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अनादि कालसे युद्गलका जीवसे सम्बन्ध है और संसारी जीवमें मोह और राग द्वेप पाया जाता है ! संसारी आत्मा एक वस्तुसे गग करता है और दूसरीसे द्वेप करता है । किसी पदार्थको अपना हितकारी समझता है, किमीको हानिकर जानता है ! किसीको अपना मित्र समजता है, किसीको शत्र मानता है । इस प्रकार अपने असली गुणको भूले हुए है। पर पदार्थको अपना मानता है। जितने काम, क्रोध, लोभ, मान, माया आदि बुरे विचार होते हैं, वे सब गम द्वेपके ही कारण होते हैं। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील आदि जितने बुरे काम होते हैं उन सबकी जड भी राग द्वेष है । इस राग द्वेपके कारण ही पुदलका जीवके साथ संयोग है। वास्तवमें कर्म दो प्रकारका है-भाव कर्म और द्रव्यकर्म । रागद्वेष-- रूप जो जीवके भाव हैं, वे भावकर्म हैं। पुद्गल परमाणु जो आत्माके साथ अघनरूप हो रहे हैं, वे द्रव्यकर्म है। भावकर्म, और द्रव्यकर्ममें निमित्त नैमित्तिक संबंध है । भावकर्म द्रव्यकर्मके कारण और
व्यकर्म भावकर्म के कारण हैं । जीवका असली स्वभाव ज्ञान है; परन्तु द्रव्यकर्म के प्रभावसे यह नान रागद्वेषरूप हो रहा है और रागद्वेपके कारण नवीन व्यकर्म आत्माकी तरफ खिंचकर उसके माथ वैधता है ! दव्यकर्म माम पटलपरमाणुओंका अनुदाय है जिपका स्वभाव यह है कि जीवके असली स्वभावको नष्ट करके उसमें तरह तरहक पर देश के भाव पैदा कर देता है ! यह मुदल परमाणुओं का समुदाय अनेक प्रकारका है । संसारी जीयों की समस्त पयायों का यहीं कारता है । कर्मों के मुख्य आठ भेद हैं। पहला मेड लानावरणीय कर्म है यह वह कर्म है कि जिसका स्वभाव आत्माके वास्तविक ज्ञान और पर्वजपनेको रोकने ढंकनेका है। यदि आत्मामें उस कर्मकी अधिकता है. तो आत्माके ज्ञानमें न्यूनता होगी और यदि उस कर्मकी आत्मामें न्यूनता है, तो उसके ज्ञानमें
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