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पदार्थोंको स्थान देनेका है। संसारकी समस्त वस्तुयें इसके अन्दर समाई हुई हैं । इसकी कोई सीमा नहीं। यह हर तरफ़को बेहद चला गया है। आकाश सर्वत्र फैला हुआ है और जीव, पुद्गल, काल, धर्म, अधर्म सबको अपनेमें समाये हुए है । यह ज्ञानरहित है अर्थात इसमें जानने, देखनेकी शक्ति नहीं है.। जीव ही इसको व अन्य पदार्थों को जानता है।
धर्म । यह भी एक सूक्ष्म द्रव्य है जो सर्वत्र फैला हुआ है। इसका स्वभाव यह है कि यह जीव और पुद्गलकी गतिमें उदासीन रूपसे सहायता देता है। जिस तरह दरियामें पानी मछलीको चलनेमें मदद देता है, उसी प्रकार यह धर्म द्रव्य जीव और पुद्गलको मदद देता है।
अधर्म। यह द्रव्य भी अत्यंत सूक्ष्म है और समस्त संसारमें फैला हुआ है। इसका स्वभाव यह है कि जीव पुद्गलके ठहरनेमें सहायता देता है । जिस तरह मुसाफिर ( पथिक ) धूपमें चलते चलते किसी वृक्षकी छायाके नीचे ठहर जाता है और छाया उसको ठहरनेमें सहायता देती है, उसी तरह जब जीव, पुद्गल और आकाशमें क्रियारहित होकर ठहरते हैं, तब यह अधर्म द्रव्य ठहरनेमें सहायक होता है।
इस प्रकार जैन धर्मानुसार ये छह द्रव्य सारे जगतको बनाये हुए हैं। ये छहों द्रव्य किसी समयविशेषमें उत्पन्न नहीं हुए, किन्तु अकृत्रिम, अनादि और अविनाशी हैं। अर्थात् न कभी इनका अभाव था और न कभी इनका अभाव होगा। सदासे हैं और सदा रहेंगे।
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