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________________ ४०५ 1 है कि यह ग्रंथ सोमसेनत्रिवर्णाचारसे अर्थात् विक्रमसंवत् १६६७ से भी पीछेका बना हुआ हैं । वास्तवमें, ऐसा मालूम होता है कि ग्रंथकर्ताने सोमसेनत्रिवर्णाचारको लेकर और उसमें बहुतसा मजमून इधर उधरसे मिलाकर उसका नाम जिनसेनत्रिवर्णाचार रख दिया है । अन्यथा जिनसेन त्रिवर्णाचारके कर्ता महाशय में एक भी स्वतंत्र श्लोक बनानेकी योग्यताका अनुमान नहीं होता । यदि उनमें इतनी योग्यता होती, तो क्या वे पाँच पर्वोंमेंसे एक भी पर्वके अन्तमें अपने नामका कोई पद्य न देते और मंगलाचरण भी दूसरे ही ग्रंथसे उठाकर रखते ? कदापि नहीं । उन्हें सिर्फ दूसरोंके पद्योंमें कुछ नामादिका परिवर्तन करना ही आता था और वह भी यद्वा तद्वा । यही कारण है कि वे १३ पर्वों के अन्तिम काव्योंमें ' सोमसेन' के स्थानमें 'जैनसेन' ही बदल कर रख सके हैं। जिनसेनका बदल उनसे कहीं भी न हो सका । यहाँ पर जिनसेनत्रिवर्णाचारके कर्त्ताकी योग्यताका कुछ और भी दिग्दर्शन कराया जाता है, जिससे पाठकों पर उनकी सारी कलई खुल जायगी : ( क ) जिनसेन त्रिवर्णाचारके प्रथम पर्वमें ४५९ पद्य हैं। जिनमेंसे आदिके पाँच पद्योंको छोड़कर शेष कुल पद्य (४४६ श्लोक) भगवज्जिनसेनप्रणीत आदिपुराणसे लेकर रक्खे गये हैं । ये ४४६ 1 श्लोक किसी एक पर्वसे सिलसिलेवार नहीं लिये गये हैं, किन्तु अनेक पर्वोंसे कुछ कुछ श्लोक लिये गये हैं । यदि जिनसेनत्रिवर्णाचार के कर्ता में कुछ योग्यता होती, तो वे इन श्लोकोंको अपने ग्रंथ में इस ढंग से रखते कि जिससे मजमूनका सिलसिला (क्रम) और सम्बंध ठीक ठीक बैठ जाता । परन्तु उनसे ऐसा नहीं हो सका । इससे साफ ज़ाहिर है कि वे उठाकर रक्खे हुए इन श्लोकोंके अर्थको भी अच्छी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522795
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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