तिनापुर, स्याद्वादविद्यालय काशी, सेठ तिलोकचन्द हाईस्कूल इन्दौर, सेठ हुकमचन्द संस्कृत वटालरा रहदै ,
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सिद्धान्तपाठशाला मोरेना, सत्तर्कसुधातरंगिणी पाठशाला सागर, जैन पाठशाला और बोर्डिंग शोलापुर, आदि कई संस्थायें ऐसी हैं जहाँ के पठ-नक्रममें संस्कृत ग्रन्थ ज़ारी हैं और जिनमें तीन हजार से लेकर आठ हज़ार रुपया तकका वार्षिक ख़र्च होता है । क्या इन संस्थाओं का यह कर्तव्य नहीं है कि संस्कृत ग्रन्थोंके प्रकाशकार्य में कुछ सहायता दें ? यदि इनके संचालक चाहें, तो उनके लिए अपनी संस्थाकी ओर से वर्ष भर में दो सौ चार सौ रुपये लगाकर एक ग्रन्थ प्रकाशित करा देना- कोई बड़ी बात नहीं है । जहाँ लोगों से कई हज़ार रुपया माँगते हैं, वहाँ दो सौ चार सौ रुपया और भी माँग लेंगे। इसके सिवाय इस कार्य में घाटा भी नहीं है । आज नहीं, तो पाँच वर्षमें लागत के दाम ज़रूर उठ आवेंगे । यदि ये सब संस्थायें इस कार्यको आवश्यक समझ लें, तो सनातन ग्रन्थमाला के तमाम ग्रन्थ केवल इन्हींकी सहायतासे प्रकाशित हो सकते हैं और लोगोंसे सहायता लेने की या ग्राहक बढ़ानेका जुदा प्रयत्न करनेकी ज़रूरत ही नहीं रहती है। हम समझते हैं, इन संस्थाओं में जो लोग धनकी सहायता देते हैं, वे भी इस कार्यको बुरा न समझेंगे ।
२. जो धनी और समर्थ लोग हर्ष शोकके अवसरों पर सैकड़ों हजारों रुपया नामवरीके लिए खर्च करते हैं, उन्हें इस ओर ध्यान देना चाहिए । ग्रन्थमालाके एक ग्रन्थ, एक अंक, अथवा एक ग्रन्थकी दो सौ चार सौ प्रतियोंकी छपाईका खर्च दे देना उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं है । जितनी प्रतियोंका खर्च वे देगें, उतनी प्रतियों पर उनका स्मारक पत्र छपा दिया जायगा । इससे उनका शिक्षित लोगों में नाम होगा और साथ ही उन ग्रन्थोंके वितरण करनेका पुण्य भी होगा । गुजरात प्रान्त में इस पद्धति से प्रतिवर्ष सैकड़ों ग्रन्थ प्रकाशित होते हैं । ३. ग्रन्थमालाके लगभग १०० ग्राहक हो चुके हैं । ढाई सौ सौ ग्राहक और हो जावें, तो इसका काम मज़ेमें चल सकता है । यदि दश
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दश प्रतियोंके दश, पाँच पाँच प्रतियोंके बीस, दोदो प्रतियोंके पच्चीस ग्राहक बन जावें, तो बातकी बातमें ढाई सौ ग्राहक हो सकते हैं । ऐसे ग्राहकोंके नाम ग्रन्थमालाके आवरण पृष्ठ पर सहायकोंके रूपमें हमेशा छपे रहेंगे । ग्राहकगण चाहे तो अपनी प्रतियोंको जैनसंस्थाओंको भेट दे दिया करें, चाहे विद्वानोंमें वितरण कर दिया करें और चाहे सर्वसाधारणकी लायब्रेरियों में भेज दिया करें। .
सनातनग्रन्थमालाके विषयमें 'पं० पन्नालालजी जैन, मैदागिनी जैनमन्दिर, बनारस सिटी, के पतेसे पत्रव्यवहार करना चाहिए ।
पुस्तक-परिचय। १६ गृहिणीभूषण-लेखक, पं० शिवसहाय चतुर्वेदी । प्रकाशक हिन्दीहितैषी कार्यालय; देवरी जिला सागर । पृष्ठ संख्या १२६। मूल्य आठ आना। कन्यायें जब पत्नी बनती हैं, तबसे लेकर जब वे गृहिणी माता और सन्तानरक्षिका बन जाती हैं, तबतक काममें आनेवाली सब प्रकारकी अच्छी बातें सिखलानेके लिए यह पुस्तक लिखी गई है। स्त्रीके पतिके प्रति, मातापिताके प्रति, सन्तानके प्रति, सम्बन्धियोंके प्रति, पड़ौसियोंके प्रति क्या क्या कर्तव्य हैं, उसे अपना स्वभाव, रहन सहन, वर्ताव आदि कैसा रखना चाहिए; सतीत्व, विनय, शिष्टाचार, लज्जाशीलता, गंभीरता, संतोष, सद्भाव, चरित आदि गुणोंकी व्याख्या; शरीररक्षा, हिसाबकिताब, गर्भरक्षा, सन्तानपालन, गृहकर्म, जाननेकी आवश्यकता; आदि सभी उपयोगी विषयोंका इसमें संग्रह है। भाषा भी शुद्ध और सुगम है। जैनसमाजकी स्त्रियोंमें इस प्रकारकी पुस्तकोंके प्रचारकी बहुत आवश्यकता है। हमने इस पुस्तकको आद्यन्त पढ़ा है-प्रायः कोई बात ऐसी नहीं, जो जैन-विचारोंसे प्रतिकूल हो।
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. १७ मेरे गुरुदेव-लेखक और प्रकाशक वही जो इसके पहलेकी पुस्तकके हैं। जिस समय श्रीयुक्त स्वामी विवेकानन्दजी अमेरिकामें थे, उस समय उन्होंने न्यूयार्क शहरमें अपने गुरुवर्य श्रीरामकृष्ण परमहंसका परिचय देनेके लिए एक व्याख्यान दिया था। इस पुस्तकमें उसी व्याख्यानका हिन्दी अनुवाद है। व्याख्यान बहुत पाण्डित्यपूर्ण और प्रभावशाली है। जैनीभाई भी इसे पढ़कर लाभ उठा सकते हैं । ४८ पृष्टकी पुस्तकका मूल्य चार आना कुछ अधिक मालूम होता है।
१८ दासबोध-अनुवादक, पं० माधवराव सप्रे बी. ए. और पं० लक्ष्मीधर वाजपेयी । प्रकाशक, चित्रशाला प्रेस, पूना । पृष्ठ संख्या लगभग ६०० । मूल्य दो रुपया। छत्रपति महाराज शिवाजीके समयमें समर्थ रामदास नामके एक सुप्रसिद्ध साधु हो गये हैं। शिवाजी महाराज उन्हें अपना गुरुं मानते थे और उनके अनन्य भक्त थे। महाराष्ट्र देशका उद्धार करके उसे स्वतंत्र राष्ट्रके रूपमें खड़ा करनेमें समर्थ रामदासके उपदेशोंने बड़ा काम किया था। समर्थ कोरे साधु ही न थे-वे बड़े भारी वेदान्ती होनेके साथ ही बड़े भारी राजनीतिज्ञ भी थे। उन्होंने अपने उपदेशों, ग्रन्थों और शिष्योंके द्वारा सारे महाराष्ट्रमें स्वाधीनताके भावोंकी-धर्मराज्य स्थापित करनेके विचारोंकी रूह फूंक दी थी। उन्होंने मराठी भाषामें अनेक ग्रन्थोंकी रचना की है, जिनमेंसे दासबोध सबसे प्रसिद्ध है । यह उसी मराठी ग्रन्थका हिन्दी अनुवाद है । अनुवाद बड़ी ही सावधानी और विद्वत्तासे किया गया है। ग्रन्थकर्ताका जीवनचरित खूब विस्तारसे और खोजसे लिखा गया है। 'दासबोधकी आलोचना' ३० पृष्ठोंमें लिखी गई है। इसके पढ़नेसे ग्रन्थका महत्त्व, उसकी विशेषतायें, उसमें निरूपण किये हुए
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विषय आदि सभी बातों का ज्ञान हो जाता है । आलोचना पढ़ने से मालूम होता है कि वह दीर्घकालव्यापी अध्ययन मनन और अन्वेपणका फल है । इस ग्रन्थसे हिन्दी साहित्य में एक बहुमूल्य रत्नकी वृद्धि हुई है। इसका सम्पादन बडे ही परिश्रम से किया गया है । इसके धार्मिक विचारोंसे भले ही कोई सहमत न हो, परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि इसके स्वाध्याय से हर कोई लाभ उठा सकता है और एक राष्ट्रनिर्माता कविकी प्रतिभासे परिचित हो सकता है । छपाई, सफाई, कागज, जिल्द आदि सभी बातें अच्छी हैं । इतने पर भी मूल्य बहुत कम रक्खा गया है
१९ विदूषक -- प्रकाशक, अध्यक्ष एंग्लो ओरियण्टल प्रेस लखनौ । पृष्ठ संख्या १३२ । मूल्य छह आने । लखनौके नागरी प्रचारक में समय समय पर विदूषककी सहीसे विनोदपूर्ण लेख या चुटकिलं छपा करते थे। उनमें से चुने चुने लेखोंका संग्रह इस पुस्तकमें कर दिया गय है। सब मिलाकर २१ लेख हैं । सबही लेखों में विनोद और मनोरंजन के साथ कुछ न कुछ शिक्षा है। किसी किसी लेखमें तो बहुत ही विचार योग्य बातें कही गई हैं। सब ही लेख मौलिक हैं- नकल या अनुवाद नहीं है । इस दृष्टि से हम इस पुस्तकको विशेष आदरणीय समझते हैं ।
२० भारतगीताञ्जलि -- लेखक, पं० मात्र शुक्ल । प्रकाशक, पं० रामचन्द्र शुक्ल वैद्य, कूचा श्यामदास, प्रयाग । मूल्य चार आने । देशभक्तिपूर्ण कविताओंके लिखने में शुक्लजी बडे सिद्धहस्त हैं। इस विषय में आपने बड़ी प्रशंसा प्राप्त की है। हिन्दी के अनेक पत्रों में आपकी कवितायें प्रकाशित हुआ करती हैं। इस पुस्तक में आपकी चुनी हुई ७५ रचनाओं का संग्रह है । कोई कोई रचना तो प्रतिदिन पाठ करने याग्य है। हम चाहते हैं कि इन गीतोंकी पवित्र ध्वनिसे
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भारतका प्रत्येक घर शब्दायमान हो । नमूनेके तौर पर एक हम गजलको यहाँ उद्धृत किये बिना नहीं रह सकते:
वही धन हैं जिन्हें धुन देशकी दिलमें समाई है। है जिनका देशही माता पिता भाई लुगाई है। जिन्हें परवा न खानेकी न पीनेकी न सुध तनकी। जिन्होंने छोड़ घर दर देशहित धूनी रमाई है। सतावे लाख चाहे कोई पर उनको सदा सुख है। जिन्हें आदर निरादर एकसा देता दिखाई है॥ रुलाती हैं जिन्हें नित देशबन्धोंकी गिरी हालत।
मदद उनकी करो प्यारो! इसीमें ही भलाई हैं। - २१ सामान्यनीति काव्य-रचयिता पं० हरदीन त्रिपाठी । प्रकाशक, ग्रन्थप्रकाशक समिति काशी । मूल्य तीन आने । इसमें दीन महाशयकी रची हुई १०८ कुण्डलियाँ हैं। कविता उथली और नीरस है । भाषा भी अच्छी नहीं । अच्छा होता यदि समिति गिरधरकी कुण्डलियोंका संग्रह छपा कर अपने उद्देश्यकी पूर्ति करती ।
२२ वनवासिनी-लेखक, पं० उदयलालजी काशलीवाल । प्रकाशक, हिन्दी जैनसाहित्यप्रसारक कार्यालय बम्बई । मूल्य चार आना । छोटासा सुन्दर और शिक्षाप्रद उपन्यास है। इसका कथाभाग भी सरस और कुतूहलवर्धक है । हमने इसे गुजरातीमें पढ़ा था। इसका मूल नाम ऋषिदत्ता ही रक्खा जाता, तो अच्छा होता । क्योंकि इसक कथाभाग एक श्वेताम्बर ग्रन्थके आधारसे लिखा गया है। मूल्य कुछ अधिक मालूम होता है।
२३ जैनसाहित्यसीरीज-सत्यवादीके सम्पादक पं० उदय. लालजी काशलीवालने बाबू बिहारीलालजीके साथ मिलकर इस ग्रन्थ
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मौलाके निकालनेका प्रारंभ किया है। हमें इसके यशोधरचरित और नागकुमारचरित ये दो काव्य समालोचनार्थ प्राप्त हुए हैं। पहला ग्रन्थ श्रीवादिराजसूरिके यशोधर काव्यका और दूसरा मल्लिषेणसूरिके नागकुमार काव्यका भाषानुवाद है । साथमें मूल ग्रन्थ नहीं है। अनुवाद सरल और मनोरंजक करनेकी कोशिश की गई है। प्रयत्न अच्छा है। हमें आशा है कि जैनसमाज इस सीरीजको अवश्य आश्रय देगा। मूल्य क्रमसे चार और छह आना है । छपाई अच्छी है।
२४ रूपिणी-लेखक व प्रकाशक, श्रीयुक्त दत्तात्रय भीमाजी रणदिवे, वर्धा। श्रेणिकचरितकी एक छोटीसी आनुषंगिक कथाके आधारसे इस छोटेसे उपन्यासकी रचना हुई है। " किसी किसानकी एक रूपिणी नामकी स्त्री थी। वह बहुत ही चंचल और चरित्रहीन थी। उसे अपना पति पसन्द न था । बस्तीके एक बदमाशने उसको अपने हाथमें कर लिया और उसके साथ देशान्तरमें भाग जाना चाहा। निश्चय हो गया कि अमुक समय अमुक स्थान पर दोनों मिलें और परदेशको चल दें। रूपिणीको संकेत स्थलकी ओर जाते समय एक युवा मुनिके दर्शन हुए। वह उन पर मोहित हो गई और प्रेमभिक्षा माँगने लगी। मुनिने उसे प्रभावशाली उपदेश दिया। वह उसके मर्म मर्ममें भिद गया। उसने दृढ पातिव्रत ग्रहण कर लिया और अपने घर लौट गई। पीछे बदमाशने उसकी प्राप्तिके लिए अनेक उपाय किये, पर सफलता न हुई। अन्तमें एक महात्माके पाससे एक गुटिका प्राप्त करके उसने अपना रूप बदल लिया और वह रूपिणीका पति बनकर उसके पास गया। परन्तु उसके हाव भावादि देखकर रूपणीको सन्देह हो गया। इतनेमें पति भी आगया। झगड़ा होने लगा। मामला श्रेणिकके दरबारमें पहुँचा और बुद्धिमान् अभयकुमारने अपनी विल
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क्षण चतुराईसे दूधका दूध और पानीका पानी कर दिया । रूपिणी अपने पति के साथ आनन्द से रहने लगी ।" बस यही इस पुस्तकके आख्यानका सार है । पुस्तक बहुत अच्छे ढंगसे लिखी गई है । इसकी रचना मूल कथासे भी अधिक भावपूर्ण और शिक्षाप्रद हो गई है । एक पुरानी कथाका ऐसा अच्छा रूपान्तर जैनसाहित्य में शायद यही सबसे पहला है । एक अतिशय पतिता स्त्री भी यदि घृणा की दृष्टिसे न देखी जाय और दयापूर्ण हृदयसे समझाई जाय, तो एक आदर्श स्त्री बन सकती है और अपने पूर्वकृत पापोंका प्रायश्चित करने का अवसर पा सकती है । यह इस पुस्तककी प्रधान दिक्षा है | मालूम नहीं, आजकलका समाज इसको मानेगा या नहीं । जो भाई 1 मराठी भाषा समझ सकते हैं, उन्हें यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिए। ६४ पृष्ठकी पुस्तकका मूल्य छह आना अधिक है ।
२५ ऋग्वेदके बनानेवाले ऋषि --- सम्पादक, बाबू सूरजभानु वकील। प्रकाशक, बाबू ज्योतीप्रसाद ए. जे. देवबन्द जिला सहारनपुर। मूल्य छह आने। छापेंकी कृपासे अत्र वेदोंकी प्राप्ति बहुत सुलभ हो गई है। अधिकारका बन्धन भी टूट गया है - जिसके जीमें आवे वही वेदोंको मँगाकर पढ़ सकता है। इसलिए आजकल पढ़े लिखे लोगों में वेदोंकी खूब चर्चा है। जैनसमाज में भी कुछ समय से वेदोंकी चर्चा होने लगी है । परन्तु यह चर्चा केवल खण्डन मण्डनके अभिप्राय से होती है और वह खण्डन मण्डन भी बहुत उथला और हलका होता है। यदि ऐसा न होता, तो इस चर्चासे बहुत लाभ होता। लोग यह जानने लगते कि वेद क्या हैं, उनमें क्या लिखा है और उनका इतना महत्त्व क्यों है । हर्ष है कि यह पुस्तक खण्डन मण्डनके ढंगसे नहीं लिखी गई है । इसके पढ़ने से हमारा वेद
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विषयक ज्ञान बढ़ेगा और हम जान सकेंगे कि वेदोंके बनानेवाले कौन थे। वेद अपौरुषेय नहीं हैं-ईश्वरप्रणीत नहीं हैं। वे प्राचीन कालके ऋषियोंके बनाये हुए मंत्रों छन्दों या भजनोंके संग्रह हैं। कौन मंत्र किस ऋषिका बनाया हुआ है, यह उसी मंत्रसे मालूम हो जाता है। इस पुस्तकमें ऋग्वेदके जितने भागका भाष्य स्वामी दयानन्दजीका किया हुआ है, उतने भागके ऋषियोंके नाम और उनके मंत्र बतलाये गये हैं। इसकी भूमिका यदि कुछ विस्तृत होती और इसमें वेदको अपौरुषेय क्यों मानते हैं, इसके लिए क्या हेतु दिये जाते हैं, इन हेतुओंमें क्या क्या दोष आते हैं, वर्तमान समयके विद्वानोंकी वेदोंके विषयमें क्या राय है, जुदा जुदा भाष्यकार क्या कहते हैं, मंत्रोंमें जो प्रार्थनायें की गई हैं, उनसे पौरुषेयत्व सिद्ध होता है या नहीं; आदि बातोंका स्पष्टीकरण कर दिया जाता, तो पुस्तक और भी उपयोगी हो जाती। ११२ पेजकी पुस्तकमें १४ पेजका शुद्धिपत्र बहुत बुरा मालूम होता है। संशोधनमें इतना प्रमाद न होना चाहिए था।
२६ शाणी-सुलसा-लेखक, मुनिराज, श्रीविद्याविजयजी । प्रकाशक, शाह हर्षचन्द्र भूराभाई, जैनशासन आफिस भावनगर । महावीर भगवानके समयमें श्रेणिकराजाका 'नाग' नामक धर्मात्मा सारथी था। इसकी सुलसा नामकी पतिव्रता और प्रगाढश्रद्धावाली पत्नी थी। सुलसाके कोई पुत्र न था। एक बार उसकी धर्मश्रद्धाकी स्वर्गलोकमें प्रशंसा हुई। उसे सुनकर एक देव उसके दर्शनके लिए मर्त्यलोकमें आया। उसने सुलसासे वर माँगनेको कहा । सुलसाने पुत्रप्राप्तिकी इच्छा प्रकट की । देव ३२ गोलियाँ देकर चला गया
और कह गया कि एक एक गोलीके खानेसे एक एक प्रताप'शाली पुत्र होगा। सुलसा एक ही धीर वीर गुणी पुत्र चाहती थी,
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इसलिए उसने इस इच्छासे बत्तीसों गोलियाँ एक साथ खाली कि इनसे ३२ लक्षणयुक्त एक ही पुत्र उत्पन्न हो । परन्तु उसके एक ही साथ ३२ पुत्र उत्पन्न हो गये ! जब श्रोणिक चिल्लणा या चेलनीके हरण करनेके लिया गया था, तब ये सब पुत्र युद्धमें मारे गये। इससे सुलसा और नाग बड़े ही दुखी हुए। धर्मोपदेशसे उन्हें शान्ति मिली। इसके बाद एक मायावीने सुलसाकी धर्मश्रद्धाकी परीक्षा ली । वह उसमें अच्छी तरह उत्तीर्ण हुई। अन्तमें 'पण्डितमरण' करके सुलसाने शरीर त्याग किया । श्वेताम्बर ग्रन्थोंके आधारसे उक्त कथाको लेकर इस उपन्यासकी रचना की गई है। श्वेताम्बर सम्प्रदायकी बहुत ही कम पुस्तकें अच्छी हिन्दीमें लिखी जाती हैं, परन्तु इसकी हिन्दी
प्रायः शुद्ध है। इसमें संदेह नहीं कि इससे धर्मोपदेश अच्छा मिलेगा; . परन्तु इसे हम उपन्यास नहीं कह सकते; यह सिर्फ प्राचीन कथाका
वर्तमान ढंगमें ढाला हुआ रूपान्तर है। सुलसाके साथ जो 'शाणी' विशेषण लगा हुआ है, उसका अर्थ पूरी पुस्तक पढ़ जाने पर भी हमारी समझमें न आया। पुस्तककी छपाई और काग़ज अच्छा है।
७२ पृष्ठकी पुस्तकका मूल्य दो आना बहुत ही कम है। .. २७ पं० मुन्नीलालजीकी पुस्तकें । पं० जी पहले सिवनी (म० प्र०) की जैनपाठशालामें अध्यापक थे; परन्तु अब अध्यापकी छोड़कर वर्धाके जैन बोर्डिंग हाउसके सुपरिंटेंडेंट हो गये हैं। आपने एक 'जैनधर्मप्रचारक' नामका पुस्तकालय भी खोल रक्खा है। उसंकी ओरसे आप जैनधर्मकी पुस्तकें छपाया करते हैं और इधर उधरकी पुस्तकें भी बेचा करते हैं। आपने हमारे पास १ जिनेद्रदर्शन पाठ, २ समवशरणदर्पण और ३ वैश्य कौमकी हालतका फोटू ये तीन पुस्तकें समालोचनार्थ भेजनेकी कृपा की है।
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पुस्तकें अच्छी हैं और छपाई भी सुन्दर है; परन्तु मूल्य रखनेमें आपने सबका नम्बर ले लिया है। पहली पुस्तक ३२ पेजकी (जैनहितैषीके साइज़की) और दूसरी २५ पेजकी है। इनका अधिकसे अधिक मूल्य दो आना और डेड आना होना चाहिए था; परन्तु आपने पाँच आना और चार आना रख दिया है ! तीसरी पुस्तकका भी यही हाल है। एक रुपये पर चार आना कमीशन देनेका क्या यही मतलब है कि मूल्य पहले ही कई गुना रख लिया जावे ? अच्छा है। कमीशनकी चाटवाले ग्राहक बिना इस हिकमतके दुरुस्त भी न होंगे। 'वैश्य कौमका फोट में आपने उसे हिन्दीमें क्या तर्जुमा किया है सो समझमें न आया। उर्दू लिपिसे नागरी लिपिमें छपा लेनेको ही तो आप तर्जुमा नहीं कहते ? पर लाला ज्योतीप्रसादजी ए. जे. से आपने इस तर्जुमेकी आज्ञा भी ले ली है ? समवसरणदर्पणको आपने धर्मसंग्रहश्रावकाचार परसे उद्धत कर लिया है; पर यह तो कहिए कि श्लोकोंका अर्थ आपहीने किया है, या वहींसे जैसाका तैसा उठाकर रख लिया है ? यदि उद्धृत किया था, तो पहले अर्थ लिखनेवाले महाशयके प्रति कुछ कृतज्ञता ही प्रकाश कर दी होती!
२८ श्रीपालचरित्र, जम्बूस्वामीचरित्र, कुन्दकुन्दाचार्य चरित्र-ये सूरतके दिगम्बर जैनके सातवें वर्षकी चौथी, छठी और पहली भेटकी पुस्तकें हैं। पहली दो पुस्तकें हिन्दीमें हैं और उन्हें पं०दीपचन्दजी परवारने लिखा है। पुराने पद्यग्रन्थोंको गद्यमें परिवर्तन कर दिया है। अच्छा होता, यदि कुछ ढंग बदल दिया जाता और कथाभाग रोचक बनानेका भी प्रयत्न किया जाता। प्रारंभमें, अन्तमें तथा और भी कहीं कहीं जो पद्य दिये हैं, वे न दिये जाते तो अच्छा होता-उनकी रचना अच्छी नहीं । तीसरी पुस्तक
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श्रीयुक्त तात्या नेमिनाथ पांगलकी मराठी पुस्तक का गुजराती अनुवाद है । इसका ऐतिहासिक भाग कथाग्रंथोंके आधारसे लिखा गया है जो बहुत कुछ भ्रमपूर्ण है । उसकी सत्यता सिद्ध करनेके लिये कोई विशेष प्रयत्न नहीं किया गया है । साधारण कथाप्रेमियोंको यह अवश्य रुचिकर होगी। तीनों पुस्तकोंकी छपाई अच्छी है। जुदा खरीदनेवालों के लिए क्रमसे १०),) और =) मूल्य है। दिगम्बर जैनके द्वारा पुस्तकप्रचार खूब हो रहा है। यदि पुस्तकोंका चुनाव कुछ विचार कर किया जाय, तो और अच्छा हो । नीचे लिखी पुस्तकें भी प्राप्त हो चुकी हैं
१ मांसभक्षण पर विचार-प्रकाशक, भारत जैनमहामण्डल, ललितपुर । २ श्वेताम्बर एज्युकेशन बोर्डनो रिपोर्ट और ३ जैन रासमालाप्रकाशक श्वे. जै० कान्फरेंस बम्बई । ४ श्राविकाश्रम बम्बईकी रिपोर्ट । ५ ऋषभब्रह्मचर्याश्रम हस्तिनापुरकी द्वितीय वर्षकी रिपोर्ट । ६ जैनगीतावली-प्र० जैन औद्योगिक कार्यालय, चन्दाबाडी बम्बई । ७ स्वर्गके रत्न ( चतुर्थ खण्ड ) स्वर्गमाला कार्यालय, बनारस सिटी ।
मीठी मीठी चुटकियाँ।
१ टाइटिल बेच दिया है। लाला ज्योतीप्रसादजी जिस समय 'जैनप्रचारक' के सम्पादक थे, उस समय वे अपने नामके साथ 'ए. जे.' का टाइटिल लगाया करते थे। इस समय वे 'जैनप्रदीप' के सम्पादक हैं और जैनप्रचारकके सम्पादक निरपुडा निवासी मुंशी प्यारेलालजी बना
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दिये गये हैं । खबर है कि लाला ज्योतीप्रसादजीने अपना टाइटिल उक्त मुंशीजी के हाथ गाली सुनाने की एवजीमें बेच दिया है । मुबारिक हो ।
२ अफसोस है ।
जैन प्रचारक के वर्तमान सम्पादकने किसी पिछले अंक में लिखा था कि "मैं सम्पूर्ण जैन पत्रोंके बदले में अपना पत्र भेज रहा हूँ; मगर अफसोस है कि मेरे पास बदले में कोई भी पत्र नहीं आता ।"
और पत्रोंके विषयमें तो बन्दा कुछ कह नहीं सकता कि वे क्यों आपसे बदला नहीं करना चाहते। हो सकता है कि आपके पत्रमें ही कोई ऐसी खूबी हो, जो उन्हें बदला न करनेके लिए लाचार करती हो । परन्तु बम्बई के जैनहितैषी, सत्यवादी और जैनमित्र के दफ्तर में यदि कोई उर्दूका पत्र भूला भटका आ पहुँचता है तो, उसका नाम ही जानने के लिए बड़ी बड़ी कोशिशें करनी पड़ती हैं - फिर भी निराश होना पड़ता है । अच्छा हो, यदि आप अपने पत्रके साथ एकाध उर्दू पढ़नेवाला भी यहाँ भेज दिया करें ।
३ विलायती तीर्थंकर |
पंचमकालमें तीर्थकर नहीं होंगे । इसका मतलब यह नहीं है कि तीर्थकर होंगे ही नहीं । नहीं, होंगे तो अवश्य, पर भरतखण्डमें न होंगे; विलायतों में होंगे । भरतखण्डके तीर्थकरोंके पाँच कल्याणक होते थे; परन्तु विलायतवालोंके लिए यह नियम न होगा- उनके चार, तीन, दो, एक कल्याणक भी हो सकेंगे । यहाँ पिछले तीन कल्याणकोंमें ज्ञानके साथ चारित्रका अनिवार्य नियम है, परन्तु विलायतवासी इससे भी मुक्त रहेंगे । कालदोषसे ये सब नियम लोगों को विस्मृत हो गये थे; परन्तु भारतजैनमहामण्डलने अपने दफ्तर में से इनका पुनरुद्धार कर
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डाला है । डाक्टर हर्मन जैकोबी विलायतके पहले और भारतके २६ वें तीर्थकर हैं। भारतके प्राचीन विद्यापीठ काशीमें उनका 'ज्ञानकल्याणक' हुआ और उसी समय वे — जैनदर्शनदिवाकर' अर्थात् ' केवली' के पदसे विभूषित किये गये । जैन शास्त्रोंके अनुसार जैनदर्शनदिवाकर
और केवली या केवलज्ञानी पर्यायवाची शब्द हैं । इस ज्ञानकल्याणकके उत्सवमें देवोंके अवतारस्वरूप पाश्चात्य पण्डित या ग्रेज्युएट विशेषतासे सम्मिलित हुए थे । कुछ लोगोंने पूछना चाहा था कि जैकोबी साहब शराब और मांससे परहेज करते हैं या नहीं? परन्तु इसके उत्तरमें मण्डलने कह दिया कि करते हैं या नहीं, यह तो हम नहीं जानते, परन्तु नई नियमावलीमें तीर्थंकरोंके लिए इस तरहका कोई नियम नहीं है। तीर्थकर भगवानकी राजपूताना और मारवाडके विहारमें जो दिव्य.. ध्वनि खिरी थी, उस पर स्थानकवासी और श्वेताम्बरी श्रावकोंमें प्रतिमा पूजाको लेकर एक बड़ा भारी विवाद खड़ा हो गया है । गणधर तो अनेक थे, परन्तु सुनते हैं उनमें भी मतभेद हो गया है । मालूम नहीं, विलायती तीर्थकर चिट्ठी पत्रीसे अपने उपासकोंका समाधान करते हैं या नहीं! .. - ४ छज्जेकी रहनेवाली जीने पर आ गई।
कलकत्तेकी जैनपाठशालाके विद्यार्थियोंको पारितोषिक वितरण करनेके लिए एक सभाकी गई थी और उसके सभापति रायबहादुर सेठ मेवारामजी बनाये गये थे । कहते हैं कि इस मौके पर सभापति साहबने अपने करकमलोंसे जैनधर्म की क्षत्रचूडामणि, सप्तव्यसनचरित, सूक्तमुक्तावली, गृहस्थधर्म आदि छपी हुई पुस्तकें बाँटी थीं। इस खबरको पढ़कर छापेवालोंकी खुशीका कुछ ठिकाना नहीं रहा है । परन्तु बन्दा तो इसे बहुत ही मामूली बात समझता है-यह तो उस दिन खुश होगा,
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जिंस दिन सेठ मेवारामजी स्वयं ही एक अच्छा प्रेस खोलकर उसके द्वारा जैनग्रन्थोंको छपानेका काम जारी कर देंगे और यह बिलकुल संभव बात है। पाठक विश्वास रखें कि मेरी यह भविष्यद्वाणी अवश्य सच निकलेगी । अभी सेठजी अपनी जगहसे थोडेसे खिसके हैं-धीरे धीरे अपने पास तक भी आ पहुँचेगे। किसी शायरने क्या अच्छा कहा है:
छज्जेकी रहनेवाली जीने पर आ गई। रफ़ते रफते अपने करीने पर आ गई ॥
-लाल बुझक्कड़।
विविध समाचार। पट्टाभिषेक हो गया -आखिर श्रीमती मणीबाईकी कृपासे ज्येष्ठ वदी २ को पं० सुन्दरलालजीका सूरतकी भट्टारककी गद्दी पर पट्टाभिषेक हो गया। सूरतके और बाहरके भाइयोंने बहुत कुछ उछलकूद मचाई; परन्तु पण्डितजी तो भट्टारक महाराज बन ही गये ! आपका नया नाम हुआ है 'भट्टारक सुरेन्द्रकीर्तिजी महाराज' । जब तक सुन्दरलालजी जैसे सदाचारी और विद्वान् जैनसमाजमें पूज्य समझे जा रहे हैं, तब तक मजाल नहीं कि उन्नति उसकी ओर आँख उठाकर भी देख सके।
साधुओंके लिए कानून-मालूम होता है जोधपुर राज्य साधुओंकी शैतानीसे तंग आ गया है। वहाँ जरा जरासे बच्चे मूड लिए जाते हैं और साधु बना दिये जाते हैं। आगे युवावस्थामें उनके चरित्र इतने बिगड़ते हैं कि लोगोंको साधु शब्दसे ही घृणा होने लगती है। वास्तवमें यह बात प्रकृतिके नियमसे विरुद्ध है । जोधपुर
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राज्य इसके लिए एक कानून बनाया चाहता है। उसके अनुसार १८ वर्षसे नीचेका कोई भी नाबालिग साधु न हो सकेगा। जो बना-- यगा, वह कठिन दण्डका भागी होगा।
जैनियोंके लिए सस्ते मकान-बम्बईशहरमें जैनी भाईयोंकी बहुत बड़ी वस्ती है। उनमें सैकड़े पीछे ५ स्वतन्त्र व्यापार करनेवाले, ३ दलाली करनेवाले, २२ साधारण नौकरी करनेवाले और ७० ऐसी नौकरियाँ करनेवाले हैं जिनमें बड़ी कठिनाईसे खाने पीनेकी गुजर होती है-बेचारे ढावोंमें या वीसियोंमें खाते हैं और जहाँ जगह मिलती है वहाँ सो रहते हैं । यहाँ मकानोंका किराया इतना सख्त है कि अच्छे स्वास्थ्यप्रद हवादार जगह मिलना उनके लिए दुश्वार है-इससे बेचारे बीमार होते हैं और इलाजका इन्तजाम न कर सकनके कारण चल बसते हैं। इन सब कष्टों पर श्वेताम्बर समाजके कुछ सज्जनोंकी दृष्टि गई है। वे प्रयत्न कर रहे हैं कि एक कम्पनी खड़ी करके उसकी ओरसे अच्छी जगहोंमें मकानात बनवाये जावें और उनमें जैनी भाई. योंको सस्ते किराये पर अच्छी हवादार कोठरियाँ दी जावें । इस काममें मुनाफा भी होगा और गरीबोंको बड़ा भारी लाभ होगा। मन्दिरोंकी रकमें इस काममें व्याजके ऊपर लगानेकी भी कोई कोई भाई सलाह दे रहे हैं। हमारे दिगम्बरी भाईयोंको भी इस कार्यमें योग देना चाहिए।
जैनियोंमें पुनर्विवाह-जैनियोंमें एक 'जैसवाल' नामकी जाति है। सुसनेर ( ग्वालियर ) में जैसवाल भाईयोंकी अच्छी बस्ती है। वहाँके चौधरी चैनसिंहजीकी कन्याका विवाह एक युवकके साथ हो चुका था; परन्तु विवाहके दूसरे ही दिन वह युवक मर गया । चौधरीजीसे अपनी लडकीका यह दुःख देखा न गया, इसलिए उन्होंने एकही महीना
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पीछे एक दूसरा वर तलाश करके उसके साथ उसकी शादी कर दी। इस पर जातिमें बड़ी हलचल मची है। चौधरीजीको सबने जातिसे अलग कर दिया है, परन्तु लगभग २० घरके जैसवाल उनमें शामिल हो गये हैं । इधर बम्बईके नवीन मराठी पत्र 'लोकसेवक ' में एक नोटिस प्रकाशित हुआ है, जिसमें एक दशाहूमड किसी दिगम्बर जैन जातिकी विधवाके साथ विवाह करना चाहते हैं ! आपकी उम्र ३० वर्षकी है । ये बड़ी चिन्ताजनक खबरें हैं । __ शिक्षाके लिए दान–टिपराके जमींदार श्रीयुक्त आनन्दमोहन राय चौधरीने रंगपुरमें एक प्रथम श्रेणीका कालेज स्थापित करनेके लिए एक लाख रुपयेका दान किया है।
विलायतमें बंगाली वैज्ञानिक-बंगालके विश्वविख्यात विज्ञानाचार्य जगदीशचन्द्र वसुका आक्सफोर्ड विश्वविद्यालयमें ता०२० मईको वनस्पतियोंकी उत्तेजनप्रवणताके विषयमें अतिशय गवेषणापूर्ण व्याख्यान हुआ । आपने अपने निर्माण किये हुए यन्त्रादि भी वहाँके विद्वानोंके सामने पेश किये थे। आपके पाण्डित्यको देखकर विलायतवासी वैज्ञानिक चमत्कृत हो गये हैं ।
रवीन्द्रबाबूके ग्रन्थोंका विदेशोंमें आदर-कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुरका Gardener नामक अँगरेजी काव्य अभी कुछ ही महीने पहले प्रकाशित हुआ है। उसके प्रकाशक मेकमिलन कम्पनीके सभापति जार्ज ब्रेटने अपने व्याख्यानमें कहा है कि अकेले अमेरिका देशमें ही इस पुस्तककी एक लाखके अधिक कापियाँ बिक चुकी हैं । रविबाबूके चित्राङ्गदा काव्यका भी अँगरेजी अनुवाद प्रकाशित हो चुका है। इसकी भी खूब विक्री हो रही है। ___ आटा और मैदा—साधारण लोगोंका विश्वास है कि आटेसे मैदा अधिक पुष्टिकर है। परन्तु यह केवल भ्रम है। वास्तवमें मैदासे
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आटा अधिक पुष्टिकर है, कलके आटेसे चक्कीका आटा अधिक बलकारा है और छाने हुए आटेकी अपक्षा बिना छाना हुआ-चापड़ भूसीयुक्त आटा अधिक गुणकारी है । आजकलके शौकीनोंको मैलापन जरा भी पसन्द नहीं । इसलिए वे आटेको जितना. बन सकता है, उतना सफेद बनानेकी कोशिश करते हैं । वे नहीं जानते कि सादे आटेमें जो मैलापन रहता है, वह उसके तैलाक्त अंश, फासफरस और नाइट्रोजनके मेलके कारण रहता है। सफेदीकी बढ़तीके साथ साथ धे चीजें कम होती जाती हैं और मनुष्य गेहूँके असली पौष्टिक भागसे वंचित होला जाता है । गेहूँका छिलका यदि अलग न किया जाय, तो पाचन शक्तिको बहुत लाभ होता है । यह अंश पुष्टिकर भी है। कलके आटेका स्वत्व और स्वाद घर्षणकी तीव्र उष्णतासे नष्ट हो. जाता है। - शोकजनक मृत्यु-इन्दौरके सुप्रसिद्ध सेठ रायबहादुर कस्तूरचन्दजीकी धर्मपत्नी श्रीमती अनूपबाईका आषाढवदी १२ को स्वर्गवास हो गया। कई महीनोंसे आप बीमार थीं। सेठजीने बहुत प्रयत्न किया-कोई एक लाख रुपया खर्च कर दिया- परन्तु लाभ न हुआ सेठानीजीका स्वभाव धर्माल था, विद्यासे भी आपको प्रीति थी। मृत्युके। समय आप ३१ हजार रुपयोंका दान कर गई हैं । इस दानसे कोई विद्याशिक्षासम्बन्धी संस्था खुलेगी । हमारी एकान्त इच्छा है कि सेठानीजीके, सद्गति प्राप्त हो और सेठजी अपने इस पत्नीवियोगदुःखसे शान्ति लाभ करें। ___ एक मजिस्ट्रेटका क्रोध—बेलारी जिलाके हरपनहल्ली नामक नगरमें 'यूनियन कमेटी' नामकी संस्था है। उसके सभापतिके पास वहाँके साहब मजिस्ट्रेटने एक फरमान भेजा कि भटकते हुए लावारिस कुत्ते मार डाले जावें । सभापति महाशय जैनी हैं, तो भी साहबके
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हुक्मकी बेअदबी न हो, इस लिए उन्होंने अपने हाथ नीचेके नौकरोंको वह फरमान दे दिया। पर उन्होंने अपने जैन सभापतिको प्रसन्न रखनेके लिए अथवा और किसी कारणसे उस हुक्मकी तामीली न की। तब सभापतिने एक मुसलमानको यह काम सोंपा, परन्तु उसने भी इंकार कर दिया । इस पर साहबबहादुरका मिजाज बेतरह बिगड़ा । आपने पब्लिक सड़क पर-जहाँ सैकड़ों आदमी एकटे हो रहे थे-सभापतिको बुलाया और हुक्म दिया कि तुम खुद अपने हाथसे कुत्तोंको मारो! सभापतिने इसके पालन करनेसे इंकार कर दिया । तब मजिस्ट्रेट साहब लाल ताते होते हुए और यह कहते हुए कि इसका परिणाम बहुत बुरा होगा-अपने घर चले गये । दूसरे दिन आपने सभापतिको ‘एक नोटिस दे डाला कि तुमने एक उचित आज्ञाका अनादर किया, इस लिए तुमपर मुकद्दमा क्यों न चलाया जाय ? हम आशा करते हैं मद्रास गवर्नमेंट इस मामलेकी अच्छी तरह जाँच करेगी और साहब बहादुरके विकृत मस्तकको ठिकाने ला देगी। इस तरहके मामलोंसे राजा और प्रजाके बीच द्वेषका बीज बोया जाता है । . सेठीजीका समाचार-बाबू अर्जुनलालजी सेठी, बी. ए. के कष्टोंका अभी तक अन्त नहीं आया। पूरे तीन महीने इन्दौरकी हवालातमें रखकर अब उन्हें ता० २३ जून को जयपुरकी हवालातमें भेज दिया है। उनपर न कोई जुर्म लगाया जाता है-न मुकद्दमा चलाया जाता है और न वे छोड़े ही जाते हैं। मालूम नहीं, सरकार अपराध सिद्ध किये बिना उनको यह हवालातकी सजा क्यों दे रही है। सुनते हैं पुलिससे पूछनेसे मालूम हुआ कि उन पर कोई राजनैतिक अपराध नहीं है।
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आवश्यक सूचनायें। १. कर्णाटक जैन-कवि-जैनहितैषीमें इस विषयके जो लेख प्रकाशित हुए थे, वे अब संग्रह करके जुदा छपा लिये गये हैं। इसके छपानेमें एक धर्मात्मा सेठने ४२) की सहायता की है, इस लिए लागतमेंसे उक्त सहायता बाद देकर इसका दाम सिर्फ आधा आना रक्खा गया है। साहित्यसेवियोंमें वितरण करनेके लिए इसकी दश दश पाँच पाँच प्रतियाँ सबको मँगा रखनी चाहिए। . २. श्रमण नारद-जैनहितैषीके पिछले अंकमें कर भला होगा भला' के नामसे जो छोटासा उपन्यास प्रकाशित हुआ था, वह बहुत ही शिक्षाप्रद और परोपकारभावोंको बढ़ानेवाला है। इसलिए हमने उसकी ३००० प्रतियाँ मुफ्त वितरण करनेके लिए जुदा छपा ली हैं। जो भाई चाहें, आधा आनेका टिकट भेजकर मँगा लेनेकी कृपा
करें। आध आनेमें चार प्रतियाँ भेजी जा सकती हैं । उन्हें जैन 'अजैन चाहे जिसे पढ़नेके लिए देना चाहिए ।
३ जैनहितैषीका यह अंक भी डबल निकाला जाता है। हितैषी अपने समयसे बहुत पिछड़ गया था, इस लिए इसके दो अंक संयुक्त निकालना पड़े। आगामी अंक जुदा जुदा ही निकाले जावेंगे और इस बातकी कोशिश की जायगी कि जिस महीनेका जो अंक हो, वह उसी महीनेके भीतर निकल जावे । .४ हिन्दीग्रन्थरत्नाकर सीरीज़-लगभग दो वर्षसे हम इस ग्रन्थमालाको निकालने लगे हैं । इतने ही समयमें सर्वसाधारणमें इसकी बहुत प्रसिद्धि हो गई है। हिन्दीकी यह सर्वोत्तम ग्रन्थमाला समझी जाने लगी है । इसके ग्रन्थोंको सभीने पसन्द किया है; परन्तु खेद है कि हमारे जैनी भाईयोंमें इसके बहुत ही कम ( न होनेके बराबर ) ग्राहक हुए हैं। हमें अपने भाईयोंसे इस काममें बहुत कुछ सहायता मिलनेकी आशा है। उन्हें इसके स्थायीग्राहक अवश्य बनना चाहिए। नमूनेके लिए इसका एकाद ग्रन्थ मँगाकर देख लेना चाहिए।
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ग्रन्थोंका नोटिस जुदा दिया है। 'चौबेका चिहा' नामक ग्रन्थमेंसे उद्धृत करके 'बुढापेकी बातें' शीर्षक लेख इस अंकके प्रारंभमें प्रकाशित किया गया हैं । उसे पढ़कर उक्त ग्रन्थके लेखोंका अनुमान किया जा सकता है। एक ग्रन्थ अभी हाल ही छपकर प्रकाशित हुआ है जिसका नाम है मितव्ययिता या गृहप्रबन्धशास्त्र । इसे बाबू दयाचन्द्रजी जैनी, बी. ए. ने लिखा है। यह ग्रन्थ प्रत्येक जैनकुटुम्बमें अवश्य रहना चाहिए और प्रत्येक पुरुष स्त्रीको इसका स्वाध्याय करना चाहिए।
दिगम्बर जैन डिरैक्टरी। छपकर तैयार है। शीघ्र मँगाइए। मूल्य,आठ रुपया। लगभग १५ हजार रुपयोंके खर्चसे यह बड़ी भारी पुस्तक तैयार हुई है। सारे हिन्दुस्थानमें कहाँ कहाँ, कितने किस किस जातिके जैनी बसते हैं, क्या धंदा करते हैं, मन्दिर कितने हैं, मुखिया कौन कौन हैं, किस गांवका कौनसा डाँकखाना, स्टेशन आदि है, दिगम्बरियोंकी कुल सख्या कितनी है, कौन कौन जातिके कितने कितने घर हैं, सिद्धक्षेत्र अतिशय क्षेत्र आदि कहाँ कहाँ हैं, उनका और बड़े बड़े शहरों स्थानोंका प्राचीन इतिहास क्या है, इत्यादि सैकड़ों जानने योग्य बातोंका इसमें संग्रह है। व्यापारियों और नोटिस बाँटनेवाले लोगोंके लिए तो बड़े ही कामकी चीज है।
श्रीपालचरित हिन्दी वचनिकामें छपाया गया है। छपाई बहुत अच्छी है । भाषा सरल है। पक्की जिल्द बँधी है। एक रुपया दो आनेमें मँगा लीजिए। जम्बूस्वामी चरित्र भी हिन्दी वचनिकामें छपा है। मूल्य ।)। जैनार्णव भी जिसमें-१०० पुस्तकोंका संग्रह है- हमारे यहाँ मिलता है । मूल्य एक रुपया। मैनेजर,-जैनग्रन्थरत्नाकर कार्यालय,
हीराबाग, पो० गिरगांव, बम्बई।
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जैनग्रन्थरत्नाकर कार्यालयकी छपी
हुई पुस्तकें।
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मोक्षमार्गप्रकाश १॥ | भक्ताभरस्तोत्र-सान्वयार्थ शाकटायन प्रक्रियासंग्रह
और भाषापद्य (संस्कृत) ३॥ सूक्तमुक्तावली प्रद्युम्नचरित्र भाषावच- श्रुतावतारकथा - निका
२॥ भूधरजैनशतक बनारसीविलास (कविता) १॥ क्षत्रचूडामणि काव्य प्रवचनसार परमागम उपमिति भवप्रपंचाकथा (कविता)
१ प्रथम प्रस्ताव वृन्दावनविलास (कविता) ॥ उपमितिभवप्रपंचाकथा धूर्ताख्यान
अद्वितीय प्रस्ताव नित्यनियमपूजा . " जैनविवाहपद्धति भाषापूजासंग्रह
बारस अणुबेक्खा मनोरमा उपन्यास
भाषानित्यपाठसंग्रह-रेश ज्ञानसूर्योदय नाटक
मीजिल्दका ॥ सादा। तत्त्वार्थसूत्रकी बालबो- प्राणप्रिय-काव्य
धिनी भाषा टीका कियामंजनी जैनपदसंग्रह पहला भाग । सज्जनचित वल्लभ जैनपदसंग्रह दूसरा भाग ५ सप्तव्यसन चरित्र जैनपदसंग्रह चौथा भाग ॥ पंचेन्द्रियसंवाद जैनपदसंग्रह पांचवां भाग । जैनसिद्धान्त प्रवेशिका । ज्ञानदर्पण
जैनबालबोधक प्रथम भाग ॥ रत्नकरण्डश्रावकाचार बालबोधजैनधर्म प्रथम भाग ॥ सात्वयार्थ .
बालवोधजैनधर्म द्वि० भाग द्रव्यसंग्रह अन्वय अर्थ बालबोध जैनधर्म तृ. भाग सहित
बालबोध जैनधर्मच० भाग ।
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शीलकथा दानकथा दर्शनकथा निशिभोजनकथा रविव्रतकथा दियातले अंधेरा
सदाचारी बालक समाधिमरण- दो तरहका -
समाधिमरण और मृत्यु महोत्सव अरहंतपासाकेवली
भक्तामर - मूल और भाषा
पंचमंगल
दर्शनपाठ
1] सामाजिक चित्र * बिनतीसंग्रह
s) जिनेन्द्रगुणानुवाद पच्चीसी आप्तपरीक्षा - मूल पाठमात्र J आप्तमीमांसा
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॥ द्यानतविलास चर्चाशतक न्यायदीपिका भाषाटी०स०||||
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छहढाला- दौलतराम कृत ] ॥
छहढाला- बुधजनकृत छहढाला-द्यानतराय कृत ] छत्तीसी मोक्षशास्त्र ( तत्त्वार्थसूत्र )
॥
मूल मुनिवंश दीपिका परमार्थ जकड़ी संग्रह
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] वृहद्रव्यसंग्रह - पुरुषार्थसिद्धय पाय - ज्ञानार्णव
शिखरमाहात्म्य - भा० व० निर्वाणकांड
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सामायिक और आलोचना - सामायिक पाठ भा०टी० कल्याणमन्दिर और एकी भावस्तोत्र आरती संग्रह
"
दूसरोंकी छपाई हुईं पुस्तकें |
आत्मख्याति समयसार भगवती आराधनासार सर्वार्थसिद्धि भाषावच
निका
विश्वलोचनकोष धन्यकुमारचरित्र भद्रबाहुचरित्र
-] | षटपाहुड़
धर्मसंग्रहश्रावकाचार धर्मरत्नोद्योत स्याद्वादमंजरी त्रैवर्णिकाचार ( मराठी ) ॥ इन्द्रियपराजयशतक
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अनुभवप्रकाश
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संशयतिमिर प्रदीप पंचस्तोत्र भाषा वाग्भट्टालंकार संस्कृत पंचस्तोत्र संस्कृत और भा० टी०
मानिकविलास परमात्म प्रकाश
| द्रव्यसंग्रह-सूरजभानु कृत पुरुषार्थ सिद्धचपाय-
धमोंमृत रसायण संक्षिप्त अर्थ
लावनी रत्नमाला देवगुरु शास्त्र पूजा-सार्थ चौबोल चौबीसी सुखानन्द मनोरमा नाटक ॥ वर्ष प्रबोध (ज्योतिष) अंजना सुन्दरी नाटक आर्यमतलीला सोमासती नाटक
| जैनसम्प्रदाय शिक्षा ३॥ श्रावक बनिता बोधिनी । चौबीस तीर्थकर पूजा कातंत्रपंच संधि-भा० टी. ) मनरंगलाल कृत ॥ अमरकोश मूल
। आराधना सार कथाकोश ३४] अमरकोश भा० टी० १॥ जिनेन्द्र गुन गायन हिन्दीकी पहली पुस्तक | जैन उपदेशी गायन हिन्दीकी दूसरी पुस्तक ५ गृहस्थधर्म हिन्दीकी तिसरी पुस्तक । जैनधर्मका महत्त्व हिन्दीकी तीसरी पुस्तक अनुभवानन्द
नाथूराम प्रेमीकृत विद्वद् रत्नमाला शील और भावना - जिनेन्द्रमत दर्पण प्रथमभाग वसुनन्दि श्रावकाचार | जैन जगदुत्पत्ति . भाषा टीका सहित .क्या ईश्वर जगतकर्ता है ॥ स्त्रीशिक्षा.प्रथम भाग प्रद्युम्नचरित्र (सार) स्त्रीशिक्षा द्वितीय भाग यशोधर चरित यशोधरचरित्र-प्राकृत नागकुमार चरित
और भाषा टीका सहित २]| पवनदूत जैननियम पोथी
॥ धर्मप्रश्नोत्तर सृष्टि कर्तृत्व मीमांसा यात्रादर्पण खंडेलवाल इतिहास ॥ हनुमानचरित्र
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प्रवचनसार
३३ पांडव चरित . गोम्मटसार कर्मकाण्ड २ हीरसौभाग्य
संस्कृत ग्रन्थ । सनातन जैनग्रन्थमाला सुभाषित रत्नसंदोह __ प्रथम गुच्छक जीवन्धर चम्पू
अलंकार चिन्तामणि नेमिनिर्वाणकान्य
पाश्र्वाभ्युदय सटीक चन्द्रप्रमचरित
परीक्षामुख धर्मशर्माभ्युदय महाकाव्य ? गोम्मट्टसार जीवकांड मूल । द्विसंधान महाकाव्य १॥
जीवंधर चरित्र यशस्तिलकचम्पू महाकाव्य शाकटायन प्रक्रिया संग्रह प्रथमखंड ३]
आप्तपरीक्षा , उत्तरखंड २ आप्तमीमांसा काव्यमाला सप्तमगुच्छक १
मोशशास्त्र मूल काव्यानुशासन वाग्भटकृतासहस्रनाम काव्यानुशासन-हेमचन्द्रा- . जैनस्तोत्र संग्रह
चार्यकृत २० गणरत्न महोदधि अध्यात्मकल्पद्रुम
जिनकथा द्वाविंशति जयन्तविजय जैननित्यपाठ संग्रह
यशोधर चरित काव्य पंचस्तोत्र
जैनेन्द्र पंचाध्यायी तिलक मंजरी
जैनेन्द्र प्रक्रिया प्रभावक चरित
आप्त परीक्षा पत्र परीक्षा १ सर्वसाधारणोपयोगी पुस्तकें ।
उपन्यास और कहानियाँ । आदर्शदम्पती
चन्द्रलोककी यात्रा आश्चर्यघटना (नौकाडूबी) १७ ठोकपीटकर वैद्यराज कादम्बरी
दुःखिनीवाला
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'देवरानीजिठानी देवी उपन्यास दो बहन धर्मदिवाकर 'धोखेकी टट्टी निःसहाय हिन्दू नूतनचरित्र प्रणयिमाधव पृथ्वी परिक्रमा प्रेमप्रभाकर - पारस्योपन्यास महाराष्ट्रजीवन-प्रभात - माधवीकंकण (इंडियन
प्रेसका )
माधवीकंकण ( वेंकटेश्वर
प्रेसका )
मुकुट युगलांगुलीय
रमामाधव
-राजपूतजीवन संध्या विचित्रवधूरहस्य - वीर मालोजी भोंसले शिवाजीविजय
शेखचिल्लीकी कहानियाँ
1] किंगलियर नाटक
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1) प्रेमलीला नाटक
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प्रभासमिलन नाटक 时
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षोड़शी - स्वर्णलता
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समाज ( रमेशचन्द्रदत्तकृत ) | सासपतोहू हिन्दू गृहस्थ
महाराणा प्रतापसिंह वेनिसका व्यापारी
शकुन्तला नाटक
बालकोपयोगी |
कर्त्तव्यशिक्षा कहानियोंकी पुस्तक बच्चोंका खिलौना
खेलतमासा
लड़कोंका खेल प्रबोधचन्द्रिका
प्रत्येक भागका
2) बालनिबंधमाला 1] बालनीतिमाला
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!!] | बाल आरव्योपन्यास चार भागों में U
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॥] | बालविनोद पहला भाग -1 दूसरा भाग - ॥ तीसरा भाग
चौथा
भाग 1] पांचवां भाग 1 | बालहितोपदेश बालहिन्दी व्याकरण बाल स्वास्थ्य रक्षा भाषापत्रबोध ॥] | भाषाव्याकरण
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हिन्दीव्याकरण हिन्दी शिक्षावली पहला भाग -] दूसरा भाग - तीसरा भाग भाग ॥ पांचवां भाग ॥
चौथा
स्त्रियोपयोगी पुस्तकें | आर्यललना
गृहिणी भूषण पतिव्रता
पाकप्रकाश
बालापत्र वोधिनी
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दूसरा भाग
बाला वोधिनी पहला भाग -] ॥ तीसरा भाग ।] चौथा
भाग 1] पांचवां भाग 1 ] भारतीय विदुषी स्वामी और स्त्री सीताचरित
सुशीला चरित्र
सौभाग्यवती
कविताकी पुस्तकें |
जयद्रथ-वध
पद्य - प्रबंध
रंगमें भंग
हम्मीर हठ हिन्दी मेघदूत
इतिहास |
इंग्लेंडका इतिहास जर्मनीका इतिहास जापानका इतिहास
15]
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जापानका उदय जापान दर्पण नेपालका इतिहास
फ्रांसका इतिहास राजस्थान ( राजपूताने ) का इतिहास प्र० भाग १०
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रूसका इतिहास सिंधका इतिहास जीवन चरित ।
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गारफील्ड १] | दशकुमार चरित
अब्दुलरहमानखां इतिहास गुरुखालसा उम्मेदसिंह चरित औरंगजेबनामा प्र० भा०
द्वि० भा०
दू० भा० १०
बुद्धका जीवन चरित राबिन्सन कसो हिन्दी कोविदरत्नमाला
वैद्यक ।
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कृत ।.
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आरोग्यविधान परिचर्या प्रणाली
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कुमारसंभवसार(कविता) । चन्द्रकान्त (वेदान्त ) कालिदासकी निरंकुशता जानस्टुअर्ट ब्लैकी जलचिकित्सा
। नवजीवनविद्या नाट्यशास्त्र
नाट्यप्रबंध महाभारत (सचित्र) ३] पश्चिमीतर्क - रघुवंश महाकाव्य २) भारतभ्रमण (पांचभाग) बेकनविचार रत्नावली ॥ मनोविज्ञान शिक्षा
२॥ मानसदर्पण हिन्दीभाषाकी उत्पत्ति राज्यप्रबंधशिक्षा विविध विषयोंकी पुस्तकें। राष्ट्रीयसन्देश इन्साफसंग्रह
व्यवहारपत्रदर्पण उपदेशकुसुम
स्वर्गीयजीवन कर्मयोग
स्वाधीनविचार ठहरो (उपदेशदर्पण) समाज (रवीन्द्रनाथकृत) "
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नये जैनग्रन्थ । द्यानतविलास या धर्मविलास-कविवर द्यानतरायजीकी कविताकी प्रशंसा करनेकी जरूरत नहीं । सब ही जैनी उससे परिचित हैं । उनका यह ग्रन्थ जिसमें उनकी प्रायः सब ही कविताओंका संग्रह है बड़ीही मिहनत, शुद्धता और सुन्दरतासे छपाया गया है। इसमें सारे जैनसिद्धान्तका रहस्य भरा हुआ है। मूल्य सिर्फ 1 रु० । ( इसमें चरचाशतक, द्रव्यसंग्रह शामिल नहीं है क्योंकि ये प्रन्थ जुदा छप चुके हैं।)
चर्चाशतक-मूलपद्य और सरल हिन्दी टीका सहित । मूल्य ।।
न्यायदीपिका-मूल संस्कृत और सरल हिन्दी भाषाटीका । मूल्य ॥ . गृहस्थ धर्म-श्रावक धर्मका खुलाशा वर्णन है । मूल्य १३) . . 'जैनधर्मका महत्त्व--अजैन विद्वानों, लेखकों, वाख्यातायों द्वारा जैनधर्मका महत्त्व दिखलाया गया है। मूल्य बारह आने ।
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अनुभवानन्द–ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी रचित अध्यात्मका मनन करने योग्य ग्रन्थ है। मूल्य आठ आने।
विद्वद्रत्नमाला--जिनसेन, गुणभद्राचार्य आशाधर, अमितगतिसूरि, वादिराज सूरि, महाकवि मल्लिषेण, और समन्तभद्राचार्य इतने विद्वानोंका बड़ी खोजसे लिखा हुवा इतिहास । मूल्य दश आने ।
जिनेन्द्रमत दर्पण प्रथम भाग-ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी रचित । मूल्य एक आना।
जैन जगदुत्पत्ति--सृष्टि कर्ता खण्डन विषयक एक लेख । मूल्य ॥ ...
क्या ईश्वर जगत्कर्ता है--अनेक युक्तियोंद्वारा जगत्का कोई कर्ता नहीं । है यह बतलाया है । मूल्य ॥
उपमिति भवप्रपंचा कथा द्वितीय प्रस्ताव--चारोंगतियोंके दुःखोंका वर्णन है। मूल्य पांच आने । प्रद्युम्न चरित्र प्रद्युम्नका कथा का संक्षेपमें वर्णन । मूल्य छह आने ।
यशोधर चरित काव्य-एकीभाव स्तोत्रके कर्ता वादिराज सूरिने यशोधर महाराजका सुन्दर चरित वर्णन किया है । ग्रन्थ मूल संस्कृतमें है । मूल्य आठ आने। यशोधर चरित-उपर्युक्त ग्रन्थका हिन्दी अनुवाद । मूल्य चार आने नागकुमार चरित-सरल हिन्दीमें नागकुमारका चरित है । मूल्य छह आने। पवनदूत-मूल संस्कृत और हिन्दी अनुवाद सहित । मूल्य चार आने ।
धर्मप्रश्नोत्तर-सकलकीर्ति आचार्य कृत मूल ग्रन्थकी यह हिन्दी भाषाटीका है । इसमें प्रश्नोत्तर रूपसे श्रावकाचारका वर्णन किया गया है। मूल्य दो रु० । __ यात्रा दर्पण-यह अभी हालहीमें छपा है। तीर्थक्षेत्रोंके सिवा और भी प्रसिद्ध प्रसिद्ध स्थानोंका वर्णन है । एक तीर्थस्थानोंका नकशा भी अलग दिया गया है जिससे यात्रियोंको बड़ा सुभीता हो गया है । मूल्य दो रु० ।
हनुमान चरित्र हनुमानजीका संक्षिप्त चरित सरल भाषामें लिखा गया है । मूल्य छह आने।
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प्रवचन सार--मूल संस्कृत, छाया अमृतचन्द्र सूरि और जयसेन सूरिं कृत दो संस्कृत टीका और-पं. मनोहरलालजी कृत भाषाटीका सहित । मूल्य तीन रु।
गोम्मटसार कर्मकाण्ड--मूल, संस्कृत छाया और पं०मनोहरलालजीकी बनाई हुई संक्षिप्त भाषा टीकासहित । मूल्य दो रुपया।
संत्यार्थ यज्ञ--दूसरा नाम मनरंगलालजी कृत चौबीस तीर्थकर पूजा । यह विधान अभी हाल ही में छपा है । मूल्य आठ आने ।
यशोधर चरित--मूल प्राकृत और भाषाटीका सहित । मूल्य २] - आराधनासार कथा कोश--इसमें १०८ कथायें कवितामें वर्णन की गई हैं । मूल्य ३॥ .
जिनेन्द्रगुणगायन--इसमें नाटककी चालके हुजूरी नई तर्जके पद, भजन, दादरा, ठुमरी, गजल, रेखता इत्यादि हैं । मूल्य दो आने।
जैन उपदेशी गायन-इसमें नई तर्जके नाटकादिके ५३ भजनोंका संग्रह है। मूल्य ढाई आने ।
हितोपदेश वैद्यक--जैनाचार्य श्रीकण्ठसूरि रचित । मुरादाबाद निवासी पं० शंकरलालजी जैन वैद्यने इसकी भाषा टीका की है। मूल्य १]
समरादित्यसंक्षिप्त--श्वेताम्बराचार्यकृत प्रसिद्ध संस्कृत ग्रन्थ । इसका कथाभाग और कवित्व बहुत सुन्दर है । मूल्य ढाई रुपया।
जैनेन्द्र पंचाध्यायी-मूल सूत्र पाठ मात्र । मूल्य चार आने । जैनेन्द्र प्रक्रिया--पुर्वार्द्ध, आचार्य वर्य गुणनन्दि रचित व्याकरण ग्रंथ मूल्य बारह आने।
सनातन जैन ग्रंथमाला--प्रथम खण्ड, आप्तपरीक्षा और पत्रपरीक्षा संस्कृत टीका सहित हैं। मूल्य एक रु० . अन्यान्य स्थानोंकी पुस्तकें। . .
स्वर्गीय जीवन-अमेरिकाके प्रसिद्ध अध्यात्मिक विद्वान राल्फ वाल्डो ट्राईनकी अंग्रेजी पुस्तकका अनुवाद । अनुवादक, सुखसम्पत्तिराय भंडारी उपसम्पा. दक सद्धर्म प्रचारक । पवित्र, शान्त, निरोगी, और सुखमय जीवन, कैसे बन
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सकता है, मानसिक प्रवृत्तियोंका शरीरपर और शारीरिक प्रवृत्तियोंका मनपर क्या प्रभाव पड़ता है आदि बातोंका इसमें बड़ा ही हृदयग्राही वर्णन है । प्रत्येक • सुखाभिलाषी स्त्रीपुरुषको यह पुस्तक पढ़ना चाहिए । मूल्य ॥y
स्वामी और स्त्री-इस पुस्तकमें स्वामी और स्त्रीका कैसा व्यवहार होना चाहिए इस विषयको बड़ी सरलतासे लिखा है। अपढ़ स्त्रीके साथ शिक्षित स्वामी कैसा व्यवहार करके उसे मनोनुकूल कर सकता है और शिक्षित स्त्री अपढ पति पाकर उसे कैसे मनोनुकूल कर लेती है इस विषयकी अच्छी शिक्षा दी गई है। और भी गृहस्थी संबन्धी उपदेशोंसे यह पुस्तक भरी है । मूल्य दश आना।
गृहिणीभूषण--इस पुस्तकमें नीचे लिखे अध्याय हैं- १ पतिके प्रति पत्नीका कर्तव्य, २ पति पत्नीका प्रेम, ३ चरित्र, ४ सीत्व एक अनमोल रत्न है, ५ पतिसे बातचीत करना, ६ लज्जाशीलता, ७ गुप्तभेद और बातोंकी चपलता, ८ विनय और शिष्टाचार, ९ स्त्रियोंका हृदय, १० पड़ोसियोंसे व्यवहार, ११ गृहसुखके शत्रु, १२ आमदनी और खर्च, १३ वधूका कर्तव्य, १४ लड़कियोंके प्रति कर्तव्य, १५ गंभीरता, १६ सद्भाव, १७ सन्तोष, १८ कैसी स्त्रीशिक्षाकी जरूरत है, १९ फुरसतके काम, २० शरीररक्षा, २१ सन्तान पालन, २२ गृह कर्म, २३ गर्भवतीका कर्तव्य और नवजात शिशुपालन, २४ विविध उपदेश, प्रत्येक पढ़ी लिखी स्त्री इस पुस्तकसे लाभ उठा सकती है । भाषा भी इसकी सबके समझने योग्य सरल है । मूल्य आठ आने ।
कहानियोंकी पुस्तक--लेखक लाला मुन्शीलालजी एम. ए. गवर्नमेंट पेन्शनर लाहौर। इसमें छोटी छोटी ७५ कहानियोंका संग्रह है । बालकों और विद्यार्थियोंके बड़े कामकी है। इसकी प्रत्यक कहानी मनोरंजक और शिक्षाप्रद है सुप्रसिद्ध निर्णयसागर प्रेसमें छपी है। मूल्य पांच आना।
समाज-बंग साहित्यसम्राट् कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुरकी बंगला पुस्तकका हिन्दी अनुवाद । इस पुस्तककी प्रशंसा करना व्यर्थ है । सामाजिक विषयोंपर पाण्डित्यपूर्ण विचार करनेवाली यह सबसे पहली पुस्तक है । पुस्तकमेंके समुद्रयात्रा, अयोग्यभाक्ति, आचारका अत्याचार आदि दो तीन लेख पहले जैनहितैषीमें प्रकाशित हो चुके हैं । जिन्होंने उन्हें पढ़ा होगा वे इस ग्रन्थका महत्त्व समझ सकते हैं । मूल्य आठ आना।
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राष्ट्रीय सन्देश - परमहंस श्रीस्वामी रामतीर्थजी एम्. ए. के अंग्रेजी लेखोंका अनुवाद । अनुवादक बाबू नारायणप्रसादजी अरोड़ा बी. ए. कानपुर । इस पुस्तक स्वामी रामतीर्थजीके उत्तम उत्तम लेख और उनकी संक्षिप्त जीवनी है । इनमें से अधिकतर लेख स्वामीजीने अमेरिकामें या अमेरिका से आनेके पश्चात् लिखे थे इसमें स्वामीजीका अमेरिकाका अनुभव भी मौजूद है । इन लेखों से स्वामीजीका देश प्रेम और असली वेदान्त टपकता है । पृष्ठ संख्या ९६ मूल्य छः आने ।
स्वाधीन विचार - श्रीयुक्त लाला हरदयालसिंहजी एम्. ए. के नामसे देशका - शिक्षित समुदाय अपरिचित नहीं । आज कल आप संयुक्त राज्य अमेरिकाके बड़े भारी विश्वविद्यालय में हिन्दू दर्शन शास्त्र के अध्यापक हैं । इस पुस्तकमें आपके ही लेखोंका संग्रह है । इसमें निम्न लिखित ९ विषय हैं १ पंजाबमें हिन्दी के प्रचारकी जरूरत, २ भाषा और जातिका सम्बन्ध, ३ धर्मका प्रचार, ४ अमेरिकामें भारतवर्ष, ५ यूरोपकी नारी, ६ राष्ट्रकी सम्पत्ति, ७ कुछ भारतीय आन्दोलनोंपर विचार, ८ भारतवर्ष और संसारके आन्दोलन, ९ महापुरुष । पृष्ठ संख्या ९४ मूल्य सिर्फ
चार आना ।
ट्राकोर, बड़ोदा,
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राज्यप्रबंध शिक्षा -- यह सुप्रसिद्ध देशी राजनीतिज्ञ इन्दौर के भूतपूर्व दीवान सर टी. माधवरावके अँगरेजी ग्रन्थ माइनर हिटेका हिन्दी अनुवाद है । कांशी नागरी प्रचारिणी सभाने छपवाया है । इसमें देशी राजाओं और जमीदारोंको अपनी रियासतोंका प्रबन्ध कैसे करना चाहिए, प्रजाके ' प्रति उनका क्या कर्तव्य है आदि बातों का बड़ी सरल भाषा में वर्णन है । मूल्य || पश्चिमीतर्क - इसे डी. ए. बी. कालेज लाहौरके प्रोफेसर लाला दीवानचन्द एम. ए, ने लिखा है । इसमें पाश्चात्य संसारके दर्शनशास्त्रका प्रारंभ से लेकर अबतक का इंतिहास, उसका विकाश, उसके सिद्धान्त और दार्शनिकोंका इति - हास आदि है । पुस्तक इतनी अच्छी है कि पंजाब के शिक्षाविभागने लेखकका प्रसन्न होकर १५००) पारितोषिक दिया है । मूल्य एक रुपया ।
प्रेमप्रभाकर -- रूस के प्रसिद्ध विद्वान् महात्मा टाल्सटायकी २३ कहानियोंका हिन्दी अनुवाद । प्रत्येक कहानी दया, करुणा, विश्वव्यापी प्रेम, श्रद्धा और भक्तिके तत्त्वों से भरी हुई है । बालक स्त्रियाँ जवान बूढे सब ही इनसे लाभ उठा सकते हैं । मूल्य १)
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धर्मदिवाकर-इसमें मनुष्यके जीवनका आदर्श बतलाया गया है। -संसारमें कितना दुःख है और परोपकार स्वार्थत्याग प्रेममें कितना सुख है, यह उसमें एक कथाके बहाने दिखलाया है । मूल्य ।
नवजीवनविद्या-जिनका विवाह हो चुका है अथवा जिनका विवाह होनेवाला है उन युवकोंके लिए यह बिलकुल नये ढंगकी पुस्तक हाल ही छपकर तैयार हुई है । यह अमेरिकाके सुप्रसिद्ध डाक्टर • काविनके 'दी सायन्स आफ ए न्यू लाईन' नामक ग्रन्थका हिन्दी अनुवाद है। इसमें नीचे लिखे अध्याय हैं-१ विवाहके उद्देश्य और लाभ, २ किस उमरमें विवाह करना चाहिए, ३ स्वयंवर, ४ प्रेम और अनुरागकी परीक्षा, ५ स्त्रीपुरुषों की पसन्दगी, ७ सन्तानोत्पत्तिकारक अवयवोंकी बनावट, ९ वीर्यरक्षा, १० गर्भ रोकनेके उपाय, ११ ब्रह्मचर्य, १२ सन्तानकी इच्छा, १३ गर्भाधानविधि, १४ गर्भ, १५ गर्भपर प्रभाव, १६ गर्भस्थजीवका पालनपोषण, १७ गर्भाशयके रोग, १८ प्रसवकालके रोग, इत्यादि प्रत्येक शिक्षित पुरुष और स्त्रीको यह पुस्तक पढ़ना चाहिए । हम विश्वास दिलाते हैं कि इसे पढ़कर वे अपना बहुत कुछ कल्याण कर सकेंगे। पक्की जिल्द मूल्य पौने दो रुपया।
चन्द्रकांत प्र० भा०-( वेदान्त ज्ञानका मुख्यग्रंथ ) बम्बईप्रान्तके सुप्रसिद्ध 'गुजराती ' साप्ताहिक पत्रके गुजराती ग्रंथका अनुवाद, अनेक ग्रंथोंका सार लेकर इस ग्रंथकी रचना हुई है । वेदान्त जैसे कठिन विषयको बड़ी सहज रीतिसे समझाया है । मूल्य २॥
विद्यार्थीके जीवन का उद्देश-क्या होना चाहिए उसका एक ग्रेटुएट द्वारा लिखित इंग्लिश लेखका हिन्दी अनुवाद । मूल्य एक आना ।
विचित्रवधूरहस्य-बंगसाहित्यसम्राट कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुरके बंगाली उपन्यासका हिन्दी अनुवाद। रवीन्द्रबाबूके उपन्यासोंकी प्रशंसा करनेकी जरूरत नहीं करुणारसपूर्ण उपन्यास है । मूल्य ॥)
स्वर्णलता-बहुत ही शिक्षाप्रद सामाजिक उपन्यास है। बंगाली भाषामें यह चौदह बार छपके छपके विक चुका है। हिन्दीमें अभी हाल ही छपा है। मूल्य ११) __ माधवीकंकण-बड़ोदा राज्यके भूतपूर्व दीवान सर रमेशचन्द्रदत्तके बंगला उपन्यासका हिन्दी अनुवाद । मूल्य ॥
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षोड़शी-बंगलाके सुप्रसिद्ध गल्पलेखक बाबू प्रभातकुमार मुख्योपाध्याय बैरिस्टर ऍटलाकी पुस्तकका अनुवाद । इसमें छोटे छोटे १६ खण्ड उपन्यास हैं। मूल्यं १]
महाराष्ट्रजीवनप्रभात-सर रमेशचन्द्र दत्तके वंगला ग्रन्थका नया हिन्दी अनुवाद, इंडियन प्रेसका। वीर रसपूर्ण बड़ा ही उत्तम उपन्यास है ॥
राजपूतजीवनसन्ध्या -यह भी उक्त ग्रन्थकारका ही बनाया हुआ है। इसमें राजपूतोंकी वीरता कूट कूट कर भरी है। मूल्य बारह आने।
सुशीलाचरित-स्त्रियोपयोगी बहुत ही सुन्दर ग्रन्थ । मूल्य एक रुपया - शेख चिल्लीकी कहानियाँ । पुराने ढंगकी मनोरंजक कहानियाँ हाल ही छपी हैं । बालक युवा वृद्ध सबके पढ़ने योग्य । मूल्य ॥)
ठोक पीटकर वैद्यराज । यह एक सभ्य हास्यपूर्ण प्रहसन है । एक प्रसिद्ध फ्रांसीसी ग्रन्थके आधारसे लिखा गया है। हंसते हंसते आपका पेट फूल जायगा। आजकल विना पढ़े लिखे वैद्यराज कैसे बन बैठते हैं, सोभी मालूम हो जायगा। मूल्य सिर्फ चार आना।
आर्यललना--सीता, सावित्री आदि २० आयस्त्रियोंका संक्षिप्तजीवन चरित। मूल्यं ।।
बालाबोधिनी-पाँच भाग । लड़कियोंको प्रारंभिक शिक्षा देनेकी उत्तम पुस्तक । मूल्य क्रमसे - ), ), I), -),)।
आरोग्यविधान--आरोग्य रहनेकी सरल रीतियां । मू०)॥ अर्थशास्त्रप्रवेशिका--सम्पत्तिशास्त्रकी प्रारंभिक पुस्तक । मूल्य ।) सुखमार्ग-शारीरिक और मानसिक सुख प्राप्त करनेके सरल उपाय । मू०।)
कालिदासकी निरंकुशता--महाकवि कालिदासके काव्यदोषोंकी समालोचना । पं० पहावीरप्रसादजी द्विवेदीकृत । मूल्य ।)
हिन्दीकोविदरत्नमाला--हिन्दीके ४० विद्वानों और सहायकोंके चरित । मू० १॥) ___ कर्तव्यशिक्षा-लार्ड चेस्टर फील्डका पुत्रोपदेश । मूल्य १)
रघुवंश-महाकवि कालिदासके संस्कृत रघुवंशका सरल, सरस और भावपूर्ण हिन्दी अनुवाद। पं. महावीरप्रसादजी द्विवेदी लिखित । मूल्य २)
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हिन्दी ग्रन्थरत्नाकर -सीरीज़ |
हमने श्रीजैनग्रन्थरत्नाकरकी ओरसे हिन्दी साहित्यको उत्तमोत्तम ग्रन्थरत्नोंसे भूषित करनेके लिए उक्त ग्रन्थमाला निकालना शुरू की है । हिन्दीके नामी नामी विद्वानोंकी सम्मतिसे इसके लिए ग्रन्थ तैयार कराये जाते हैं । प्रत्येक ग्रन्थकी छपाई, सफाई, कागज़, जिल्द आदि लासानी होती है । स्थायी ग्राहकों को सब ग्रन्थ पौनी कीमत में दिये जाते हैं । जो ग्राहक होना चाहें उन्हें पहले आठ आना जमा कराकर नाम दर्ज करा लेना चाहिए । सिर्फ ५०० ग्राहकों की जरूरत है । अब तक इसमें जितने ग्रन्थ निकले हैं, उन सबही की प्रायः सब ही पत्रोंने एक स्वरसे प्रशंसा की है । हमारे जैनी भाइयोंको भी इसके ग्राहक बनकर अपने ज्ञानकी वृद्धि करनी चाहिए । नीचे लिखे ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके है:
१ स्वाधीनता ।
यह हिन्दी साहित्यका अनमोल रत्न, राजनैतिक सामाजिक और मानसिक स्वाधीनताका अचूक शिक्षक, उच्च स्वाधीन विचारोंका कोश, अकाट्य युक्तियोंका आकर और मनुष्य समाजके ऐहिक सुखोंका पथप्रदर्शक ग्रन्थ है । इसे सरस्वतीके धुरन्धर सम्पादक पं० महावीर प्रसादजी द्विवेदीने अँग्रेजीसे अनुवाद किया है । मूल्य दो रु० ।
२ जॉन स्टुअर्ट मिलका जीवन चरित ।
स्वाधीनता के मूल लेखक और अपनी लेखनीसे युरोपमें नया युग प्रवर्तित कर देनेवाले मिल साहबका बड़ा ही शिक्षाप्रद जीवन चरित हैं । इसे जैनहितैषी - के सम्पादक नाथूराम प्रेमीने लिखा है | मू० चार आने.
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३ प्रतिभा ।
मानव चरितको उदार और उन्नत बनानेवाला, आदर्श धर्मवीर और कर्मवीर बनानेवाला हिन्दीमें अपने ढंगका यह पहला ही उपन्यास है । इसकी रचना बड़ी ही सुन्दर प्राकृतिक और भावपूर्ण है । मूल्य कपड़ेकी जिल्द १|], सादी १
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४ आँखकी किरकिरी ।
जिन्हें अभी हाल ही सवालाख रुपयेका सबसे बड़ा पारितोषिक ( नौब प्राइज ) मिला है जो संसारके सबसे श्रेष्ठ महाकवि समझे गये हैं, उन बाब रवीन्द्रनाथ ठाकुरके प्रसिद्ध बंगला उपन्यास ' चोखेर वाली ' का यह हिन्दी अनुवाद है । इसमें मानसिक विचारोंके, उनके उत्थान पतन और घात प्रति घातोंके बड़े ही मनोहर चित्र खींचे हैं । भाव सौन्दर्यमें इसकी जोड़का दूसरा कोई उपन्यास नहीं । इसकी कथा भी बहुत ही सरस और मनोहारिणी है । मूल्य पक्की जिल्दका १|||] और साधीका १॥ रु० ५ फूलोंका गुच्छा ।
१५.
इसमें ११ खण्ड उपन्यासों या गल्पोंका संग्रह है । इसके प्रत्येक पुष्प सुगन्धि, सौन्दर्य और माधुर्य से आप मुग्ध हो जावेंगे । प्रत्येक कहानी जै सुन्दर और मनोरंजक है वैसी ही शिक्षाप्रद भी है । मूल्य दश आने ।
६ मितव्ययिता ।
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यह पुस्तक प्रत्येक भार
यह प्रसिद्ध अँगरेज लेखक डा० सेमवल स्माइल्स साहबकी अँगरेजी पुस्तक थिरिपृ ' का हिन्दी अनुवाद है । इसके लेखक हैं बाबू दयाचन्दजी गोयलीय बी. ए. । इस फिजूल खर्ची और विलासिता के जमाने में तवासी बालक युवा वृद्ध और स्त्रीके नित्य स्वाध्याय करने योग्य है । इसके पढने से आप चाहे जितने अपव्ययी हों, मितव्ययी संयमी और धर्मात्मा बन जावेंगे । बड़ी ही पाण्डित्य पूर्ण युक्तियाँस यह पुस्तक मरी है। इसमें सामाजिक, नैतिक, धार्मिक और राष्ट्रीय आदि सभी दृष्टियों से धन और उसके सदुपयोग विचार किया गया है । स्कूलके विद्यार्थियोंको इनाम में देनेके लिए यह बहुत ही अच्छी है । जून महीने में तैयार हो जायगी ।
७ चौबेका चिट्ठा ।
वंगभाषा के सुप्रसिद्ध लेखक बाबू बंकिमचन्द्र चटर्जी के लिखे हुए ' कमलाका न्तेर दफ्तर, ' का हिन्दी अनुवाद | अनुवादक पं० रूपनारायण पाण्डेय । इस पुस्तकके ५–६ लेख जैनहितैषी में 'विनोद विवेक - लहरी ' के नाम से निकल
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। चुके हैं। जिन पाठकोंने उन्हें पढ़ा है वे इस पुस्तककी उत्तमताको जाम कते हैं । हँसी दिल्लगी और मनोरंजनके साथ इसमें ऊँचेसे ऊँचे दर्जेकी शिक्षा दी है। देशकी सामाजिक धार्मिक और राजनैतिक बातोंकी इसमें बड़ी ही मर्मभेदी आलोचना है। हिन्दीमें तो इसकी जोडका परिहासमय किन्तु शिक्षा पूर्ण ग्रन्थ है ही नहीं, पर दूसरी भाषाओंमें भी इस श्रेणीके बहुत कम ग्रन्थ हैं । एकबार पढ़ना शुरु करके फिर आप इसे मुश्किलसे छोड़ सकेंगे ! मूल्य ग्यारह आने।
स्वदेश ( रवीन्द्र बाबूकृत), शिक्षा ( रवीन्द्रकृत ) आदि और कई ग्रन्थ तैयार हो रहे हैं। । क्या ईश्वर जगत्का कर्ता है ?
- दूसरी बार छपकर तैयार है । इसके लेखक बाबू दयाचन्द जैन बी. ए. ने इस छोटेसे लेखमें अनेक युक्तियों द्वारा इस बातको सिद्ध किया है कि इस जगतका कोई कर्ता हर्ता नहीं है । ईश्वरको जगतका कर्ता माननेवाले आर्यसमाजी आदि मतावलम्बियोंमें बांटनेके लिए यह ट्रेक्ट बड़ा अच्छा है । मूल्य )॥ सैकड़ा २॥ मंगानेका पता-अजिताश्रम-लखनऊ
मिलने का पता
जैनग्रन्थरत्नाकर कार्यालय हीराबाग, पो० गिरगांव-बम्बई ।
मुंबईवैभव प्रेस.
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चित्रशाला स्टीम प्रेस, पूना सिटीकी
अनोखी पुस्तकें। चित्रमयजगत्-यह अपने ढंगका अद्वितीय सचित्र मासिकपत्र है। “ इलेस्ट्रेटेड लंडन न्यूज" के ढंग पर बड़े साइज में निकलता है। एक एक पृष्ठमें कई कई चित्र होते हैं। चित्रोंके अनुसार लेख भी विविध विषयके रहते हैं। साल भरकी १२ कापियोंको एकमें बंधा लेनेसे कोई ४००, ५०० चित्रोंका मनोहर अलबम बन जाता है । जनवरी १९१३ से इसमें विशेष उन्नति की गई है। रंगीन चित्र भी इसमें रहते हैं। आर्टपेपरके संस्करणका वार्षिक मूल्य ५॥) डा० व्य० सहित और एक संख्याका मूल्य ॥) आना है। साधारण कागजका वा० मू० ३॥) और एक संख्याका ।)॥ है।
राजा रविवर्माके प्रसिद्ध चित्र-राजा साहबके चित्र संसारभरमें नाम पा चुके हैं। उन्हीं चित्रोंको अब हमने सबके सुभीतेके लिये आर्ट पेपरपर पुस्तकाकार प्रकाशित कर दिया है। इस पुस्तकमें ८८ चित्र मय विवरण. के हैं। राजा साहका सचित्र चरित्र भी है। टाइटल पेज एक प्रसिद्ध रंगीन चित्रसे सुशोभित है । मूल्य है सिर्फ १) रु०॥
चित्रमय जापान-घर बैठे जापानकी सैर । इस पुस्तकमें जापानके सृष्टिसौंदर्य, रीतिरवाज, खानपान, नृत्य, गायनवादन, व्यवसाय, धर्मविषयक और राजकीय, इत्यादि विषयोंके ८४ चित्र, संक्षिप्त विवरण सहित हैं। पुस्तक अव्वल नम्बरके आर्ट पेपर पर छपी है। मूल्य एक रुपया।
सचित्र अक्षरबोध-छोटे २ बच्चोंको वर्णपरिचय कराने में यह पुस्तक बहुत नाम पा चुकी है। अक्षरोंके साथ साथ प्रत्येक अक्षरको बतानेवाली, उसी अक्षरके आदिवाली वस्तुका रंगीन चित्र भी दिया है। पुस्तकका आकार बड़ा है। जिससे चित्र और अक्षर सब सुशोभित देख पडते हैं। मूल्य छह आना।
वर्णमालाके रंगीन ताश-ताशोंके खेलके साथ साथ बच्चोंके वर्णपरिचय करानेके लिये हमने ताश निकाले हैं। सब ताशोंमें अक्षरोंके साथ साथ रंगीन चित्र और खेलनेके चिन्ह भी हैं। अवश्य देखिये। फी सेट चार आने।
सचित्र अक्षरलिपि-यह पुस्तक भी उपर्युक्त “सचित्र अक्षरबोध" के ढंगकी है। इसमें बाराखडी और छोटे छोटे शब्द भी दिये हैं। वस्तुचित्र सब रंगीन हैं। आकार उक्त पुस्तकसे छोटा है। इसीसे इसका मूल्य दो
आने है।
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________________ सस्ते रंगीन चित्र-श्रीदत्तात्रय, श्रीगणपति, रामपंचायतन, भरतभेटी हनुमान, शिवपंचायतन, सरस्वती, लक्ष्मी, मुरलीधर, विष्णु, लक्ष्मी, गोपी चन्द, आहिल्या, शकुन्तला, मनका, तिलोत्तमा, रामवनवास, गजद्रमोक्ष, हरिहर / भेट, मार्कण्डेय, रम्भा, मानिनी, रामधनुर्विद्याशिक्षण, अहिल्योद्धार, विश्वामित्र मेनका, गायत्री, मनोरमा, मालती, दमयन्ती और हंस, शेषशायी, दमयन्ती इत्यादिके सुन्दर रंगीन चित्र। आकार 745, मूल्य प्रति चित्र एक पैसा। श्री सयाजीराव गायकवाड बड़ोदा, महाराज पंचम जाज और महारानी मेरी कृष्णशिष्टाई, स्वर्गीय महाराज सप्तम एडवर्डके रंगीन चित्र, आकार 8x10 मूल्य प्रति संख्या एक आना।। लिथोके बढियाँ रंगीन चित्र-गायत्री, प्रातःसन्ध्या, मध्याह्न सन्ध्या, सायंसन्ध्या प्रत्येक चित्र।) और चारों मिलकर // ), नानक पंथके दस गुरू, स्वामी दयानन्द सरस्वती, शिवपंचायतन, रामपंचायतन, महाराज जाज. महारानी मेरी। आकार 16x20 मूल्य प्रति चित्र।) आने। अन्य सामान्य-इसके सिवाय सचित्र कार्ड, रंगीन और सादे स्वदेशी बटन, स्वदेशी दियासलाई, स्वदेशी चाकू, ऐतिहासिक रंगीन खेलनेके ताश, आधुनिक देशभक्त, ऐतिहासिक राजा महाराजा, बादशाह, सरदार, अंग्रेजी राजकर्ता. गवर्नर जनरल इत्यादिके सादे चित्र उचित और सस्ते मूल्य पर मिलते हैं। स्कूलोंमें किंडरगार्डन. रीतिसे शिक्षा देने के लिये जानवरों आदिके चित्र सब प्रकारके रंगीन नकशे, ड्राईगका सामान, भी योग्य मूल्यपर मिलता है। इस पतेपर पत्रव्यवहार कीजिये। मैनेजर चित्रशाला प्रेस, पूना सिटी केशर। काश्मीरकी केशर जगत्प्रसिद्ध है। नई फसलकी उम्दा केशर शीघ्र मंगाईये / दर 1) तोला / सूतकी मालायें। सूतकी माला जाप देनेके लिए सबसे अच्छी समझी जाती हैं। जिन भाइयोंको सूतकी मालाओंकी जरूरत होवे हमसे मंगावें। हर वक्त तैयार रहती हैं। दर एक रुपयेमें दश माला। मेनेजर, जेनग्रन्थरत्नाकर कायालय, बम्बई /