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________________ ३९८ १३ वीं शताब्दी में हुए हैं। इन आचार्योंके उपर्युक्त ग्रंथोंसे जब पद्य लिये गये हैं, तब साफ प्रगट है कि यह त्रिवर्णाचार उनसे भी पीछे बना है और इस लिए श्रीमल्लिषेणाचार्यकृत ' महापुराण ' की प्रशस्तिमें उल्लिखित मल्लिषेणके पिता चौथे श्रीजिनसेनसूरिका बनाया हुआ भी यह ग्रंथ नहीं हो सकता। क्योंकि मलिषेणने शक संवत् ९६९ (वि. सं. ११०४) में ' महापुराण'को बनाकर समाप्त किया है। (७) इस ग्रंथके चौंथे पर्वमें एक स्थान पर 'सिद्धभक्तिविधान । का वर्णन करते हुए दस पद्योंमें सिद्धोंकी स्तुति दी है। इस स्तुतिका पहला और अन्तका पद्य इस प्रकार है: “यस्यानुग्रहतो दुराग्रहपरित्यक्तादिरूपात्मनः, सद्व्यं चिदचित्रिकालविषयं स्वैःस्वैरभीक्ष्णं गुणैः ।। सार्थ व्यंजनपर्ययैः समभवजानाति बोधः स्वयं, तत्सम्यक्त्वमशेषकर्मभिदुरं सिद्धाः परं नौमि वः ॥१॥ उत्कीर्णामिव वर्तितामिव हृदि न्यस्तामिवालोकय- . नेतां सिद्धगुणस्तुति पठति यः शाश्वच्छिवाशाधरः रूपातीतसमाधिसाधितवपुः पातःपतदुष्कृतव्रातः सोऽभ्युदयोपभुक्तसुकृतः सिद्धे तृतीये भवे ॥ १०॥ यह स्तुति पंडित आशाधरकृत 'नित्यमहोद्योत' ग्रंथसे, जिसे बृहच्छांतिकाभिषेक विधान भी कहते हैं, ज्योंकी त्यों उठाकर रक्खी हुई है। इसके दसवें पद्यमें आशाधरजीने युक्तिके साथ अपना नाम भी दिया है। सागारधर्मामतादि और भी अनेक ग्रंथोंमें उन्होंने इस प्रकारकी युक्तिसे (शिवाशाधरः या बुधाशाधरः लिखकर) अपना नाम दिया है। नित्य महोद्योत ग्रंथसे और भी बहुतसा गद्य पद्य उठाकर रक्खा हुआ है। इसके सिवाय उनके बनाये हुए 'सागरधर्मामृत' . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522795
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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