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३८०.
" एक गणधर नामके आचार्य हुए । उन्होंने, यतिवृषभने और उच्चारणचार्यने क्रमशः कषायप्राभृतकी गाथा, चूर्णि और वृत्तिकी रचना की ।
“ ये दोनों कर्मप्राभृत और कषायप्राभृत सिद्धान्त गुरुपरिपाटीसे कुण्डकुन्दपुरमें पद्मनन्दि मुनिको प्राप्त हुए । "
अर्थात् इन्द्रनन्दिसूरि के मत से भूतिबलि पुष्पदन्तके और उच्चारणाचार्य के बाद कुन्दकुन्दाचार्य हुए हैं । कितने बाद हुए हैं, यह नहीं कहा; परन्तु निम्नलिखित लोकसे मालूम होता है. कि वे उक्त आचार्योंकी मृत्युके कुछ वर्ष बाद हुए हैं । यदि ऐसा -न होता, तो ऐसा नहीं कहा जाता कि उन्हें दोनों सिद्धान्त गुरुपरि - पाटीसे प्राप्त हुए। वह श्लोक यह है:
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एवं द्विविधो द्रव्यभावपुस्तकगतः समागच्छन् । गुरुपरिपाट्या ज्ञातः सिद्धान्तः कुण्डकुन्दपुरे ॥ १६० श्रीपद्मनन्दिमुनिना....
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खेदका विषय है कि श्रुतावतार के कर्त्ताको गुणधर और धरसेन आचार्यका पूर्वापक्रम मालूम नहीं था - यदि उन्होंने उनकी गुरुपरिपाटी बतला दी होती, तो कुन्दकुन्दका समय सहज ही निश्चित हो जाता। तो भी उनके कथनसे यह तो निस्सन्देह कहा जासकता है
अंगपूर्व और उनके अंशोंका ज्ञान धीरे धीरे बराबर कम होता - जाता था और इस क्रम में धरसेन और गुणधराचार्य सबसे पिछले थे, जिन्हें अग्रायणी पूर्वान्तर्गत पंचमवस्तु के चौथे कर्मप्राभृतका तथा ज्ञानप्रवाद पूर्वान्तर्गत दशम वस्तुके तृतीय कषायप्राभृतका ज्ञान था ।
१ गुणधरधरसेनान्वयगुर्वोः पूर्वापरक्रमोऽस्माभिः
न ज्ञायते तदन्वयकथकागममुनिजनाभावात् ॥ १५१ ॥
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- श्रुतावतार ।
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