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________________ ४२८ उनके बराबर भी जनसमाजके द्वारा नहीं हुए हैं। क्या हमारे लिए यह लज्जाका विषय नहीं है ? गतवर्ष जब सनातनजैनग्रंथमालाका निकलना शुरू हुआ, तब हमने समझा था कि यह माला स्थायी हो जायगी और इसके द्वारा धीरे धीरे सैकड़ों ग्रंथ प्रकाशित हो जावेंगे । जब हमारे श्वेताम्बरी भाईयों द्वारा 'श्रीयशोविजय ग्रन्थमाला' आदि अनेक ग्रन्थमालायें प्रकाशित हो रही हैं, तब हमारा अपनी इस दिगम्बर समाजकी इकलौती ग्रन्थमालाके स्थायीरूपसे चल निकलनेकी आशा करना स्वाभाविक था। परन्तु ग्रन्थमालाके सम्पादक महाशयसे मालूम हुआ कि इस कामके चलानेके लिए एक उदार महाशयने जो दो हजार रुपयेकी रकम दी थी, वह प्रायः खर्च हो चुकी है-उससे केवल एक अंक और निकल सकेगा । अब तक मालाके ८ अंक निकले हैं, किसी तरह ४ अंक और निकालकर इसकी 'इति श्री' कर देनी पड़ेगी। जैन समाजका ध्यान इस ओर बहुत कम है और इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि अब तक इसके कुल ६० ग्राहक हुए हैं और सौ सौ रुपये देकर पन्द्रह पन्द्रह प्रति लेनेवाले केवल ३ ग्राहक हैं । अब बतलाइए कि लगभग १०० ग्राहकोंके भरोसे -यह कष्टसाध्य और द्रव्यसाध्य काम कैसे चल सकता है ? क्या हम अपने पाठकोंसे इस विषयमें कुछ उद्योग करनेकी आशा कर सकते हैं ? यदि इस कार्यकी आवश्यकता समझी जाय, तो जैनसमाज इसे बड़ी आसानीसे जारी रख सकता है और थोडे ही दिनोंमें सैकड़ों ग्रन्थ प्रकाशित कर सकता है । नीचे लिखे उपाय ध्यान देने योग्य हैं: १. ब्रह्मचर्याश्रम हस्तिनापुर, स्याद्वादविद्यालय काशी, सेठ तिलोकचन्द हाईस्कूल इन्दौर, सेठ हुकमचन्द संस्कृत वटालरा रहदै , Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522795
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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