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________________ ३३४ पारमार्थिक प्रत्यक्ष प्रमाण आत्माके प्रकाशसे ही उत्पन्न होता है और मुक्तिके लिए लाभदायक है । इसके दो भेद हैं:-(१) विकल (दूषित) अर्थात् निकटवर्ती अथवा दूरकी वस्तुओंका भेदरहित ज्ञान और मनःपर्ययज्ञान अर्थात् दूसरेके विचारोंका निश्चित ज्ञान और हृ दयकी गुप्त बातोंका बोध जिसमें सम्मिलित हैं; २ सकल ( सम्पूर्ण जो किसी पदार्थकी समस्त पर्यायोंका अबाधित ज्ञान है । जिसे सकल पारमार्थिक ज्ञान होता है उसे अर्हत् ( अर्थात् जो पूर्णतया निर्दोष तथा अबाधित हो ) कहते हैं। ९५. परोक्ष प्रमाण पांच प्रकारका है, अर्थात् १. स्मरण; २. प्रत्यभिः ज्ञान; ३. तके; ४. अनुमान; ५. आगम । ९६ अनुमान दो प्रकारका होता है:-१ स्वार्थ, जो अपने लिए हो २ परार्थ, जो दूसरोंके लिए हो । हेतु वह है जो साध्यके संबंधके बिना न रह सके । हेतु वह है जिसमें तीन लक्षण हों। यह परिभाषा त्याज्य है, क्योंकि इसमें आभास है । कोई कोई हेतुके तीन लक्षणों अथवा भेदोंको मानते हैं, परन्तु वे अनुमानमें पक्षका प्रयोग आवश्यकीय नहीं समझते । और कुछका यह मत है कि बहिर्व्याप्तिका दृष्टांत व्यर्थ है | ___१. निश्चितान्यथानुपपत्त्येकलक्षणो हेतुः न तु त्रिलक्षणकादिः । तस्य हेत्वाभासस्यापि सम्भवात् ॥११॥ (प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार, तृतीय परिच्छेद.) यह धर्मकीर्ति और अन्य बौद्ध नैयायिकोंपर आक्षेप है जो हेतुके तीन लक्षणोंकी परिभाषा निम्र रीतिसे करते हैं:--- त्रैरूप्यं पुनर्लिंगस्य अनुमेये सत्त्वमेव सपक्ष एव सत्त्वम् । असपक्षे चासत्त्वमेव निश्चितम् । (न्यायबिन्दु, द्वितीय परिच्छेद.) २. त्रिविधं साधनमभिधायैव तत्समर्थनं विदधानः कः खलु न पक्षप्रयोगम् - अंगीकुरुते ॥२३॥ (प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार, तृतीय परिच्छेद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522795
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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