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________________ ४२७ यता करनी चाहिए। एक एक रुपयेसे हजारों रुपये एकडे हो जाते हैं। . ६ संस्कृतप्राकृतसाहित्यका प्रकाश-कार्य ।। ' हम इस बातको तो बहुत अभिमानके साथ कहने लगे हैं कि हमारे प्राचीन ऋषिमुनि और विद्वान् हजारों उत्तमोत्तम ग्रन्थ बनाकर रख गये हैं और उनमें अनेक ऐसे हैं जिनकी जोडके ग्रन्थ दूसरे. किसी साहित्यमें नहीं है। परन्तु यह कभी नहीं कहते कि उन ग्रन्थों'का उद्धार करनेके लिए, उनको सर्व साधारणकी दृष्टि तक पहुँचानेके लिए और उनके पठनपाठनका सुभीता कर देनेके लिए हमने क्या किया है । अपने इस प्रमाद पर हमें संकोच भी नहीं होता। हम बड़े बड़े विद्यालय और स्कूल स्थापित करनेका उद्योग तो करते हैं, पर यह कभी नहीं सोचते कि विद्यार्थियोंके पढ़नेके लिए आवश्यक ग्रन्थ कहाँसे प्राप्त होंगे? यूनीवर्सिटियोंको दरख्वास्तें तो देते हैं कि औरोंके समान जैनोंके साहित्यके भी संस्कृत प्राकृत ग्रन्थ भरती होना चाहिए, पर इसकी चिन्ता कभी नहीं करते कि कालेजोंके विद्यार्थी उक्त पाठ्य. प्रन्थपावेंगे कहाँसे ? क्या उनके लिए ईडर और नागौरके भट्टारक अपने भण्डार खाली करना पसन्द करेंगे? हमारा दिगम्बर समाज तो ग्रन्थप्रकाशनके कार्यमें सबसे पीछे पड़ा हुआ है। सच पूछा जाय, तो उसने अपने साहित्यके प्रकाश करनेमें उतना भी प्रयत्न नहीं किया है-जितना कि जैनसाहित्यके रासिक अन्य अजैन सज्जनोंने किया है। अब तक प्रकाशित हुए उच्चश्रेणीके दिगम्बर जैनग्रन्थोंका यदि हिसाब लगाया जाय, तो मालूम होगा कि इस कार्यमें निर्णयसागर प्रेसके स्वामी, श्रीयुक्त टी. एस. कुप्पूस्वामी शास्त्री, बंगाल एशियाटिक सुसाइटी, आदि जैनेतर महाशयोंके द्वारा जितने ग्रन्थ मुद्रित हुए हैं, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522795
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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