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है, क्योंकि यह अन्य पदार्थोंके स्वरूपका निर्णय तो कर सकता है किन्तु स्वस्वरूपका निर्णय नहीं कर सकता । कारण कि इसमें चेतना नहीं है । प्रमाण अवश्यमेव ज्ञान ही होना चाहिए। क्योंकि उसमें इच्छितके ग्रहण और अनिच्छितके त्याग करनेकी शक्ति है । उसका स्वरूप भी निश्चित होना चाहिए। क्योंकि वह समारोपके विरुद्ध होता है । समारोप तीन प्रकारका होता है:-(१) विपर्यय. जैस सीपको चाँदी समझना; (२) संशय, जैसे यह मनुष्य है या स्थाणु; और (३) अनध्यवसाय, जिसमें मनमें केवल इतना ही ज्ञान होता है कि कुछ है ।
९४. प्रमाण दो प्रकारका होता है:-(१) प्रत्यक्ष,(२) परोक्ष । प्रत्यक्ष प्रमाणके दो भेद हैं:-१ सांव्यावहारिक, २ पारमार्थिक । सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष प्रमाणके पुनः भेद किये गये हैं-एक तो इन्द्रियनिबंधन अर्थात् जो इंद्रियों द्वारा प्राप्त होता है और दूसरा अनिन्द्रियनिबंधन अर्थात् जो इन्द्रियोंसे नहीं किंतु मनद्वारा उत्पन्न होता है। इनमेंसे प्रत्येकमें चार श्रेणियाँ होती हैं, अर्थात् ( १ ) अवग्रह जिससे भेदका बोध हो, जैसे घोड़ा अथवा मनुष्य, परंतु इससे लक्षणोंका ज्ञान नहीं होता; ( २) ईहा अर्थात् पृच्छा जैसे मनुष्य कहाँसे आया अथवा घोडा किस देशसे आया; (३) अवाय, अर्थात् उपर्युक्त ज्ञानका ठीक निश्चय होना, (४) धारण अर्थात् उस विशेष वस्तुको याद करके मनमें धारणा करना । *
* अवग्रह इत्यादिका अर्थ जो यहां दिया गया है वह करनल जारैट द्वारा अनुवादित और बंगाल एशियाटिक सोसायटी द्वारा प्रकाशित, 'आईने अकबरी' जिल्द ३, पृष्ट १९० से उद्धृत किया जाता है। क्यों कि आईने अकबरीमें जैनधर्मसंबंधी परिच्छेदमें दिया हुआ प्रमाणविषयक भाग प्रमाण-नय-तत्त्वालोकालंकारके उसी विषयसे बहुत मिलता जुलता है । परंतु, इन शब्दोंका अर्थ जो डा० आर. जी. भंडारकरने संस्कृत हस्तलिखित ग्रंथोंकी सन् १८८३-८४ की. रिपोर्टमें पृष्ट ९३ पर टिप्पणीमें दिया है वह इससे भिन्न है।
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