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इनमें से जीवका स्वभाव अन्य पाँचों द्रव्य और स्वयँ अपनेको जाननेका है । अन्य पाँचों द्रव्य न अपनेको जान सकते हैं और न किसी दूसरेहीको । जीव ज्ञाता है और शेष पाँच द्रव्य ज्ञेय हैं। जीवका यह स्वभाव है कि अपने आपको, शेष पाँचों द्रव्योंको और छहों द्रव्योंकी भूत, भविष्यत्, वर्तमान कालकी समस्त पर्यायों और गुणोंको एक ही समयमें जाने। स्वभाव सर्वज्ञता है, परन्तु संसारी जीवका यह स्वभात छि
तेह- . है, प्रगट नहीं है । संसारी जीवका स्वभाव विभावरूप हो रहा है. संसारी जीवको जो कुछ ज्ञान होता है, वह इन्द्रियोंके द्वारा ही होता है। संसारी जीव इन्द्रियों के अधीन हैं। वह आँखके बिना किसी चीजको नहीं देख सकता, कानके बिना कोई शब्द नहीं सुन सकता, जिह्वा पर रक्खे बिना किसी चीज़का स्वाद नहीं जान सकता, नाकके बिना सुगन्धि दुर्गन्धिकी पहचान नहीं कर सकता
और सामने रक्खी हुई, चीजको जबतक हाथसे नहीं छूता, यह नहीं बतला सकता कि यह कड़ी है या नर्म, ठंडी है या गर्म । किसी आदमीको एक ऐसे मकानमें बन्द कर दिया जाय कि जो हर तरफसे बन्द हो और जिसमें केवल छोटे छोटे छिद्र हों जिनमें होकर कुछ कुछ हवा और रोशनी जाती हो । अब अनुमान किया जा सकता है कि उसको बाहरकी दुनियाका कितना ज्ञान होगा और वहाँ बन्द रहनेसे उसका स्वास्थ्य कैसा रहेगा । यही हाल इस संसारी जीवका है। यह कर्मों के बन्धनमें बँधा हुआ है, इसी कारण अपने गुण अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य, अनंत सुखको खोये हुए हैं। अब देखना यह है कि जीवके साथ कर्मोंका बन्धन किस प्रकार हो रहा है।
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