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________________ सरह न समझते थे । उदाहरणके तौर पर कुछ श्लोक नीचे उद्धृत किये जाते हैं: ततो युगान्ते भगवान्वीरः सिद्धार्थनन्दनः । विपुलाद्रिमलं कुर्वन्तेकदास्ताखिलार्थदृक् ॥ ६॥ अथोपसृत्य तत्रैनं पश्चिमं तीर्थनायकम्। . पप्रच्छामुं पुराणार्थ श्रेणिको विनयानतः ॥७॥ तं प्रत्यनुग्रहं भर्तुरवबुध्य गणाधिपः । पुराणसंग्रहं कृत्स्नमन्वोचत्स गौतमः॥८॥ अत्रान्तरे पुराणार्थकोविदं वदतां वरं। पप्रच्छुर्मुनयो नम्रा गौतमं गणनायकम् ॥ ९॥ भगवन्भारते वर्षे भोगभूमिस्थितिच्युतौ। कर्मभूमिव्यवस्थायां प्रसृतायां यथायथम् ॥ १० ॥ तदा कुलधरोत्पत्तिस्त्वया प्रागेव वर्णिता। नाभिराजश्च तत्रान्त्यो विश्वक्षत्रगणाग्रणीः ॥ ११ ॥ इन श्लोकोंमेंसे श्लोक नं० ६ मंगलाचरणके बादका सबसे पहला श्लोक है। इसीसे ग्रंथके कथनका प्रारंभ किया गया है। इस श्लोकमें 'ततो' शब्द आया है जिसका अर्थ है 'उसके अनन्तर'; परन्तु उसके किसके ? ऐसा इस ग्रंथसे कुछ भी मालूम नहीं होता। इस लिए यह श्लोक यहाँ पर असम्बद्ध है। इसका 'ततो' शब्द बहुत ही खटकता है। आदिपुराणके प्रथम पर्वमें इस श्लोकका नम्बर १९६ है। वहाँ पर इससे पहले कई श्लोकोंमें महापुराणके अवतारका-कथासम्बंधका-सिलसिलेवार कथन किया गया है। उसीके सम्बन्धमें यह श्लोक तथा इसके बादके दो श्लोक नं. ७ और ८ थे। अन्तके तीनों श्लोक ( नं.९-१०-११ ) आदिपुराणके १२ वें पर्वके हैं । उनका पहले तीनों श्लोंकोंसे कुछ सम्बंध नहीं मिलता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522795
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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