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मनुष्यके मनके भीतर स्वभावका पवन और प्रकाश पहुँचाना आवश्यक हो, तो यह यों ही न पहुँच जायगा; इसके लिए या तो किसी महापुरुषको जन्म लेना पड़ेगा या किसी बड़े भारी विप्लवकी आवश्यकता होगी। अत्यन्त सहज सत्यको और अत्यन्त सहज बातको भी रक्त समुद्र तर कर आना होगा । जो आकाशके समान व्यापक
और वायुके समान मूल्यहीन है, उसके प्राप्त करनेमें भी बहुमूल्य प्राणोंको देना होगा।
यूरोपके मनोराज्यमें अकसर बीचबीचमें जो भूकम्प और अग्न्युपादकी अशान्ति दिखलाई देती है, उसका कारण यही है कि वहाँ स्वभावके साथ जीवनका या बहि:प्रकृतिके साथ अन्तःप्रकृतिका बड़ा भारी असामञ्जस्य हो गया है । अर्थात् वहाँका ज्ञान एक ओर जा रहा है और चरित्र दूसरी ओर । - यूरोपी इस विकृतिने हमारे यहाँ भी दर्शन दिये हैं । किन्तु इसे हमने केवल अनुकरणके द्वारा या छूतके द्वारा प्राप्त किया हैयह हमारे देशकी खास चीज नहीं है । हमने जिस दिन बचपनसे ही विलायती पुस्तकोंका रटना शुरू किया, उसी दिनसे हमारे यहाँ इसका प्रारंभ हुआ है । हम जिन सब विदेशी बातोंको सदा ही निस्सन्देह होकर परम श्रद्धांक साथ मानते और वर्तावमें लाते आ रहे हैं, हमें चाहिए था कि उनमेमे प्रत्येकको अविश्वासके साथ सत्यकी कसौटी पर घिसके जाँच कर लेते । क्योंकि उनका तीन चतुर्थांश भाग तो ऐसा है जो केवल पुस्तकों की सृष्टि है-एकसे दूसरी और दूसरीसे तीसरी पुस्तकने उसे सत्य बनाया है। पहले उसे दश आदमी एक दूसरेका अनुकरण करके सत्य कहते आते थे, धीरे धीरे और भी दश आदमियोंने उसे ध्रुव सत्यमें परिणत कर दिया और अन्तमें वह पुस्तकोंमें लिख दिया गया। पर इस प्रकारकी जाँच करना हमें पसन्द नहीं। कभी
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