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________________ " वांछन्त्यो जीविका देव त्वां वयं शरणं श्रिताः। तन्नस्त्रायस्व लोकेश तदुपायप्रदर्शनात् ॥४७॥ श्रुत्वेति तद्वचो दीनं करुणाप्रेरिताशयः । मनः प्रणिधावेवं भगवानादिपूरुषः ॥४८॥ ये दोनों श्लोक आदिपुराणके १६ वें पर्वके हैं । इस पर्वमें इनका नम्बर क्रमशः १३६ और १४२ है। इससे भी प्रगट है कि यह ग्रंथ भगवजिनसेनका बनाया हुआ नहीं है । .. (६) श्रीसोमदेवसूरिविरचित 'यशस्तिलक ' श्रीहेमचंद्राचार्यप्रणीत ' योगशास्त्र' और श्री जिनदत्तसूरिकृत 'विवेकविलास'के पद्य भी इस ग्रंथमें पाये जाते हैं, जिनका एक एक नमूना इस प्रकार है: क-श्रद्धा तुष्टिर्भक्तिर्विज्ञानमलुब्धता क्षमाशक्तिः । __ यत्रैते सप्त गुणास्तं दातारं प्रशंसन्ति ॥ १४-११९ ॥ यह श्लोक यशस्तिलकके आठवें आश्वासका है। ख-अह्नो मुखेवसाने च यो द्वे द्वे घटिके त्यजन् । निशाभोजनदोषज्ञोऽश्नात्यसौ पुण्यभाजनम् १४-८७ ॥ यह योगशास्त्रके तीसरे प्रकाशका ६३ वाँ पद्य है। ग-शाश्वतानंदरूपाय तमस्तोमैकभास्वते । ___ सर्वशाय नमस्तस्मै कस्मैचित्परमात्मने ॥९-१॥ यह श्लोक विवेकविलासका आदिम मंगलाचरण है। ...श्रीसोमदेवसूरि विक्रमकी ११ वीं शताब्दीमें हुए हैं। उन्होंने विक्रम संवत् १०१६ (शक संवत् ८८१) में यशस्तिलकको बनाकर समाप्त किया है। श्वेताम्बराचार्य श्रीहेमचंद्रजी राजा कुमारपालके समयमें अर्थात् विक्रमकी १३ वीं शताब्दीमें (सं० १२२९ तक) विद्यमान थे और श्वेताम्बराचार्य श्रीजिनदत्तसूरि भी विक्रमकी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522795
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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