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विवाहयुक्तिः कथिता समस्ता संक्षेपतः श्रावकधर्ममार्गात् । श्रीगौतमर्षिप्रथितं पुराणमालोक्य भट्टारकजैनसेनैः ॥" ...
(पर्व १५ श्लो. अन्तिम) इन तीनों पद्योंमें सोमसेनके स्थानमें 'जैनसेन' का परिवर्तन तो वही है, जिसका जिकर पहले आचुका है। इसके सिवाय 'श्रीब्रह्मसूरि के स्थानमें ' श्रीगौतमर्षि ' ऐसा विशेष परिवर्तन किया गया है । यह विशेष परिवर्तन क्यों किया गया है और क्यों 'ब्रह्मसूरि' का नाम उड़ाया गया है, इसके विचारका इस समय अवसर नहीं है। ग्रंथकर्ताने इस परिवर्तनसे इतना सूचित किया है कि मैंने श्रीगौतमस्वामीके किसी ग्रंथ या पुराणको देखकर इस त्रिवर्णाचारके ये तीनों पर्व लिखे हैं। श्रीगौतमस्वामीका बनाया हुआ कोई भी ग्रंथ जैनियोंमें प्रसिद्ध नहीं है। श्रीभूतबलि आदि आचार्योंके समयमें भी, जिस वक्त ग्रंथोंके लिखे जानेका प्रारंभ होना कहा जाता है-गौतम स्वामीका -- बनाया हुआ कोई ग्रंथ मौजूद न था और न किसी प्राचीन आचार्यके ग्रंथमें उनके बनाये हुए ग्रंथोंकी कोई सूची मिलती है। हाँ, इतना कथन ज़रूर पाया जाता है कि उन्होंने द्वादशांगसूत्रोंकी रचना की थी । परन्तु वे सूत्र भी लगभग दो हज़ार वर्षका समय हुआ तब लुप्त हुए कहे जाते हैं। फिर नहीं मालूम जिनसेन त्रिवर्णाचारके कर्ताका गौतमस्वामिके बनाये हुए कौनसे गुप्त ग्रंथसे साक्षात्कार हुआ था जिसके आधार पर उन्होंने यह त्रिवर्णाचार या इसका ४ था, ७ वाँ और १५ वाँ पर्व लिखा है । इन पर्वोको तो देखनेसे ऐसा मालूम होता है. कि इनमें आदिपुराण, पद्मपुराण, एकीभावस्तोत्र, तत्त्वार्थसूत्र, पद्मनंदिपंचविंशतिका, नित्यमहाद्योते, जिनसंहिता और ब्रह्मसूरित्रिवर्णाचारादिक तथा अन्यमतके बहुतसे ग्रंथोंके गद्यपद्यकी एक विचित्र खिचड़ी पकाई गई है । परिवर्तनादिककी इन सब बातोंसे साफ जाहिर
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