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जा रही हैं । उस तुम्हारे यौवन - लीला - निकेतन पलंगकी 'पट्टी' और 'पाए' चूल्हे में जलाए जा रहे हैं। तो बताओ, अब जंगलमें क्या बाकी रहा ?
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सबसे बढ़कर जलनकी बात यह है कि तुमने या मैंने उस जवानीके समय जिसे सुन्दर परमसुन्दर देखा था वही अब बुरा ( कुरूप) है। मेरे प्यारे मित्र बाबू आनन्दकन्द बड़े ठाटके साथ जब जवानी में मस्त हो रूपके घमंडमें ऐंठे फिरते थे तब ( उन्हीं के कथनानुसार ) न जाने कितनी रसिक रमणियाँ गंगातट पर उन्हें देखकर शिव पर जल चढ़ाते समय. नमः शिवाय " की जगह आनन्दकन्दाय नमः कह बैठती थीं । इस समय उन्हीं आनन्दकन्दका हाल क्या है ? - जानते हो ? वह रूपका बाजार लुट गया है, वे बड़ी बड़ी आँखें बैठ गई हैं, बाल पंक गए हैं, मुँह में दाँत एक भी नहीं रहा, खाल लटक आई है, लठिया टेककर सिर हिलाते -- मानो अपने किये पिछले कमों पर पछताते चले आते हैं । आनन्दकन्दजी जवानीमें एक बोतल बरांडी और तीन मुर्गियों का 'जलपान' करते थे, लेकिन अब वे ही लंबा तिलक लगाए, रामनामी चादर ओढे, उपदेश देते घूमते हैं । उनके खानेके 1 समय अगर कोई मद्यमांसका नाम भी ले लेता है तो वे परोसी हुई थाली छोड़कर उठ खड़े होते हैं और गालियों की 'फुलझड़ी' बन जाते हैं । तो बताओ, अब जंगलमें क्या बाकी है ?
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बतसियाकी मा हीराको देखो । जब वह मेरे फूलबाग में छिपकर फूल चुराने आती थी तब जान पड़ता था कि मानो नन्दनवन से चलतीफिरती फूलीफली कल्पलता लाकर छोड़ दी गई है। उसकी अलकोंके साथ हवा खेला करती थी, उसके आँचलको पकड़कर गुलाबका पेड़ छेड़छाड़ किया करता था । उसी हीराको आज देखो — बकझक
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