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________________ ४१३ संस्कृत ग्रंथ में इस प्रकारकी गुजराती भाषाके आने से साफ़ यह मालूम होता है कि ग्रंथकर्ताको स्वयं संस्कृत बनाना न आता था और जब उनको उपर्युक्त पूजाविधि किसी संस्कृत ग्रंथमें न मिल सकी, तब उन्होंने उसे अपनी भाषामें ही लिख डाला है । और भी दो एक स्थानों 1 पर ऐसी भाषा पाई जाती है, जिससे ग्रंथकर्ताकी निवासभूमिकाअनुमान होना भी संभव है । योग्यताके इस दिग्दर्शनसे, पाठकगण स्वयं समझ सकते हैं कि जिनसे - त्रिवर्णाचार के कतीको एक भी स्वतंत्र श्लोक बनाना आता था कि नहीं। यहाँ तकके इस समस्त कथनसे यह तो सिद्ध होगया कि, यह - ग्रंथ (जिनसेनत्रिवर्णाचार) आदिपुराणके कर्ता भगवज्जिनसेनका बनाया हुआ नहीं है और न हरिवंशपुराणके कर्ता दूसरे जिनसेन या तीसरे और चौथे जिनसेनका ही बनाया हुआ है । बल्कि सोमसेनत्रिवर्णाचारसे बादका अर्थात् विक्रमसंवत् १६६७ से भी पीछेका बना हुआ है । साथ ही ग्रंथकर्ताकी योग्यताका भी कुछ परिचय मिल गया । परन्तु यह ग्रंथ वि० सं० १६६७.से कितने पीछेका बना हुआ है और किसने बना-या है, इतना सवाल अभी और बाकी रह गया है । जैनसिद्धान्तभास्करद्वारा प्रकाशित हुई और पुष्करगच्छसे सम्बन्ध रखनेवाली सेनगुणकी पट्टावलीको देखनेसे मालूम होता है कि भट्टारक श्रीगुणभद्रसूरिके पट्ट पर एक सोमसेन नामक भट्टारक हुए हैं । सोमसेनत्रिवर्णाचार में भट्टारक सोमसेन भी अपनेको पुष्करगच्छ में गुणभद्रसूरिके पट्ट पर प्रतिष्ठित हुए बतलाते हैं। इससे . पट्टावली और त्रिवर्णाचार के कथनकी समानता पाई जाती है । अर्थात् यह मालूम होता है कि पट्टावलीमें गुणभद्रके पट्ट पर जिन सोमसेन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522795
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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