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________________ ३५२ मानके लिए संग्रह किया जाता है। ऐसी दशामें इन ज्ञानियोंमें सहृदयता और साहजिक हँसी खुशीकी बातें कहाँसे आवे? . . . __जिस ज्ञानको हम मन लगाकर अच्छी तरह उपार्जन करते हैं, वह हमारे रक्तके साथ मिल जाता है और जिसे पुस्तकें रट करके प्राप्त करते हैं, वह बाहर लटक कर हमें एक तरह सबसे जुदा कर देता हैं । इस लटकते हुए ज्ञानको हम किसी तरह भूल नहीं सकते, इस लिए इससे हमारा अहङ्कार बढ़ जाता है और इस अहङ्कारमें जो थोडासा सुख है वही हमारा एक मात्र भरोसा है । हमें पुस्तके ज्ञानसे यदि कुछ आनन्द मिलता है, तो वह यही है । यदि हम ज्ञानके स्वाभाविक आनन्दको प्राप्त करते, तो हमारे लाखों शिक्षितोंमें और कुछ नहीं तो दशबीस मनुष्य अवश्य ही ऐसे दिखलाई देते जिन्होंने ज्ञानचर्चा के लिए अपने सारे स्वार्थोंको संकुचित कर लिया है। हम देखते हैं कि लोग इधर तो सायन्सकी परीक्षामें प्रतिष्ठाके साथ उत्तीर्ण होते हैं और उधर डिपुटी मजिस्ट्रेट बनकर अपनी सारी विद्याको आईन और अदालतकी गहरी निरर्थकतामें सदाके लिए विसर्जन कर देनेके लिए तैयार हो जाते हैं ! बहुतसे युवक बड़ी बड़ी डिगरियाँ केवल कन्याओंके हतभागे पिताओंको ऋणकी गहरी कीचडमें डुब मारनेके लिए प्राप्त करते हैं ! मानो, अपने जीवनमें वे इससे अधिक स्थायी कीर्ति और कुछ भी लाभ नहीं कर सकते ! देशमें इस तरहके शिक्षित कहलानेवाले वकील वैरिस्टर जज क्लर्क आदि तो ढेरके ढेर हैं; परन्तु ज्ञानतपस्वी कहाँ हैं ? उनके तो दर्शन ही नहीं होते। ___ बातों ही बातोंमें बात बहुत बढ़ गई । शिक्षाके विषयमें हमारा जो कुछ काव्य है उसका सार यह है-बालकोंके मनमें इस प्रकारका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522795
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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