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________________ ३२८ करती हुई चावल फटक रही है । कपडे मैले हैं, बीच बीचमें टूटे हुए दाँतोंने चेहरेको विकट बना रक्खा है, शरीर दुबला और काला पड़ गया है, हड्डियाँ निकल आई हैं और झुर्रियाँ पड गई हैं ! यही वह रसरंगतरंगवती युवती हीरा है ! तुम्हीं बताओ, अब जंगलमें क्या बाकी है ? ___ तो यह बात निश्चित है कि मैं वनको न जाऊँगा ! क्योंकि मेरे लिये घर ही वन हो रहा है । अच्छा तो फिर क्या करूँगा ? महाकवि कालिदासने सर्वगुणसम्पन्न रघुवंशियों के लिये बुढापेमें मुनिवृत्तिको व्यवस्था की है । वे लिग्वते हैं शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयैषिणाम् । वार्द्धक्ये मुनिवृत्तीनां योगेनान्ते तनुन्यजाम् ॥ रघुवंशी लोग बचपनमें विद्याभ्यास, जवानीमें विषयभोग, बुढापेमें मुनिवृत्ति और चौथेपनमें योगसाधना द्वारा शरीर त्याग करते थे। मैं निश्चित रूपसे कह सकता हूँ कि कालिदासने ५० वर्षको अवस्था होनेके पहले ही रघुवंश लिखा है । यह प्रमाणित करनेके लिये मैं इन दोनों ग्रन्थोंसे दो श्लोक उद्धृत करूँगा। पहले रघुवंशम अजके बिलापमें आप लिखते हैं इदमुच्छसितालकं मुखं तव विश्रान्त कथं दुनोति माम्। - निशि सुप्तमिवैकपंकजं विरताभ्यन्तरषट्पदस्वनम् ॥ अर्थात् हे इन्दुमती, यह तुम्हारा मुख, जिमकी अलके हवासे हिल रही हैं-किन्तु जिसमें से कोई बात नहीं निकलती. मुझे बहुत ही व्यथित कर रहा है । यह वैसा ही जान पडता है जैसे एक कमलका फूल रातको मुकुलित होगया हो और उसके भीतर भौंरे गुंजन कर रहे हों। यह जवानीका रोना है। इसके बाद कुमारसम्भवमें, रतिविलापमें, वे ही कालिदास लिखते हैं: Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522795
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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